tag:blogger.com,1999:blog-27295816015321841582024-03-20T12:44:56.770+05:30हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी..लिखते-लिखते तुम्हें प्यार लिखना भी सीख जाऊँगा..देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.comBlogger54125tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-85192634087171368752023-09-02T17:50:00.003+05:302023-09-10T16:35:01.283+05:30इन दिनों : अगस्त तेईस<p style="text-align: justify;"><span style="font-family: Mangal, serif; text-align: justify;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7YhO0Y0m3a2gVYFZP3YO3GbkcplzQ0AshhEbKHHm3WLopbm2Bar-unIa3ZOD9mAVShrVbg6EBSVHsJ-RuIh_tbSBgdxRGYk4G1JwYR_ToIIyoA1RTMV24HD_b6UEqPkYRcSoOSxaOr3IHBNVoZ-eaJVR2JiWlGWYZlcx9UTU3dT_dOd3gA2JRBHD-R7o/s1136/033d4910-8f0b-4b03-bbad-838e250aa208.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1136" data-original-width="756" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh7YhO0Y0m3a2gVYFZP3YO3GbkcplzQ0AshhEbKHHm3WLopbm2Bar-unIa3ZOD9mAVShrVbg6EBSVHsJ-RuIh_tbSBgdxRGYk4G1JwYR_ToIIyoA1RTMV24HD_b6UEqPkYRcSoOSxaOr3IHBNVoZ-eaJVR2JiWlGWYZlcx9UTU3dT_dOd3gA2JRBHD-R7o/s320/033d4910-8f0b-4b03-bbad-838e250aa208.jpg" width="213" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"><span style="font-size: 11pt;"><i><b>अगस्त की धूप-छाँव गई, छत गई, हवा गई, नीम गया, पड़ोसी गए, दोस्त गए, मन गया अब
क्या बचा है यहाँ? जो किताबें जमा की हैं वे किस काम आएंगी मेरे? उन्हें एक दिन
इकठ्ठा कर फूँक दूंगा. भीतर जो बचा रहेगा उसे भुला दूंगा. उसे याद रखकर करूँगा भी
क्या?</b></i></span></div><p></p><p style="text-align: justify;"></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इन पाँच सालों में क्या बदल गया? सबकुछ और कुछ भी नहीं. मैं अभी भी
यहीं हूँ. यहीं बैठा हूँ और सामने के अन्धकार को देख रहा हूँ. इसे अन्धकार न भी
कहूँ तो यह घना धुंधलका है. इसके पार देखा नहीं जा पा रहा. मन में चित्र बनते और
बिखरते हैं. जीवन की योजनाएँ बनती हैं और टूट जाती हैं. मैं इन्हें बनता-टूटता
देखता हूँ और एक गाढ़े मौन की रचना करता हूँ. हर शाम मैं मौन के स्थान पर आपाधापी
को चुनता हूँ और कुछ देर उस मौन को खो देता हूँ. रात अपने में लौट आता हूँ. और फिर
शाम तक अपने साथ बना रहता हूँ. यही इन दिनों दिनचर्या है. मैं इसे जल्दी ही तोड़
देना चाहता हूँ. मैं इस वक़्त नौकरी कर रहा होता तो इस वक़्त लिख नहीं रहा होता.
इसका मतलब है कि मैं लिख रहा हूँ, क्योंकि मैं नौकरी नहीं कर रहा. जितने
साक्षात्कार मैंने दिए नहीं उससे अधिक छोड़ चुका हूँ. मैं उनकी भाषा नहीं बोलता. वे
मेरी. एक बार उन्होंने मुझसे पूछा “काक भुशुण्डी का संवाद किस्से हुआ था”. तब से
लेकर अब तक मैं कागों की वागेंद्रियों की संरचना को समझने का प्रयास कर रहा हूँ.
कवि भी किस-किस कारिस्तानी में लगे रहते हैं. </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">अट्ठारह में यदि दादा गए न होते तो मेरे बालों को देख मुझे चिढ़ाना
उनकी आदत बन गई होती. मुझे देखने पर अपने मन में मन्त्र की तरह दुआएँ बुदबुदाते.
मैं उनकी कही कहानियों को चुपके से रिकॉर्ड कर लेता और इन दिनों के लिए बचाकर रख
लेता. मैंने ऐसा सोचा ही था कि अचानक घर से फ़ोन आया. मैं ऑटो में बैठा यही सोच रहा
था कि अब हमारी ज़िन्दगी बदल गई है. अब पहले जैसा कुछ नहीं होगा. मैं अस्पताल
पहुँचूँगा और उनकी देह मेरे सामने पड़ी होगी. मैंने उन्हें छुआ तो महसूस हुआ कि लौ
बुझ चुकी है. अब वे केवल एक देह हैं. वे वह नहीं जिनके लिए मैं भागा-भागा आया हूँ.
वह जिससे हमारा सम्बंध था अब नहीं है. अब यह केवल मिट्टी है. मैं उन्हें देखकर
विचलित नहीं हुआ. मैं विचलित तब हुआ जब हम घर पहुँचे. घर पहुँचने का वह दृश्य
बार-बार मेरे ज़हन में घूमता रहता है. मैं उससे कभी निकल नहीं पाउँगा. मेरे पास
उनकी ‘हातिमताई’ और ‘सिंहासन बत्तीसी’ रखी है. उनकी जिल्द उन्होंने ख़ुद चढ़ाई थी. </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">पहले लगता था मैं जहाँ हूँ एकदम ठीक जगह हूँ, शायद संयोग ठीक घटित हुए
हैं. लेकिन पिछले कुछ वक़्त से सब बदल गया है. मैं अगर यहाँ नहीं होता तो किसी
बेहतर जगह होता. ये पढ़ाई मुझे रास नहीं आई. एक तरफ इसने मुझे दिमागी और ज़हनी बोझ
से भर दिया है तो दूसरी तरफ इसने मुझे किसी और लायक नहीं छोड़ा. इसके अलावा मुझे
कुछ आता ही नहीं. मैं क्या करूँगा अब. लोग पूछते हैं कि इस डिग्री के बाद तुम
कॉलेज में पढ़ाने लगोगे न? मैं क्या जवाब दूँ उनके इस सवाल का? मेरे भी इस तरह के
कई सवाल हैं ख़ुद से. उनका जवाब मेरे ही पास नहीं है किसी और के पास क्या होगा. मैं
ऐसी जगह आ खड़ा हुआ हूँ जिसके आगे कोई राह नहीं दिखाई देती. मेरी दाढ़ी में लाल बाल
आ गए हैं और माँ अभी भी काम पर जाती है. रात को देर से सोता हूँ और सुबह देर से
उठता हूँ. इस कुर्सी और टेबल से दूर भागता हूँ. रोज़ उस दिन का इंतज़ार करता हूँ जब इन
किताबों को किसी कार्टन में भर दूँगा और उसे लटान के हवाले कर पाउँगा. लिखने से
उकता गया हूँ. कब मैं यहाँ से निकलूंगा.</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">उनके पिता या दादा या परदादा कहीं से दिल्ली आए थे काम की तलाश में.
उन्होंने दिल्ली में अपना डेरा जमाया. अब उनकी औलादें यानी कि मेरे दोस्त दिल्ली
छोड़ रहे हैं. उन्हें दिल्ली से बाहर कई संभावनाएँ दिखाई दे रही हैं. इस तरह या तो
उनके घर दिल्ली से बाहर हो गए हैं या केवल नौकरी. वे दिल्ली से दूर चले गए हैं,
विदेशों तक. उनके जाने से मैं जैसे ख़ाली होता गया हूँ. शाम की अड्डेबाजी यूँ तो उस
तरह कभी बन नहीं पाई लेकिन जो कुछ मौके बन भी पाते थे अब वे भी नहीं बनते.</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">जिन्हें मैं दोस्त मानता हूँ उन्हें लेकर शंकाओं से भरता गया हूँ. वे
क्यों मेरे दोस्त हैं? मैं क्यों उनका दोस्त हूँ? बार-बार मैं इस नतीजे पर पहुँचता
हूँ कि हमारा सम्बंध भी भावनात्मक लेन-देन पर ही आधारित है. जब मुझे ज़रूरत होती है
तो मैं उनके पास जाता हूँ. जब उन्हें मेरी ज़रूरत होती है तो वे मुझे याद करते हैं.
