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नवंबर, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सीक्रेट

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उस दिन कान में वो सीक्रेट बात कहते हुए उसके कितना करीब आगई थी वो। कितना अलग लग रहा था उसे। पहले कभी वो किसी के इतना करीब नही आई थी। उसने सोचा ही नही था कि वो कभी अपने घर से इस समय बाहर आ भी पाएगी। सात बज रहे थे पर दोनों को घर की ज़रा भी याद नही आ रही थी। ठंड भी तो थी, एक अजीब सी ख़ुश्बू आ रही थी उस ठंडी हवा में घुलकर, उसने कभी नही सूँघा था, उस ख़ुश्बू को। शाम ज़रा और ठहर जाती तो वो उस फूल को भी ढूंढ निकालती। सुबह अपने बालों के छल्ले बनाकर आई थी वो, अब वो छल्ले वो ख़ुद खोल चुकी थी। कब से आज के दिन का इंतज़ार कर रही थी वो पर इतनी जल्दी शाम हो गई। उसका मन हुआ काश वो किसी एक शाम किसी फुटपाथ पर बैठकर यूँ ही उससे बातें करती रहे। वो शाम शायद ही कभी आ पाए। उसे हर शाम क्यों घर लौटना होता है? उसे भले ही महसूस हो रहा हो कि उसे उससे प्यार है पर वो क़ुबूल ही नही कर रही थी, करे भी कैसे?  वो कुछ कहता ही नही. बस चुपचाप उसकी चपर-चपर सुनता रहता है। कितना..? डेढ़ साल तो हो गया होगा उनकी दोस्ती को, वो कभी इस क़दर खुलता ही नही की उसको समझा जा सके। कभी-कभी उसे लगने लगता है कि उसकी चपर-चपर की वजह से ही वो बोल

ज़िन्दगी में

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तस्वीरों को हम जितना देख कर समझ पाते हैं उतना महसूस नही करते। हम बस देखते हैं उतना जितना दिख रहा होता है। तस्वीरों के पीछे की कहानी हमें कभी पता नही चलती। अगर कोई हमें बता दे की उस दिन फलाने की शादी में चच्चा आखिरी बार तस्वीर में कैद हुए थे, जब रमेश ने चाची के साथ उनकी फ़ोटो खेंचने को कहा तो चाची शरमा गईं थी। चच्चा को भी नही पता था की इसी तस्वीर को कभी उनका पोता दिवाली की सफाई करते-करते कूड़ेदान में सरका देगा। उस शादी में ना जाने कितनी तस्वीरें निकाली गई होंगी। आज उन तस्वीरों में दिखने वाले आधे लोग गुज़र चुके हैं। वीडियो में नाचती लड़कियाँ अब तीन-तीन बच्चों की माँ बन चुकी हैं। उनके घुटने अब दुखने लगे हैं।  ज़िन्दगी एक तस्वीर की तरह नही होती, एल्बम की तरह होती है। लेकिन ज़िन्दगी को होना चाहिए शादी वाले घर की तरह, जहां हँसी-मज़ाक, मनमुटाव, लड़ाई-झगड़ा, शोर-शराबा सब होता है। इन सभी की आवाज़ तस्वीरों में होती है बस सुनने के लिए कान चाहिए होते हैं। मैं ये दावा नही करता कि वो कान मेरे पास हैं। पर होने चाहिए। वो कान उगाने पड़ेंगे। समय पर उग भी जाएंगे। तुम जानो तुम्हारे पास वो कान और आँखें हैं कि

यूपीएससी और आँसू

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वे दोनों तब एक दूसरे को जानते भी नही थे जब उन्हें समझा दिया गया था कि तुम्हे ग्रेजुएशन के बाद यूपीएससी करना है। कॉलेज में दाखिले के बाद दोनों कब नज़दीक आ गए पता भी नही चला। दो साल किसी हिट फ़िल्म के शो की तरह निकल गए। तीसरे साल में दोनों को मुखर्जी नगर के कोचिंग सेंटरों के नाम याद आने लगे। नार्थ कैंपस उनका दूसरा घर था। ऋषि ने घर कह दिया था की अब तभी आऊंगा जब प्री क्लियर हो जाएगा। स्नेहा का मन धीरे-धीरे यूपीएससी से हटकर ऋषि पर केंद्रित होने लगा। लास्ट सेमेस्टर चुपके से आ गया। ऋषि को अब अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना था। एक दिन उसने कह दिया "स्नेहा मुझे अब पढ़ाई पर फोकस करना है, अब हम और साथ नही रह पाएंगे।"                              दो साल हो गए अब भी ऋषि का प्री क्लियर नही हुआ। आज अचानक स्नेहा ज़ार-ज़ार रोने लगी। उसे लगा की ज़िन्दगी ने उसे धोख़ा दिया है। उसका मन अब पढ़ाई में नही लगता। ऋषि का जूनून अब सर चढ़ने लगा है। चश्मा भी चढ़ गया। अब वो आर्ट्स फैकल्टी भी नही आते। दोनों ने साथ में कोचिंग सेंटर में दाखिला लिया था.. पर ऋषि ने अपना कोचिंग चेंज कर लिया। उनका प्यार भी यूपीएससी की भेंट चढ़

ढूंढना

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मैं उन किताबों में हूँ ही नही जिनमे तुम मुझे ढूंढ रहे हो। उन किताबों में कुछ ऐसा है ही नही जिसे पढ़ा जाए। सब कुछ तो किसी और का है। वो कथा भी हमारी नही। हमारी कथा कोई लिखेगा भी नही। मैं उस सफ़ेद कमरे में भी नही हूँ जहां मैं हफ्ते के सोलह घंटे गुज़ारा करता था। अब वहां जाने का मन भी नही होता। खुद को भूलकर देखो कभी। वो सोलह घंटे तुम खुद को ढूंढ भी सकते थे..  शायद तुम खुद को खोज लेते, तभी तो खुद को पहचान पाओगे। यहाँ तो समझ ही नही आ रहा कि कहाँ से जड़ें शुरू हैं और कहाँ से पत्तियाँ खत्म। ये समय बड़ा मुश्किल है। कोई बात नही, अभी ठहर जाओ थोड़ा। सोच लो तुम कहाँ हो। जगह को एक बार समझ लो फिर ढूंढो मुझे आराम से। समय वैसे कम ही है, संभावनाओं का कुछ पता नही। पर तुम पर यक़ीन है कि तुम ढूंढ लोगे मुझे। शुरुआत और अंत सब हमारे हाथ में ही है। जन्म और मृत्यु कभी शुरुआत और अंत नही हो सकते। मृत्यु के बाद भी हम खुद को ढूंढ सकते हैं, दूसरों में, उनकी बातों और यादों में। जीते जी मुझको ढूंढना अजीब सा है। खैर.. तुम ढूंढना मुझे कैंपस के दायरों के बाहर, मैं वहां हो सकता हूँ। देवेश, 4 नवम्बर  2016