दुनिया देख, फिर आईयो

अभी यहीं इस कुर्सी पर बैठा हूँ। बाहर नहीं जा रहा। बाहर जाता हूँ तो मन में जो बन रहा है वह टूट जाएगा। इस पंक्ति के तीसरे कमरे में बैठकर मैं सोच रहा हूँ कि बाहर का मौसम कैसा होगा। बाहर धूप होगी या बादल? हवा बोल रही होगी या चुप होगी? आसमान गर दिख रहा होगा तो उसका रंग कैसा होगा?  इस कमरे में अगर एक खिड़की होती तो ये सवाल बन ही नहीं पाते। मेरी नज़र मुझसे पहले बाहर जा चुकी होती और इन तीनों और इनके अलावा सबका हाल-चाल ले चुकी होती। लेकिन यहाँ कोई खिड़की नहीं है। केवल एक दरवाज़ा है। जिसका प्रयोग अंदर आने और बाहर जाने के लिए किया जाता है। दरवाज़ा खिड़की नहीं है।

कुछ बातों को लेकर मैं स्पष्ट हूँ। जैसे कि बाहर जाने पर मुझे लोग नहीं दिखाई देंगे। अगर दो-चार लोग दिखेंगे भी तो कुछ देर में वे नहीं होंगे। उनकी जगह कोई और दो-चार लोग ले लेंगे। ये लोग खड़े होकर बातें नहीं कर रहे होंगे। न ही खेल रहे होंगे। न ही ख़रीदारी कर रहे होंगे। ये लोग घर जा रहे होंगे। उन घरों में, जो इनके नहीं हैं। उन घरों को निपटाकर इन्हें दूसरे घरों को भी निपटाना होगा।

यहाँ रहने वाले लोग घरों से बाहर नहीं निकलते। निकलते हैं तो ज़मीन पर नहीं चलते। उनके साधन और हैं। वे अधिकतर नौकरियों या दुकानों पर रहते हैं। उनके बच्चे स्कूल या कोचिंग में रहते हैं। जो औरते घरों पर बची रहती हैं उनके पास समय काटने को देवी-देवता, बाज़ार और मोबाइल हैं (इन तीनों को एक भी मान सकते हैं।)। इन तीनों का ईंधन पूँजी, उनके पति उगाह लेते हैं। राशन वे इकठ्ठा डलवाते हैं। फल ताज़ा ख़रीदते हैं। बढ़िया क्वालिटी के। लगता नहीं कि इनके कोई गाँव होंगे लेकिन अगर होंगे तो घी वहीं से मंगाते होंगे। शराब का मॉल पास में हैं ड्राई डे के अलावा कोई दिक्कत नहीं।

पेट घटाने की इच्छा जितनी बलवती होती है उतनी ही गीली जीभ हुई जाती है। यहाँ के लोग जीभ से दो काम लेते हैं। लज़ीज़ व्यंजनों के उपभोग का और सहायकों को निर्देश देने का। मैंने घरों में घुसकर नहीं देखा कि वे क्या और कैसे उपभोगते हैं, तो मुझसे यह उम्मीद न कि जाए कि मैं आपको बताऊँगा। मेरी दी ऐसी किसी भी सूचना का इस्तेमाल मेरे ख़िलाफ़ किया जा सकता है, इसलिए माउथ शट! बहरहाल, ये जीभ का दूसरा उपयोग बड़ा रचनात्मक है। रचनात्मक इसलिए कि वही इस समाज की रचना करता है। उससे ही तय होता है कौन अपनी जीभ का कब, कैसा प्रयोग कर सकता है और कब, कैसा नहीं। इस प्रयोग में दोनों प्रकार के प्रयोग शामिल हैं।

हिंदी कविता के इतिहास के कुछ विद्वान पुरानी कविता बखानते हुए गोरखनाथ से लेकर कबीर तक में मुझे उलझा गए। मैं समझता रहा कि कविता इनसानी चीज़ है। वे कहते रहे कि इसमें कुछ पेंच है। देखो आध्यात्म। देखो इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना। जब सब घुट जाएगा तो रस टपकेगा। इस पूरे क्रम का वही उद्देश्य है। मैंने अपनी बेचारगी को कहा माउथ शट! पूछा, गुरजी मेरे मस्तकमण्डल में ज्ञान रुपी अमृत क्यों न टपका अभी तक? मैं सहृदय न हुआ क्या? गुरजी नें मूल बात बादमें बताई (न पूछता तो न बताते)। कहा चेले दुनिया देख, फिर आईयो। मैंने कही ख़ुदा हाफ़िज़ गुरजी। गुरजी निकले चंट। ये न बताया कि दुनिया कौनसी देखूं। एक दुनिया में बसती है दस बीस दुनिया। मुझे तो जहाँ तवा-परात मिली मैं वहीं जम गया। यही दुनिया है। यही देख रहा हूँ।