लेकिन अपने संताप के शिखर में मुझे कोई याद नहीं आता. मैं ख़ुद को दोस्तों से ख़ाली
पाता हूँ. जो दोस्त इधर-उधर निकल गए उन्हें मैं कभी अपने पास नहीं पाता लेकिन जो
हैं वे भी मेरे लिए नहीं के बराबर हैं. पिछले कुछ वक़्त से देख रहा हूँ कि अब वे
मुझे कम सुनते हैं. मैं चाहता हूँ की वे मुझे सुने जबकि वे उसी समय अपने मन में
मेरी समस्याओं के हल गढ़ रहे होते हैं. वे कभी समझ नहीं पाएँगे कि मेरी परेशानियों
के हल उनके पास हैं ही नहीं. मैंने बस चाहा कि वे मुझे सुन लें, लेकिन ऐसा अब नहीं
होता. कितनी ही बातें हैं जो मैं कहना चाहता हूँ, लेकिन उन्हें अपने मन में रखता
हूँ. जिस अकेलेपन से तंग होता हूँ धीरे-धीरे वही मेरा सुकून भी बनता जा रहा है. उस
दिन उसने पूछा कि अपने सबसे ख़ास मित्रों के नाम बताओ तो मुझे एक भी नाम याद नहीं
आया. मैं अपनी दोस्तियों में भी कभी कम्फरटेबल नहीं हो पाया. कुछ न कुछ ऐसा रहा जो
अदृश्य दीवार की तरह बीच में बना रहा. मैं लोगों की तस्वीरों को देखता हूँ तो
अचंभित होता हूँ. वे कैसे अपने दोस्तों से इतना प्यार कर पाते हैं? उनके पास
दोस्तों के प्रति उद्गारों को कहने की भाषा आती कहाँ से है? </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">दिन-दिन बेचैनी बढ़ती जाएगी ऐसा कभी नहीं सोचा था. पहले लगता था आज
नहीं तो कल इससे निकल जाऊंगा. एक दिन आएगा जब अपने घर की छत पर बहती हवा में शाम
की चाय पी रहा होऊंगा. उस वक़्त मन स्थिर होगा. किसी काम के बारे में नहीं सोच रहा
होऊंगा. नींद पूरी होगी. लेकिन अभी तक वह दिन नहीं आया और अब इस दुनिया में कोई आस
भी नहीं बची कि ऐसा हो पाएगा.</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">रात नींद से पहले कमरे की छत ताकता हूँ. छत में पंखा भी है. उसे भी
कभी-कभी देखता रहता हूँ. लेकिन फिर सोने की कोशिश करता हूँ. देर तक करवटें बदलता
हूँ. न जाने कब आँख लगती है. सुबह आँख खुलती है तो देह टूटी होती है. उसे जोड़ने
में कई मिनट लग जाते हैं. उठना ऐसे होता है जैसे कहीं जाना हो. लेकिन कहीं नहीं
जाना होता. पूरा दिन इसी बगैर खिड़की और आईने वाले कमरे में गुज़ारना होता है. सुबह
उठते ही सबसे पहले समय देखता हूँ. और ख़ुद को कोसता हूँ. धूप को देखकर उसे बद्दुआएं
देता हूँ. और दिन की योजनाएँ बनाता हूँ. ये जानते हुए कि ये योजनाएँ मेरे दिमाग़ का
एक फ़ितूर भर हैं. दिन का अधिकतर हिस्सा मुझे लैपटॉप से साथ गुज़ारना चाहिए लेकिन
मैं फ़ोन में लगा रहता हूँ. समय को काटते के सामानांतर यह भी सोचता हूँ कि इस समय
का सदुपयोग भी कर सकता हूँ. लेकिन किसलिए? ऐसी दुनिया में सांस लेते रहने के लिए? या
किसी के इस्तेमाल का उपकरण बन जाने के लिए? अगर मैं इसके लिए राज़ी न होऊं तो? क्या
बरबाद हो जाना ही एक उपाय बचा है?</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">इन दिनों मैं वर्तमान में कम रहता हूँ. मैं अतीत या भविष्य में जाना
अधिक पसंद करता हूँ. अपनी बढती उम्र को लेकर पिछले साल से सचेत हुआ. तब से एक अजीब
सा भय मन में तारी रहता है. मेरा बचपन मुझसे दूर और दूर होता जा रहा है. बचपन के
संगी-साथी भी उतने ही दूर होते जा रहे हैं. मैं उसी वक़्त के गीतों से चिपका रहता
हूँ. उनसे निकलने की भरसक कोशिश करता भी हूँ तो वे कहीं न कहीं से आ धमकते हैं. वह
वक़्त मेरे भीतर अब तक बना हुआ है. कितना सुख था उस समय. आस-पड़ोस में कितना प्यार
था. सब धीरे-धीरे चले गए. सब शायद अपने अतीत को इसी तरह याद करते हैं. क्योंकि
उससे एक दूरी होती है. वर्तमान कभी उतना अच्छा नहीं लगता. लेकिन वक़्त लौटकर आएगा
नहीं. न वे लोग ही कभी लौट पाएँगे. वह वक़्त मेरे भीतर एक जगह की तरह जम गया है. जब
कभी दुखी होता हूँ वहीं चला जाता हूँ. उसके अलावा मेरे बस में है ही क्या? भविष्य
में संशय के अलावा मुझे कुछ दिखता नहीं, वहाँ जाकर होगा क्या? </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">ये समय सपनों के टूट जाने समय है. सालों पहले जैसी दुनिया की कल्पना
की थी. जिन विचारों के साथ मैं जवान हुआ था ये उनके गलते जाने का समय है. ऐसा केवल
मेरी दुनिया में नहीं, अन्य दुनियाओं में भी है. वहाँ भी कुछ लोग मेरे जैसा महसूस
करते होंगे. लेकिन न उनके हाथ में कुछ है न मेरे. हमें इसे ऐसे ही देखना होगा.
इसमें रहकर ऐसा लगता है जैसे हाथ-पैरों को जंजीरों से कस दिया गया है. मुँह को सिल
दिया गया है. और दिमागों को कुंद कर दिया गया है. जिनसे छूट पाने का एक ही रास्ता
है कि आप उनकी बात मान लें और उनकी भाषा सीख लें. अब जब आधी उम्र निकल चुकी है तो
कैसे मैं ये नई भाषा सीखूं? </span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">दुनिया की सबसे बड़ी चीज़ पैसा है. उसके होने से सब होता है. वह नहीं
होता तो कुछ नहीं होता. रोने को एक कन्धा तक नहीं मिलता. उसी पैसे के लिए हमें
अपने इनसान होने को भूलना पड़ता है. अपनी सारी आज़ादी को किसी के हाथ बेचना पड़ता है.
अगर हम ख़ुद नहीं बिकते तो चैन से सांस लेना भी दूभर हो जाएगा. कौन फिर सुनेगा आपकी
बात? कैसे फिर दुनिया देख पाओगे? इन सब बातों को मानते हुए भी वह क्या है जिसे
बचाने के लिए इतना संताप झेल रहा हूँ? पैसा बड़ी चीज़ है, जानता हूँ. लेकिन उससे भी
बड़ा कुछ है कुछ है जिसे कोई नाम नहीं दे रहा. मैं उसे अपने भीतर किसी भी क़ीमत पर
बचा ले जाना चाहता हूँ. लेकिन इस बात को जानता हूँ कि इसके और उसके बीच एक महीन
रेखा है. मैं डरता हूँ कि कहीं उसे पार न कर लूँ. अगर उससे पार गया तो मैं अपने को
मृत मान लूँगा. तुम भी मुझे मृत मान लेना.</span><o:p></o:p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal",serif; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-theme-font: minor-bidi; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">मुझे सबकुछ एकसाथ चाहिए. व्यस्तता और फ़ुर्सत, सभी कलाओं में महारत, भाषाओँ
का ज्ञान, एक अच्छी नौकरी, दुनिया घूमने को वक़्त, मित्रों के साथ गप्प, अच्छा शरीर,
स्वस्थ मन, प्रेम, ऊँची छत, नदियाँ, समुद्र, पहाड़, हवाएँ सब. यही मेरी समस्या है.
