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डायरी के वो पन्ने

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डायरी के उन पन्नों को फाड़ देने से क्या होगा? उन्हें लिख देने से भी क्या हुआ था? वो बातें खुद से कहने से डर रहे थे तुम। तुमने लिख दिया, हल्के हो गए। तुम्हें रखना था उन कागजों को संभाल कर। उन्हें आग के हवाले करने की ज़रूरत क्या थी? वो तो वैसे भी जल रहे थे। तुम्ही ने तो उनमें आग उंडेली थी। अब छूट गए क्या उन बातों से जो उसमें लिखी थी? क्या अब वो बातें कभी याद नही आएंगी? मैं तुम्हारी जगह होता तो शायद नही जलाता उन पन्नों को। आज उन्हें फिर पढ़ता और कोशिश करता फिर वही महसूस करने की जो तब लिखते हुए महसूस कर रहा था। मैं उन्हें पढ़ता बार-बार हर हफ्ते दस दिन बाद। धीरे-धीरे सब ठंडा हो जाता। इस बात का डर मुझे भी होता कि कहीं उन बातों को कोई और ना पढ़ ले। मैं उस डायरी को किताबों की पंक्ति में सबसे नीचे रखता। जब कोई उस डायरी को छूता तो मैं उस पर बरस जाता। तुमने कहाँ से ली थी वो डायरी? उसे खरीदने से पहले तुमने क्या ऐसा महसूस किया होगा जो तुम्हें लिखने लायक लगा होगा? तब शायद तुम्हें कोई ऐसा मिला ही नही होगा जिसके सिर्फ कान हो ज़बान ना हो (मुझे भी अब तक नही मिला)। कहा हुआ ज़्यादा देर जीवित नही रहता, लिखा