इसी छोटी सी दुनिया में एक छोटा सा अमरुद का पेड़ है। डेढ़ हफ्ते से उसी पर नज़र गड़ाए था। अमरूदों का रंग हल्का होने की आस में रोज़ एक दिन गिनकर काटता। आज रुका न गया तो सबसे हल्के रंग वाला, सबसे नीचा अमरुद उचकके खींच लिया। दाँतों को ऐसे गाड़ा जैसे ज़मीन पर जेसीबी। अमरुद चला गया बीज छोड़ गया। वह भी दाईं जाड में। बीज वहाँ ऐसा जमा जैसे यहीं फलेगा। यहाँ प्रवेश होता है मेरी रसनेन्द्रीय का। ये उसकी टेरिटरी में हस्तक्षेप था। अपने पूरे रसासबाब के साथ वह भिड़ गई। यूँ भिड़ी कि भिड़ी रही। चाय-चबेना के दौर गुज़रे पर थकी नहीं। तो मुझे समझ में आया कि व्यक्तिगत संपत्ति बड़ी चीज़ है। वक़ालत यूँही तो फलती है लोगों को। मैं भी इस उम्र में वकील होता तो उस उम्र तक जज हो जाता। अगला टारगेट बाबर लेन। हाय ! कहाँ चेलेगिरि में फँस गया रे।

ख़ैर! चेला हुआ तो क्या हुआ। गुरु भी कभी चेला था। मैं कभी गुरु हुआ तो सबका गुरु होऊंगा। इस बात जितना आत्मविश्वास गुरजी के आगे नहीं दिखाता, नहीं तो बड़ बनके सारी धूप सोख लेंगे।

इस दुनिया को देखने में अभी इनके चाल-चलन देखने से पहले इनकी जीभ के चाल-चलन देख रहा हूँ। जीभ का जो दूसरा प्रयोग तब बता रहा था उसे थोड़ा और बढ़ा दूँ। इनकी जबान चलती बहुत है। घर पर काम करने वालों के दिमागों के साथ दिन भर गुंथी रहती है। तब उपदेश, आदेश, प्रताड़ना इसके प्रमुख कार्यक्रम हो जाते हैं। इनकी जिव्हा का इनके अपने दिमाग़ से ग़ज़ब का तालमेल है। जैसे पृथ्वी और सूर्य का तालमेल होता है न बिलकुल वैसे ही।

मुझे क्या करना मेरा तो जो काम है वो कर रहा हूँ। बस यहाँ अटक गया हूँ। समझ नहीं पा रहा ऊपर भाषा और लहज़े में आए बदलाव को अब कैसे संभालूं। आपको लग रहा होगा ज़्यादा ही चतुर बन रहा है। बेटा उतना परफॉर्मर तू है नहीं जितना दिखा रहा है। तो सुन लो मेरी बात। अभी बोलने वाला मैं हूँ। तो मेरी बताई बातें वैसे ही सुननी पड़ेगी जैसे मैं बता रहा हूँ।

यहाँ कुर्सी पर बैठे-बैठे अब थक गया हूँ। बाहर की सोचकर कोई फायदा नहीं है। बाहर जाकर ही पता चलेगा कि क्या रूप है।

मैं उठकर बाहर जाने से पहले दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में कसकर ज़ोर की अंगड़ाई लेता और सीधा दरवाज़ा खोलता। हवा या धूप या छाया खाता।  उससे पहले ही पंक्ति के दूसरे कमरे से कुटर-कुटर की आवाज़ आने लगी। एक क्षण में दिल बाग़-बाग़ हो गया। रात मैंने रोटी का टुकड़ा अटकाकर पिंजरा लगाया था और आज एक बड़ा सा चूहा फँस गया है। दूसरे ही क्षण वर्तमान की व्यर्थता मेरे मन पर छा गई। सोचा इस अनमोल उमर को चूहा-चुहिया फाँसने में गुज़ार रहा हूँ। जबकि ख़ुद किसी से फँस सकता था। उफ़!

अब मेरे विकट वर्तमान का सबसे बड़ा संकट ये है कि अभी इस चूहे का भविष्य मेरे ऊपर निर्भर कर रहा है। मेरा इस मूल्य में विश्वास है कि किसी जीव के प्राण लेने का हक़ मुझे नहीं है। प्रकृति अपना काम ख़ुद संभाले। मैं कौन होता हूँ। चूहों को धरने के कई और उपाय भी हैं। इस उपाय के चुनाव में ही मेरा विचार शामिल है। दूसरा उपाय यही है कि चूहे को बाइज़्ज़त-बाजान कहीं छोड़ दिया जाय। ये जो 'कहीं' है यही मेरा दूसरा बड़ा संकट है। यहाँ कोई जंगल नहीं, मैदान नहीं केवल महल हैं। महलों की अपनी सेनाएं है। कोई यहाँ का अध्यक्ष है तो कोई वहाँ का सचिव। कोई जहाँ का मेंबर है तो कोई तहाँ का लठैत। मैं कहाँ इस नन्ही जान को छोडूं। इसे बचाने के चक्कर में ख़ुद ही पिट जाऊँगा। न न। यहाँ तो चूहे पकड़ना भी ग़ज़ब सज़ा है। हे गुरजी मुझे इस संकट से उबारो। हे गुरपाठक मुझे कोई राह सुझाओ जिसपर इस नामुराद को छोड़ा जा सके और पलंग पर चैन से लोटा जा सके।


देवेश 

26 अक्टूबर 2021

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