और इन्हें पाने के लिए मैं क्या कर रहा हूँ? कुछ नहीं. कुछ है जो मुझे हमेशा रोक
देता है. उसे संशय भी कह सकता हूँ. लेकिन वह संशय से बढ़कर कुछ है. पिछले वर्षों
में जो असफलताएँ हासिल हुई हैं उन्होंने मुझे भीतर से ख़त्म कर दिया है इसलिए नए
रास्ते पर जाने से पहले ही मन हार चुका होता है. मैं बार-बार अपने मन को समेटता
हूँ लेकिन वह आगे नहीं बढ़ पाता. अब जिस सीमा पर खड़ा हूँ उससे आगे कुछ दिखाई नहीं
देता. न जाने कितने रास्ते मेरे सामने हैं, न जाने मैं किन रास्तों पर जाना चाहता
हूँ. बार-बार लगता है जैसे मैं पाँच साल पहले जैसे किसी स्थान पर हूँ, जहाँ से आगे
का कुछ दिखाई नहीं देता. अब आगे बढूं तो किस रास्ते पर? कैसे इन मनःस्थितियों से
बाहर निकलूं? शाम की सैर मुझे कहाँ तक सहारा दे पाएगी? </span><o:p></o:p></p><p style="text-align: justify;"><br /></p>देवेश<p></p><p style="text-align: justify;">2 सितम्बर 2023</p>देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-85720829981605216222021-12-24T23:58:00.008+05:302021-12-25T14:41:00.254+05:30उदास बातें<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhCTauvkzpdV8AcTucpifjcq9ojJvFdmJ-1SKhRhNF1UQdQkFUhWN5VGG21LPYYoCtnDcJ2EInIZP43dJqkzt4KfVpih-xXCSm4pTWuOmIlQaZnTnogGwugsCEaR_CDv_aVo9zV9J1xuRGb_rS08EO37RO6feEbqcDRAojCtGWdWMV-iKV9HFZe-ppF=s2938" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="1842" data-original-width="2938" height="201" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEhCTauvkzpdV8AcTucpifjcq9ojJvFdmJ-1SKhRhNF1UQdQkFUhWN5VGG21LPYYoCtnDcJ2EInIZP43dJqkzt4KfVpih-xXCSm4pTWuOmIlQaZnTnogGwugsCEaR_CDv_aVo9zV9J1xuRGb_rS08EO37RO6feEbqcDRAojCtGWdWMV-iKV9HFZe-ppF=s320" width="320" /></a></div><div style="text-align: justify;">किसी तिमिर में बैठकर मैं खिड़की से बाहर देख रहा था। बाहर रौशनी थी। मुझे लगा कि बाहर रौशनी है। रौशनी को देखना चाहिए। उसे छूना चाहिए। मैं उठकर बाहर जाता उससे पहले मैं बैठ चुका था। मैं बैठकर रौशनी को देख रहा था। और उसे छूने के बारे में सोच रहा था। मैं उठा और बाहर जाने लगा। बाहर रौशनी थी। मैं बाहर जाता कि पता चला चौखट आसमान से धरती की ओर आती है। उसका आकार मैंने पहली बार देखा। चौखट नें मुझे रोक लिया। मैंने रौशनी को देखा। मैनें रौशनी को छुआ नहीं। मैं रौशनी से डर गया। क्या मुझे रौशनी चाहिए?</div><p></p><p style="text-align: justify;">मेरा कमरा कबसे यही है। अंधा। मैं किस तरह अब तक इस अंधेरे में रह गया? यह उसका सवाल था। मैंने ये नहीं कहा कि यहाँ बत्ती नहीं आती। मैंने कोई ग़ैर रचनात्मक सा जवाब दे दिया। उसे अचम्भा हुआ। अब तक यहाँ तस्वीरें क्यों नहीं है। इस बात पर भी उसे अचम्भा होना था। लेकिन तस्वीरों के बारे में उसनें पूछा नहीं। मैनें भी उसे कुछ नहीं बताया। मैनें कहा नहीं कि क्यों तस्वीरें यहाँ नहीं हैं। क्या उसके उस सवाल से मुझे डर जाना चाहिए था? उसी तरह जैसे मैं रौशनी से डर रहा हूँ। ये संकोच नहीं है। कोरा डर है। इसका क्या करूँ?</p><p style="text-align: justify;">चौखट उभरती सी महसूस होने लगती है। मैं जब भी बाहर जाना चाहता हूँ। कभी-कभी तो सोचता हूँ कि ये बिम्ब यही क्यों है। रौशनी और चौखट एक तय अर्थ क्यों ले आते हैं, पहले की तरह। क्या मैं भी भाषा के दायरों में फंसता जा रहा हूँ। मुझे तो नई भाषा चाहिए। मैं उसे बना क्यों नहीं पा रहा। मेरा ध्यान कहाँ है? मैं अनुभूति में अभी तक उलझा नहीं हूँ क्या? मुझे तो कवि होना था। फिर मेरी मृत्यु कैसे हो गई? मुझे तो इन बिम्बों को तोड़ना था। मैं कैसे चुप रह गया?</p><p style="text-align: justify;">असल बात है यह कि मेरी अनुभूतियों को कोई सिला नहीं मिला। कच्ची अनुभूतियाँ पक्की भाषा नहीं गढ़ सकतीं। मैं अनुभूतियों का मारा इनसान हूँ। मुझे यहीं सबसे अधिक धोखा हुआ। मुझे धोखा मिला। मैनें ख़ुद को धोखा दिया। वक़्त नें मुझे धोखा दिया। मुझे लगा ये जीवन व्यर्थ गया। कहीं मैंने तुम्हें भी धोखा दे दिया तो?</p><p style="text-align: justify;">मैं कवि न हुआ। मैं चुप्पा हुआ। गहरा न हो सका तो तट हो गया। छल-छल की आवाज़ से कान फटते हैं तो लगता है किसी पहाड़ की ज़रूरत है। मैं वहाँ होता तो झरना होता। मैं प्रारब्ध की बात नहीं कर रहा। लेकिन मैं झरना ही होता। थोड़ा बहता और थोड़ा रुक जाता। इस मौसम में जम जाता। इसी मौसम में सुस्ताता भी। झरने की आवाज़ कविता की आवाज़ होती। लेकिन। तुम नहाते और चले जाते। तुम्हें लगता तुम नहाए हो। मुझे लगता तुमनें मेरी आवाज़ सुनी है। मुझे पहाड़ बताता तुम घूमने आए हो। अब जाओगे। मैं ठहर जाता। मेरी आवाज़ किसी जहाज़ की आवाज़ में घुल जाती। तब मैं सोचता कि अब एक चौखट होती। जो मुझे बताती कि कहाँ पर नही गिरना है। अब अगर वह चौखट न हो तो मुझे कौन टोकेगा?</p><p style="text-align: justify;">तट के कल-कल और छपाक जो कान फोड़ देते हैं वे भी कविता ही होते हैं। लेकिन बस वह पसंद नहीं। कोई तर्क नहीं। पसंद होते तब भी मैं झरना होता। और सूखने तक झरता रहता। प्रेम की तरह झरता। दुःख की तरह झरता। और तुम्हारी आँखों की तरह झरता। इस तरह अपनी आँखों और छाती में जमे नहीं रह जाता। कल तुम्हें देखते हुए जैसा शांत था। वैसा कभी नही होता। देखो। मुझे यहाँ से देखो। वैसे नहीं जैसे कल मैं तुम्हें देख रहा था। वैसे जैसे मैं चाहता हूँ तुम मुझे देखो। मेरी आँखों में देखो। तुम्हें क्या लगता है मेरे मन में क्या है?</p><p style="text-align: justify;"><br /></p><p style="text-align: justify;">देवेश</p><p style="text-align: justify;">24 दिसम्बर 2021</p>देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-49449462120456544612021-10-26T15:13:00.000+05:302021-10-26T15:13:43.470+05:30दुनिया देख, फिर आईयो<p><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%; text-align: justify;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; font-size: 14pt; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKqN6raNHKOl4Oh6m8hacLn16zzgRwD4x3n5TAAaVru1Emn4yqePf1sVViA_jdNkijp1rjY_8SdZ5b0xfIIkUGR5TaTrItDI1EnKi_e-sUy4gREfuX2G9PwUWSJ-0DAwrvGvTM56rbSfg/s900/An+Assortment+of+Shadow+Images.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="900" data-original-width="627" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKqN6raNHKOl4Oh6m8hacLn16zzgRwD4x3n5TAAaVru1Emn4yqePf1sVViA_jdNkijp1rjY_8SdZ5b0xfIIkUGR5TaTrItDI1EnKi_e-sUy4gREfuX2G9PwUWSJ-0DAwrvGvTM56rbSfg/w279-h400/An+Assortment+of+Shadow+Images.jpeg" width="279" /></a></div><p style="text-align: left;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%; text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">अभी यहीं इस कुर्सी पर बैठा हूँ। बाहर नहीं जा
रहा। बाहर जाता हूँ तो मन में जो बन रहा है वह टूट जाएगा। इस पंक्ति के तीसरे कमरे
में बैठकर मैं सोच रहा हूँ कि बाहर का मौसम कैसा होगा। बाहर धूप होगी या बादल</span></span><span style="font-size: medium;"><span style="line-height: 115%; text-align: justify;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%; text-align: justify;">हवा बोल रही होगी या चुप होगी</span><span style="line-height: 115%; text-align: justify;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%; text-align: justify;">आसमान गर दिख रहा होगा तो उसका रंग
कैसा होगा</span><span style="line-height: 115%; text-align: justify;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%; text-align: justify;">इस कमरे में अगर एक खिड़की होती तो ये
सवाल बन ही नहीं पाते। मेरी नज़र मुझसे पहले बाहर जा चुकी होती और इन तीनों और इनके
अलावा सबका हाल-चाल ले चुकी होती। लेकिन यहाँ कोई खिड़की नहीं है। केवल एक दरवाज़ा
है। जिसका प्रयोग</span><span lang="HI" style="line-height: 115%; text-align: justify;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%; text-align: justify;">अंदर आने और बाहर जाने के लिए किया जाता है। दरवाज़ा खिड़की नहीं है।</span></span></p><p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">कुछ बातों को लेकर मैं स्पष्ट हूँ। जैसे कि
बाहर जाने पर मुझे लोग नहीं दिखाई देंगे। अगर दो-चार लोग दिखेंगे भी तो कुछ देर
में वे नहीं होंगे। उनकी जगह कोई और दो-चार लोग ले लेंगे। ये लोग खड़े होकर बातें
नहीं कर रहे होंगे। न ही खेल रहे होंगे। न ही ख़रीदारी कर रहे होंगे। ये लोग घर जा
रहे होंगे। उन घरों में</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">जो इनके नहीं हैं। उन घरों को निपटाकर इन्हें दूसरे घरों को भी
निपटाना होगा।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">यहाँ रहने वाले लोग घरों से बाहर नहीं निकलते।
निकलते हैं तो ज़मीन पर नहीं चलते। उनके साधन और हैं। वे अधिकतर नौकरियों या
दुकानों पर रहते हैं। उनके बच्चे स्कूल या कोचिंग में रहते हैं। जो औरते घरों पर
बची रहती हैं उनके पास समय काटने को देवी-देवता</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">बाज़ार और मोबाइल हैं (इन तीनों को एक
भी मान सकते हैं।)। इन तीनों का ईंधन पूँजी</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">उनके पति उगाह लेते हैं। राशन वे
इकठ्ठा डलवाते हैं। फल ताज़ा ख़रीदते हैं। बढ़िया क्वालिटी के। लगता नहीं कि इनके कोई
गाँव होंगे लेकिन अगर होंगे तो घी वहीं से मंगाते होंगे। शराब का मॉल पास में हैं
ड्राई डे के अलावा कोई दिक्कत नहीं।</span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">पेट घटाने की इच्छा जितनी बलवती होती है उतनी
ही गीली जीभ हुई जाती है। यहाँ के लोग जीभ से दो काम लेते हैं। लज़ीज़ व्यंजनों के
उपभोग का और सहायकों को निर्देश देने का। मैंने घरों में घुसकर नहीं देखा कि वे
क्या और कैसे उपभोगते हैं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">तो मुझसे यह उम्मीद न कि जाए कि मैं आपको बताऊँगा। मेरी दी ऐसी किसी
भी सूचना का इस्तेमाल मेरे ख़िलाफ़ किया जा सकता है</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">इसलिए माउथ शट! बहरहाल</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">ये जीभ का दूसरा उपयोग बड़ा रचनात्मक
है। रचनात्मक इसलिए कि वही इस समाज की रचना करता है। उससे ही तय होता है कौन अपनी
जीभ का कब</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">कैसा
प्रयोग कर सकता है और कब</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">कैसा नहीं। इस प्रयोग में दोनों प्रकार के प्रयोग शामिल हैं। </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">हिंदी कविता के इतिहास के कुछ विद्वान पुरानी
कविता बखानते हुए गोरखनाथ से लेकर कबीर तक में मुझे उलझा गए। मैं समझता रहा कि
कविता इनसानी चीज़ है। वे कहते रहे कि इसमें कुछ पेंच है। देखो आध्यात्म। देखो इड़ा</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">पिंगला</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">सुषुम्ना। जब सब घुट जाएगा तो रस
टपकेगा। इस पूरे क्रम का वही उद्देश्य है। मैंने अपनी बेचारगी को कहा माउथ शट!
पूछा</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">गुरजी
मेरे मस्तकमण्डल में ज्ञान रुपी अमृत क्यों न टपका अभी तक</span><span style="line-height: 115%;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">मैं सहृदय न हुआ क्या</span><span style="line-height: 115%;">? </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">गुरजी नें मूल बात बादमें बताई (न
पूछता तो न बताते)। कहा चेले दुनिया देख</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">फिर आईयो। मैंने कही ख़ुदा हाफ़िज़ गुरजी।
गुरजी निकले चंट। ये न बताया कि दुनिया कौनसी देखूं। एक दुनिया में बसती है दस बीस
दुनिया।</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">मुझे</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">तो</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">जहाँ तवा-परात मिली मैं वहीं जम गया। यही दुनिया है। यही देख रहा
हूँ। </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">इसी छोटी सी दुनिया में एक छोटा सा अमरुद का
पेड़ है। डेढ़ हफ्ते से उसी पर नज़र गड़ाए था। अमरूदों का रंग हल्का होने की आस में
रोज़ एक दिन गिनकर काटता। आज रुका न गया तो सबसे हल्के रंग वाला</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">सबसे नीचा अमरुद उचकके खींच लिया।
दाँतों को ऐसे गाड़ा जैसे ज़मीन पर जेसीबी। अमरुद चला गया बीज छोड़ गया। वह भी दाईं
जाड में। बीज वहाँ ऐसा जमा जैसे यहीं फलेगा। यहाँ प्रवेश होता है मेरी रसनेन्द्रीय
का। ये उसकी टेरिटरी में हस्तक्षेप था। अपने पूरे रसासबाब के साथ वह भिड़ गई। यूँ
भिड़ी कि भिड़ी रही। चाय-चबेना के दौर गुज़रे पर थकी नहीं। तो मुझे समझ में आया कि व्यक्तिगत
संपत्ति बड़ी चीज़ है। वक़ालत यूँही तो फलती है लोगों को। मैं भी इस उम्र में वकील
होता तो उस उम्र तक जज हो जाता। अगला टारगेट बाबर लेन। हाय ! कहाँ चेलेगिरि में
फँस गया रे।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">ख़ैर! चेला हुआ तो क्या हुआ। गुरु भी कभी चेला
था। मैं कभी गुरु हुआ तो सबका गुरु होऊंगा। इस बात जितना आत्मविश्वास गुरजी के आगे
नहीं दिखाता</span><span style="line-height: 115%;">,</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">
नहीं तो बड़ बनके सारी धूप सोख लेंगे। </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">इस दुनिया को देखने में अभी इनके चाल-चलन देखने
से पहले इनकी जीभ के चाल-चलन देख रहा हूँ। जीभ का जो दूसरा प्रयोग तब बता रहा था
उसे थोड़ा और बढ़ा दूँ। इनकी जबान चलती बहुत है। घर पर काम करने वालों के दिमागों के
साथ दिन भर गुंथी रहती है। तब उपदेश</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">आदेश</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">प्रताड़ना इसके प्रमुख कार्यक्रम हो
जाते हैं। इनकी जिव्हा का इनके अपने दिमाग़ से ग़ज़ब का तालमेल है। जैसे पृथ्वी और
सूर्य का तालमेल होता है न बिलकुल वैसे ही।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">मुझे क्या करना मेरा तो जो काम है वो कर रहा
हूँ। बस यहाँ अटक गया हूँ। समझ नहीं पा रहा ऊपर भाषा और लहज़े में आए बदलाव को अब
कैसे संभालूं। आपको लग रहा होगा ज़्यादा ही चतुर बन रहा है। बेटा उतना परफॉर्मर तू
है नहीं जितना दिखा रहा है। तो सुन लो मेरी बात। अभी बोलने वाला मैं हूँ। तो मेरी बताई
बातें वैसे ही सुननी पड़ेगी जैसे मैं बता रहा हूँ। </span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">यहाँ कुर्सी पर बैठे-बैठे अब थक गया हूँ। बाहर
की सोचकर कोई फायदा नहीं है। बाहर जाकर ही पता चलेगा कि क्या रूप है।</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">मैं उठकर बाहर जाने से पहले दोनों हाथों की
उँगलियाँ आपस में कसकर ज़ोर की अंगड़ाई लेता और सीधा दरवाज़ा खोलता। हवा या धूप या
छाया खाता।<span style="mso-spacerun: yes;"> </span>उससे पहले ही पंक्ति के दूसरे
कमरे से कुटर-कुटर की आवाज़ आने लगी। एक क्षण में दिल बाग़-बाग़ हो गया। रात मैंने
रोटी का टुकड़ा अटकाकर पिंजरा लगाया था और आज एक बड़ा सा चूहा फँस गया है। दूसरे ही
क्षण वर्तमान की व्यर्थता मेरे मन पर छा गई। सोचा इस अनमोल उमर को चूहा-चुहिया
फाँसने में गुज़ार रहा हूँ। जबकि ख़ुद किसी से फँस सकता था। उफ़!</span><span style="line-height: 115%;"><o:p></o:p></span></span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">अब मेरे विकट वर्तमान का सबसे बड़ा संकट ये है
कि अभी इस चूहे का भविष्य मेरे ऊपर निर्भर कर रहा है। मेरा इस मूल्य में विश्वास
है कि किसी जीव के प्राण लेने का हक़ मुझे नहीं है। प्रकृति अपना काम ख़ुद संभाले।
मैं कौन होता हूँ। चूहों को धरने के कई और उपाय भी हैं। इस उपाय के चुनाव में ही
मेरा विचार शामिल है। दूसरा उपाय यही है कि चूहे को बाइज़्ज़त-बाजान कहीं छोड़ दिया
जाय। ये जो </span><span style="line-height: 115%;">'</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">कहीं</span><span style="line-height: 115%;">' </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">है यही मेरा दूसरा बड़ा संकट है। यहाँ कोई जंगल नहीं</span><span style="line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">मैदान नहीं केवल महल हैं। महलों की
अपनी सेनाएं है। कोई यहाँ का अध्यक्ष है तो कोई वहाँ का सचिव। कोई जहाँ का मेंबर
है तो कोई तहाँ का लठैत। मैं कहाँ इस नन्ही जान को छोडूं। इसे बचाने के चक्कर में
ख़ुद ही पिट जाऊँगा। न न। यहाँ तो चूहे पकड़ना भी ग़ज़ब सज़ा है। हे गुरजी मुझे इस संकट
से उबारो। हे गुरपाठक मुझे कोई राह सुझाओ जिसपर इस नामुराद को छोड़ा जा सके और पलंग
पर चैन से</span><span lang="HI" style="line-height: 115%;"> </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; line-height: 115%;">लोटा जा सके।</span></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><b style="text-align: center;"><i><span style="line-height: 115%;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></span></i></b></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><b style="font-family: Mangal, serif;"><span lang="HI" style="line-height: 21.4667px;"><span style="font-size: medium;">देवेश </span></span></b></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><b style="text-align: center;"><i><span style="line-height: 115%;">26 </span></i></b><span style="font-family: Mangal, serif;">अक्टूबर</span><span style="text-align: left;"><b><i> </i></b></span><b style="text-align: center;"><i><span style="line-height: 115%;">2021</span></i></b></span></p>देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-57255122019008677882020-09-18T14:06:00.001+05:302020-09-18T15:05:46.491+05:30जिस रात नींद नहीं आई<p><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif; text-align: justify;"></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgg7GpvTJSdRzl_MIMRzzA614BWvgbD1wuNKpgGHRYs7ZtWEh01A7I8fi0ZSYkouy0rJT_OPt3vlXjRGMQJTozGxAuTr89Y1_1AwWVzXbC9KwLck_hhyphenhyphengv39FbNEPPlwY3r7EB07ofYMTc/s815/K%25C3%25BClt%25C3%25BCr+Tava+on+Twitter.jpeg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="815" data-original-width="736" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgg7GpvTJSdRzl_MIMRzzA614BWvgbD1wuNKpgGHRYs7ZtWEh01A7I8fi0ZSYkouy0rJT_OPt3vlXjRGMQJTozGxAuTr89Y1_1AwWVzXbC9KwLck_hhyphenhyphengv39FbNEPPlwY3r7EB07ofYMTc/s320/K%25C3%25BClt%25C3%25BCr+Tava+on+Twitter.jpeg" /></a></div><div style="text-align: justify;"><span lang="HI">रात नींद नहीं आई। जब नींद नहीं आती तो स्मृतियाँ आती हैं</span>, <span lang="HI">लो</span><span lang="HI">ग आते हैं</span>, <span lang="HI">असफलताओं के चेहरे बादलों में दिखने लगते हैं। मैं उस वक़्त
बादलों को देख पाता तो उनमें अपने हासिल को देखने की कोशिश करता। उन्हें देखकर
शायद नींद आ जाती। पर बादल हैं नहीं और उनके दिख जाने लायक आसमान भी नहीं बचा है
अब। पहले लगता था कि दुनिया जैसी है एकदम वैसे ही रहेगी। कुछ भी नहीं बदलेगा।
हमारे बूढ़े हो जाने तक गैंदो अम्मा अपना बटुआ खोलकर हमें दो का सिक्का देती
रहेंगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ऐसा होता नहीं है। दुनिया बदलती है</span>, <span lang="HI">बहुत जल्दी बदलती है। हमारी दुनिया भी कितनी
बदल गई है। कभी सोच सकता था कि ज़िंदगी में एक ऐसा साल भी आएगा जिसका कोई
हिसाब-किताब रख नहीं पाउँगा</span>? <span lang="HI">अगर काग़ज़ न होते
तो इस दुनिया का क्या होता</span>?</div><p></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">काग़ज़ों के होने पर दुनिया अधिक बर्बाद हुई है। काग़ज़ न होते तो वो सभी पेड़ शायद
अभी हमारे सामने होते जो इस वक़्त काग़ज़ बनकर सरकारी दफ्तरों में धूल फांक रहे हैं।
तब एक-एक काग़ज़ जुटाने के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ता। तब इंसान काग़ज़ों में बदलते
नहीं। हालाँकि इंसान बने रहते इसका भी कोई दावा नहीं किया जा सकता। जितनी किताबें
दुनिया में छप रहीं हैं दुनिया उतनी बदतर होती जा रही है।</span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">किताबों को देखकर इस उम्र में नौकरी याद आने लगती है। किताबें हम किसलिए पढ़ते
हैं</span>? <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">कि किताबों में लिखी
बातों को पढ़कर हम दुनिया की एक समझ बना पाएं</span>? <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">एक सवालिया नज़र पैदा कर पाएं</span>? <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">या उन्हें पढ़कर लिखने का सहूर सीख पाएं</span>? <span lang="HI" style="font-family: "Mangal","serif"; mso-ascii-font-family: Calibri; mso-ascii-theme-font: minor-latin; mso-bidi-language: HI; mso-hansi-font-family: Calibri; mso-hansi-theme-font: minor-latin;">नहीं! हम किताबें इसलिए पढ़ते हैं कि उनमें लिखी
बातों को याद कर या रटकर कोई नौकरी पा लें। हमारी जवानी का अंतिम लक्ष्य नौकरी हो
जाता है। कइयों का कुछ और होता होगा। नौकरी इसलिए कि महीने की किसी ख़ास तारीख़ को
तय रक़म हमें मिल जाए जिससे अपनी ज़रूरतें पूरी होती रहें। बैल किताबें नहीं पढ़ते
लेकिन काम वह भी यही करते हैं। </span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">हम इंसान हैं इसलिए हाथ घुमा कर कान पकड़ते हैं। जो बात कहनी है उसे न कहकर कुछ
और बोल जाते हैं। जिसे चुनना है उसे न चुनकर कुछ और चुन लेते हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">फिर तड़पते रहते हैं। वक़्त निकल जाता है। हम
वहीं रह जाते हैं। अगर बदलती दुनिया में लोगों के साथ नहीं चले तो प्रासंगिक नहीं
रहेंगे। समय के साथ चलना मतलब उम्र के साथ चलना भी होता है। उम्र की तरह व्यवहार
करना भी। इस उम्र का व्यवहार न जाने कब तक सीख पाउँगा। तब तक कोई नई उम्र आ चुकी
होगी। जिस सहजता से उम्र बदलती है क्या उसी सहजता से व्यवहार भी बदलता है</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">क्या किसी ख़ास उम्र में किसी ख़ास तरह के
व्यवहार की हमसे अपेक्षाएं नहीं की जातीं</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">क्या ये अपेक्षाएं की जानी चाहिए</span>?</p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">ऊपर के सवालों को हां या न के श्वेत-श्याम रंगों में बांधकर नहीं देख रहा</span>,
<span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">लेकिन किसी विस्तृत उत्तर तक भी नहीं पहुँच
पाया हूँ। पहुँचने के लिए चलना होगा। फिलहाल यहाँ रुककर पीछे की उम्र को देख रहा
हूँ। उन वर्षों को जिन्हें गुज़रता महसूस नहीं कर पाया। जो पूरब से आती हवा की तरह
पश्चिम को निकल गए और कभी दिख नहीं पाए। उनपर अभी कुछ कह नहीं पा रहा। वे अलग
संघर्षों के दिन थे। आज दिन अलग हैं। अभी इन दिनों में ख़ुद को स्थापित कर किसी
विहंग की नज़र से ख़ुद को और आसपास के भूगोल को देखना चाहता हूँ। पर देख नहीं पा रहा
हूँ। शायद आने वाले दिनों में किसी सिंह की तरह इन्हें देख पाऊँ।</span></p>
<p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">अगर इस रात नींद आ जाती तो आगे नींद न आने वाली रातों की गिनती में एक संख्या
कम हो जाती। हो सकता है नींद के उड़ जाने का ये सिलसिला बन ही न पाता। क्या तब सपने
आते</span>? <span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;">सपनों के आने न आने से
क्या हमारी ज़िंदगी पर कोई फ़र्क पड़ता है। मनोविज्ञान में शायद इस सवाल का कोई जवाब
हो। मेरा सपनों से बस इतना सम्बन्ध है कि कभी इक्का-दुक्का सपने दिख जाते हैं तो
उन्हें लिख लेता हूँ। अब पहले की तरह सपने आते भी नहीं। पहले हर रात कम से कम एक
सपना आता था। अब शायद निश्चिन्त रहने लगा होऊं। पता नहीं ये कैसे दिन हैं। अब बस
यहाँ से निकलने की इच्छा है।</span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span lang="HI" style="font-family: Mangal, serif;"><br /></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-family: Mangal, serif;">देवेश </span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-family: Mangal, serif;"><span lang="HI"></span></span></p><p class="MsoNormal" style="text-align: justify;"><span style="font-family: Mangal, serif;">10 सितंबर 2020</span></p>देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-12051896756660955992020-04-14T14:56:00.000+05:302020-04-16T00:57:06.898+05:30ओए केडी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEholrbRiWm5laPhO5qWH46DNeW86sJbBKFNFL9fugmRx3O-F6wB3B7ux9JiOQoNb3A3E6LTP679TcsDKyxDGb7-AzC6JP13KUEKe2SEGDH8zSs6jfIW4UotISdyf_CDUJ5KGoPLh4PErhc/s1600/IMG_20200414_144446.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="960" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEholrbRiWm5laPhO5qWH46DNeW86sJbBKFNFL9fugmRx3O-F6wB3B7ux9JiOQoNb3A3E6LTP679TcsDKyxDGb7-AzC6JP13KUEKe2SEGDH8zSs6jfIW4UotISdyf_CDUJ5KGoPLh4PErhc/s320/IMG_20200414_144446.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं हमेशा सोचता था। समुद्र में लहरें कैसे उठा करती होंगी। टेलीविजन में देखकर कभी महसूस नही कर पाया। प्रसाद ने एक कविता में कहा है। उठ उठ री लघु-लघु लोल लहर। पर इस कविता में जो लहरें आईं नही। मैं उन्हें देख नही पाया। तुमने कहा था, तुम्हारे बालों में कर्ल नही हैं वेव्स हैं, ठीक उसी वक़्त समुद्र की लहरें तुम्हारे बालों में उतर आईं थीं। मुझे लगा तुम समुद्र हो। ठीक उसी दिन से मैनें अपने बालों पर ध्यान देना शुरू किया। व्हाट्सएप पर तुम्हारी आख़िरी प्रोफाइल पिक्चर जितने बाल बढ़ा लिए हैं मैनें। तुम अब मिलते तो देखकर चौंक जाते और कहते देवेश भैया आपके बालों में कर्ल्स हैं। <br />
<br />
वहाँ लिफ्ट के पास आख़िरी बार मिलते हुए हम कितना हँसें थे। दो मिनटों के लिए। तुम कैसे लग रहे थे। चमकते हुए, चहकते हुए से। फिर एक दोस्त के मिल जाने पर चले गए। ये घटना अब तक न जाने कितनी बार मेरी कल्पनाओं में घट चुकी है। मैं हर बार तुम्हें कुछ और देर रोक नहीं पाता। तुम बार-बार चले जाते हो। बार-बार लौटकर नही आते। मैं बार-बार तुम्हें जाते हुए देखता हूँ। और चुप लौट जाता हूँ। लौटने के बाद मैं फिर वापस आता हूँ। वहीं ठहरता हूँ। इंतज़ार करता हूँ। पर तुम आते नहीं। अब मैं सब जानता हूँ, इसलिए इंतज़ार नहीं करता। <br />
<br />
हमारी उस टीम में दो लोगों में सबसे ज़्यादा ऊर्जा थी। उनमें से एक तुम थे। मुझे लगता कि ये टीम नाटक कर ही नही सकती। फिर मुझे तुम दोनों दिखाई देते और मैं आश्वस्त हो जाता कि तुम दोनों सब संभाल लोगे। लॉ फैकल्टी की नई बिल्डिंग के उस अहाते में धूल भरी ज़मीन पर घंटों खटते हुए भी हमारे मन में ये सवाल कभी नहीं आया की हमें इससे क्या मिलेगा। तब हम एक टीम हुआ करते थे। उस नाटक के बाद मैनें कभी तुम्हारा अभिनय नहीं देखा। उस नई टीम के साथ तुम इतना मशगूल हुए की हम याद नहीं रहे। तुमने कभी नहीं बताया कि तुम कहाँ-कहाँ नाटक कर रहे हो। मैं तुम्हारे रूपांतरण को देखना चाहता था। मैं देखना चाहता था की जो टीम हज़ारों का सपना हुआ करती है वो व्यक्ति में क्या परिवर्तन लाती है। पर ये कभी हो नहीं सका। उस टीम मे तुम पहले व्यक्ति थे जिसे हम व्यक्तिगत रूप से जानते थे, और जो हमें भी जानता था। <br />
<br />
इन सभी बातों को मैं वर्तमान की तरह महसूस करना चाहता था। पर इसे वर्तमान करने की कोशिश लगातार विफल होती रही। मैं कहता कि तुम वर्तमान हो। फिर कहता तुम अतीत हो। इस लिखावट में मैं तुम्हें वर्तमान नहीं कर पा रहा। पर बेशक तुम जितने अतीत थे उतने वर्तमान भी हो। अतीत में हम कम मिले। हमें अभी और मिलना था, पर उससे पहले ही कॉलेज छूट गया और फिर टीम भी। मैं तुम्हें एक ऐसे इंसान के रूप में याद रखना चाहता हूँ जो दुनिया के बड़े हऊओं को अपने मासूम तर्कों से धराशाई कर सकता है। जो ऐसी फ़िल्म बनाना चाहता है जैसी अबतक बनाई नही गई। जो अपने हँसी- ठट्ठे से हर परेशानी को हवा कर सकता है। एक ऐसा इनसान जो अब कभी नहीं मिल पाएगा। <br />
<br />
मैं तुम्हें जिन-जिन जगहों पर देखना चाहता था। आने वाले वक्त में तुम उन जगहों के अधिकारी होते। मैं तुम्हें देखता। तुम्हारी आँखों को देखता। तुम्हारे सपनों को देखता और तुम्हारी मेहनत को देखता। और फिर आश्वस्त हो जाता। मुझे गर्व होता कि तुम हमारे साथ हो। अब सोचता हूँ हमें और मिलना चाहिए था। हम दोस्त हो सकते थे। पर हमारे कोर्स की प्रकृति और अलग-अलग वर्ष में होना हमारे बीच की सबसे बड़ी खाई बना। उसे पाटने की इच्छा होते हुए भी मैं वह नहीं कर पाया। वैसे भी तुम मुझसे आगे की चीज़ थे। मुझसे अधिक समझदार और व्यवस्थित। एकाग्र भी। <br />
<br />
मैं अक्सर तस्वीरें देखता हूँ तुम्हारी। मुझे लगता ही नही की बात पुरानी है कि हम मिले थे। लगता है तुम मेरे सामने हो। बिल्कुल अभी। लगता है मैं उन्ही घटनाओं को जी रहा हूँ। हम बात कर रहे हैं। तुम गंभीर होकर मेरा अभिनय कर रहे हो। फिर हँस रहे हो। सब हँस रहे हैं। फेयरवेल का दिन है। उस काग़ज़ पर सब मेरे लिए कुछ-कुछ लिख रहे है। तुम कुछ समझ नहीं पा रहे कि क्या लिखा जाए। तुम काली स्याही वाले पेन से एक डिब्बा बनाते हो और लिख देते हो Sweet Box । तुम्हारी लिखावट की यही कतरन मेरे पास बची रह गई है। मैं इसे भी संभाले रखूँगा, तुम्हारी तस्वीरों की तरह। <br />
<br />
मुझे नहीं पता था कि तुम ज़्यादा दूर नहीं रहते यहाँ से। जब पता चला तो सोचा कि एक बार तुम्हारे घर हो आऊंगा। या हम सभी मिलकर जाएंगे। तुम्हारे परिवार से मिलेंगे और उन्हें ढांढस बंधाएंगे। पर मुझमें इतनी हिम्मत न तब थी न अब है। मुझे तुम्हारा घर पता होता तब भी मैं नहीं जाता। मैं तुम्हारी माँ की आँखों में झाँक नही पाता। इस मामले में मैं इतना हक़ीर हूँ कि लिख भी नहीं पा रहा। <br />
<br />
तुम्हारा हँसता हुआ चेहरा ही तुम्हारी पहली और आखिरी याद है मेरे पास। मेरी स्मृतियों में वो बदलेगा नही। मैं तुम्हें जब भी सोचूंगा तुम हँस रहे होंगे। तुम अब भी हँस रहे होंगे। तुम्हारे लिए मेरे भावों को बदलने का मौक़ा भी जीवन ने नहीं दिया। तुम्हारी छवि अब स्थिर है। हमारे पास और साझी यादें हो सकती थी। जिन्हें मैं अब याद कर सकता था। जिन्हें लिख सकता था। पर वो कभी घटित हो ही नही पाईं। इसलिए सीमित घटनाएं ही जो यादें बन पाईं हैं उन्हें ही याद कर रहा हूँ लिख रहा हूँ। इन्हें लिखकर मैं उसी रिक्त स्थान को बार-बार पहचान रहा हूँ जिसे कभी भरा नहीं जा सकेगा। <br />
<br />
तुम्हें पहाड़ पसन्द हैं न। लेकिन इस तरह पहाड़ हो जाना ठीक नही। तुम वहाँ गए और वहीं के होकर रह गए। अभी तो तुम्हें पठार और मैदान भी देखने थे खूब। खूब घूमना था अभी। पहाड़ की गंभीरता और तुम्हारी चंचलता में कैसे ये सामंजस्य स्थापित हुआ समझ नहीं पाया। शायद दो अलग प्रकृति वाली चीज़ें हमेशा एक दूसरे को आकर्षित किया करती हैं। कस्तूरी स्थिर है, हिरण चचंल। तुम्हें पहाड़ की शांति और एकांतता आकर्षित करती होगी। तुम्हें जाना था, उस एकांत को अपने में भरना था और लौट आना था। तुम्हें जम्मू से सीधा दिल्ली लौट आना था। अखबर में छपी पचास, साठ या सौ शब्द की ख़बर बनकर नही। एक जीते-जागते इनसान के रूप में। तुम्हें लौट आना था।</div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-50597762686038658502020-01-13T17:23:00.000+05:302020-01-13T17:34:01.088+05:30बीते दिन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidowxhshNKw1LJkcDLaRTurRDYfuxmEQ2r0mJRSR4klhegcNA5FHx72CPYPLEoDBliLxmHrwgrc3PcUr0pMEkcghG26Q4F0sVsMYSsmdbIrYqtiKokSApF1L-H-7QnLd2P1xOE8eWf3DI/s1600/IMG_20200113_171920.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="990" data-original-width="660" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEidowxhshNKw1LJkcDLaRTurRDYfuxmEQ2r0mJRSR4klhegcNA5FHx72CPYPLEoDBliLxmHrwgrc3PcUr0pMEkcghG26Q4F0sVsMYSsmdbIrYqtiKokSApF1L-H-7QnLd2P1xOE8eWf3DI/s320/IMG_20200113_171920.jpg" width="213" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;">उसने कहा था। उस घर से चले जाने के बाद उसे कोई याद नही करेगा। उसे भी पता है उसने झूठ कहा था। मैंने भी अब वो घर छोड़ दिया है। वहाँ भटकता भी नही। बस दिन भटकते हैं। मन भटकता है। उधर नुक्कड़ से सीधा नही जाता। गली में मुड़ जाता हूँ। मुड़ने पर लगता है मेरे पीछे कोई चल रहा है। जो मेरे बैग को ऊपर उठाकर इस तरह छोड़ देगा कि मैं लड़खड़ा जाऊंगा। फिर हँसती हुई एक गाली हवा में तैर जाएगी। मैं बेशक उसे याद नही करता। पर उस रास्ते में कुछ है जो मुझे खींचता है। जो मेरे साथ हमेशा चला आता है। </span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<div style="text-align: justify;">
कभी लगता है मैं वहीं उसी घर में हूँ, अब भी। सुबह उठने से पहले लगता है मेरे पैरों के बिलकुल सामने लोहे का वही नीला दरवाज़ा है। मैं उठूंगा तो दरवाज़े की कुंडी में अखबार में लिपटी फूलमाला टँगी होगी। पर आँख खोलता हूँ तो सामने हल्के पीले रंग की इस दीवार को पाता हूँ। लगता है एक क्षण में दुनिया बदल गई हो। जैसे सपना टूट गया हो। पर वो भ्रम ही होता है। अब तो सपने भी कम आते हैं। लगता है मेरे दिन सपनों में बीत जाते हैं, रात को देख लेने लायक सपने मैं बचा नही पाता हूँ। </div>
</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<div style="text-align: justify;">
सपने सच्चाई में बदल जाने पर उतने रूमानी नही रहते। कुछ महसूस ही नही होता। शायद कुछ को होता हो। मुझे नही होता। सपने के छूट जाने का एक भाव रह जाता है। दिन खत्म होने से पहले ही वह चुभन में बदल जाता है। उस चुभन का कुछ नही किया जा सकता। इसे असंतोष कह सकते हों शायद। इसे महसूसते ही सब जड़ सा हो जाता है। सब ठंडा। तब कुछ कर नही पाता। तब वह दोस्त याद नही आता। उसे याद नही करता। बस सपने देखता रहता हूँ। सपनों को कहीं उतारता भी नही। वो पढ़ेगा तो सपने में उतर आएगा। हँसेगा और सभी किताबें फेंक देगा। मंदिर में शिवजी की पूजा करेगा। और कहेगा कि काशी जाना है। शायद वो अब भी काशी में हो। काशी उसका सपना था।</div>
</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<div dir="auto">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
<div dir="auto">
<div style="text-align: justify;">
सर्दी इतनी बढ़ गई है कि न चाहते हुए भी इतना लबादा ओढ़ना पड़ता है। कपड़े कई दिनों में सूखते हैं। सूरज अब मोमबत्ती नज़र आता है। पापा आज कोयला ले आए हैं। बड़ी चाची घर नही हैं। कोयला कौन जलाए। बड़े चाचा होते तो इतनी लकड़ी जुगाड़ लेते कि पूरी सर्दी चूल्हे पर घर भर का पानी गर्म हो जाए। पर लोहे की रॉड धुआं नही करती। वह आसान है। उससे भी सावधान रहना होता है। जब छत पर चूल्हा था तब दो बार आग लग गई थी। एक बार तो कुर्सी खाक हो गई। पड़ोस वाली अम्मा नें बताया तो पानी लेकर भागे।</div>
</div>
<div dir="auto">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
<div dir="auto">
<div style="text-align: justify;">
पेटी की लकड़ियाँ चूल्हे के पास ही रखी रहती थीं। उपले वगैरह भी। एक बार की बात है। छत पर चाचा सो रहे थे। भरी सर्दी में, छतपर। पड़ोस की अम्मा नें उस दिन भी आवाज़ लगाई। सब फिर बाल्टी उठाकर छतपर भगे। चाचा को ज़रा भी भनक नही लगी कि आग फैल गई। पर बिस्तरों तक आग नही पहुँची थी। जब शोर मचा तो चाचा की नींद टूटी। आग देखकर चौंके नही। चुपचाप उठे। चुपचाप रजाई-बिस्तर समेटा और चुपचाप सीढियां उतर गए। कभी-कभी यही घटना याद करके हम खूब हंसते हैं। और मन में कहते हैं, वो दिन चले गए।</div>
</div>
<div dir="auto">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
<div dir="auto">
<div style="text-align: justify;">
हम कभी-कभी समय पर भी हँसते हैं। हँसते हैं उसी तरह जिस तरह नही हँसना चाहिए। अपने पर हँसते नही। दया करते हैं। ये बात शायद किसी कविता में पढ़ी थी।</div>
</div>
</div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-32518872067270232162019-10-18T18:31:00.000+05:302019-11-02T15:43:46.617+05:30छत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVZA2KghelWk0V4n9Cbf11eTIucri8InUQmFE9QcCoXYJJvV97v66m_3snufpyqPBtJCAB-RttC6NSKBKxwNrX4r-WXxyzRqK0UwHNTM44AsEh-CH13Vt6G0Ye0Bpp4NyacVgc3VOpvik/s1600/p+h+o+t+o+s.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1170" data-original-width="858" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjVZA2KghelWk0V4n9Cbf11eTIucri8InUQmFE9QcCoXYJJvV97v66m_3snufpyqPBtJCAB-RttC6NSKBKxwNrX4r-WXxyzRqK0UwHNTM44AsEh-CH13Vt6G0Ye0Bpp4NyacVgc3VOpvik/s320/p+h+o+t+o+s.jpeg" width="234" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
शाम होते ही हम छत पर चढ़ जाते। लक्की और मैं। दोनों अठन्नी-अठन्नी मिलाकर दो पतंगें ले आते। अँधेरा होने तक हवा में गुथे रहतें। अँधेरे में पतंग उड़ाने की तरकीबें सोचा करते। एक दिन लक्की ने हार मान ली। मैं जुटा रहा। कुछ समय बाद समझ आया कि हवा की दिशा ही पतंग की दिशा हो जाती है। अधिकतर हवा पूर्व दिशा की ओर होती। वहीं जहाँ होटल की दीवार थी। पतंग हमेशा उसमें अटक जाती। एक दिन मैनें भी तय कर लिया कि अब बस पंद्रह अगस्त को ही पतंग उड़ाया करेंगे। उसके बाद पंद्रह अगस्त भी छूट गया। मेरे साथ-साथ सभी ने पतंग उड़ाना छोड़ दिया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कानों में लीड ठूँसे एफ.एम. पर चल रहे गाने को दोहराने के साथ-साथ उन चारों रसोइयों पर पक रहे खाने और हो रही घटनाओं को भी देखता रहता। बिल्डिंग वाली अम्मा अपने कमरे से बाहर आतीं तो उनसे राम-राम कर लेता। पूजा दीदी और अपना घर तबतक बेच चुके थे। होली पर छत पे चढ़कर एक दूसरे पर निशाना लगाकर गुब्बारे मारना और चूक जाना भी अब बीती बात हो गई थी। लक्की ने ग्यारहवीं में कॉमर्स ले ली। मैंने आर्ट्स। इन दोनों ही का मतलब हम नहीं जानते थे। मैं गणित नहीं समझ पाता था, पर इतिहास समझ जाता था। लक्की शायद गणित आसानी से समझ पाता होगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं छत पर बैठकर शाम को उतरते देखता। आसमान को रंग बदलते देखता। कभी सोचता कि एक आसमान के पास कितने सारे रंग है। तब आसमान टीवी की स्क्रीन जैसा लगता। एक बार अचानक आसमान में इंद्रधनुष दिखा। जितना अचानक कह रहा हूँ उतना अचानक था नही। तब मैं नीचे घूम रहा था और नेहा दीदी ने आवाज़ लगाकर छत पर बुलाया था। तब पता चला की इंद्रधनुष सच में होता है। और उसमें सात रंग भी होते हैं । उस दिन हवा में घुल जाने तक मैं उसे देखता रहा। थोड़ी देर में इंद्रधनुष नही था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कभी लगता है कि छत पर उस तरह होना और वैसा महसूस करना मेरे लिए सुख और एकांत का एक खाका बन गया है। मेरे खुश होने की एक कसौटी बन गया है। यानी अगर मैं खुश हूँ तो मैं हूबहू वैसा ही महसूस करूँगा जैसा मैं छत पर करता था। अपनी छत के अलावा मुझे कभी वैसी हवा कहीं महसूस नही हुई। जब हवा महसूस नही होती तो कुछ भी महसूस नही होता। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मेरी छत के अलावा एक और छत जो मुझमें बची रह गई है वो है रोहतक वाली वह छत। रात है। हम सभी हैं। हवा चल रही है। दूर पुल पर क़तार में लगी लाइटें झक सफ़ेद जल रही हैं। गहरे अँधेरे में बस स्ट्रीट लाइट जल रही है। सड़क पर इक्का-दुक्का गाड़ियाँ गुज़र रही हैं। छत से सब दिख रहा है। कहीं दूर से कीर्तन की आवाज़ रह-रहकर आ रही है। अँधेरे, रौशनी और दूर से उठ रहे संगीत से मिलकर बना दृश्य कितना रहस्यमयी लग रहा था। मन करता की उड़कर वहीं पहुँच जाऊं जहाँ से ये आवाज़ आ रही है। पर जा नही सका। ऐसा कभी भी हो नही पाता। मेरी छत पर भी कितनी बार जागरणों की आवाज़ आती पर मैं जा नही पाता। बेशक दूर से उठता संगीत रहस्यमयी होता है। उस रहस्य में मैनें हर जगह मौजूद रहना चाहा। पर कभी रह नही पाया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इन सभी घटनाओं को यहाँ से अतीत बनते हुए देख रहा हूँ। ये स्मृतियाँ भी हैं और अनुभव भी। छत अब भी वहीं है। अब हम जाते नही। न जाने के हज़ार कारण हो सकते हैं। जिनको समझने बैठें तो पूरी पोथी बन सकती है। पर वो हमें नही करना। हम नही समझना चाहते। जो जैसा है हमें स्वीकार्य है। छत से इस तरह अलग रहना भी मुझे उससे दूर नही कर पाया। स्मृतियों में मैं उसे जी लेता हूँ। बस गर्मी की शामों में पानी का छिड़काव कर सकेर नही पाता। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
माचिस की डिबिया जितनी वो छत मेरे चिर एकांत की अधूरी साथी है। कितनी भी बड़ी छत मुझे उस जैसा विस्तार नहीं दे सकती। हवा, बारिश, ताप, अँधेरा, मौन और संगीत कुछ भी उससे छूटा नही। उसने सब दिया। बारिश में मिट्टी की खुशबू भी। मैं अगर एक छत बनाने की सोचूं भी तब भी वैसी छत नहीं बना पाउँगा जैसी छोटू मिस्तरी ने मेरे लिए बनाई थी। मेरे लिए नही बनाई थी फिर भी कह रहा हूँ। इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वो मेरी छत है। और किसी की नही। </div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-12235392289937179122019-10-06T18:38:00.000+05:302019-10-14T18:58:05.869+05:30किस्से वाया मिली-जुली दाल<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzamOZSJCH6-VLO6RiSMNTpVdEE4hS86MU-ajEFghU9ZffEi6UEe6eM1U9uHhUksd57ys2852dB4aj8U1I2FAogK6FzO1VfmHBvrM5UYBgMUtsJ2gWTiYf1hOWCAcSGWkTUcli53C7Wq4/s1600/Surati+dal.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="640" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjzamOZSJCH6-VLO6RiSMNTpVdEE4hS86MU-ajEFghU9ZffEi6UEe6eM1U9uHhUksd57ys2852dB4aj8U1I2FAogK6FzO1VfmHBvrM5UYBgMUtsJ2gWTiYf1hOWCAcSGWkTUcli53C7Wq4/s320/Surati+dal.jpeg" width="213" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
मम्मी ने आज फिर दाल बना ली। मुझे लगा की सबदाल होगी पर नही थी। दिल टूट गया। सबदाल को हमारे घर पर सबदाल नही मिली-जुली दाल कहते हैं। एक बार विनोद अंकल की दुकान पर गया और बोला कि एक पाव मिली-जुली दाल देदो। अंकल ने एक क्षण रुककर कहा "सबदाल"! उस दिन मैं इस शब्द से परिचित हुआ था। कैसा लगता है न ये शब्दयुग्म मिली-जुली। जैसे मिली-जुली सरकार। एक दिन एक दोस्त कह रहा था "ये मिली-जुली सरकार लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।" उसने मिली-जुली कहा और मेरे मन में मिली-जुली दाल से लबालब भरी कटोरी का चित्र उभरा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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मिली-जुली का तत्सम शब्द है मिश्रित। मिश्रित से मुझे याद आता है मिश्रित अर्थव्यवस्था। दसवीं या ग्यारहवीं की कक्षा है। गुप्ता सर मिश्रित अर्थव्यवस्था के बारे में किताब से पढ़ा रहे हैं। मनमोहन सिंह के बारे में बता रहे हैं। मनमोहन सिंह हमारे प्रधानमंत्री हैं यह मुझे पता है। यह पता होना एक उपलब्धि है। इस जानकारी के पीछे भी एक कहानी है। मम्मी की एक सहेली की बेटी को उसके स्कूल वालों ने पंद्रह अगस्त का भाषण सुनने के लिए लाल किले भेजा था। उसे बस इतना करना था कि कॉसट्यूम पहनकर भारत के नक़्शे के आकार में नियत स्थान पर बैठना था। वो गई और बैठी भी। मौसम मेहरबान हुआ। खूब बारिश हुई। इतनी बारिश, जितनी अब नही होती। प्रधानमंत्री छतरी के नीचे भाषण दे रहे थे। वो नही भीगे। इस लड़की ने रेनकोट पहना था। फिर भी भीग गई। पूरे पंद्रह दिनों में बुख़ार ठीक हुआ। मैंने तभी जाना था कि हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं जो पंद्रह अगस्त को लाल किले पे भाषण देते हैं। </div>
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<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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<div style="text-align: justify;">
वैसे यह भी बड़ी बात है कि सर हमें पढ़ा रहे थे। हमारे सर लोग कभी भी न पढ़ाते हों ऐसा बिलकुल नही है। वो कभी-कभी पढ़ा देते थे। जब उनका मन होता था। एक हिंदी वाले सर थे। पता नही कहाँ से चुनके किताबें लाते थे। एक बार कहानी की एक किताब लाए। उसमें से एक कहानी पढ़ाई। एक पंक्ति की कहानी। हमें नहीं पता था कि इतनी छोटी कहानी भी हो सकती है। वो हमसे लिखने को भी कहते थे। पता नही वो हमसे क्या चाह रहे थे। एक और सर थे। वो हमेशा कहते थे कि हम सब बड़े होकर सब्जी की रेहड़ी लगाएंगे। वो झूठ नही कहते थे। स्कूल ख़त्म होते ही हममे से कइयों ने रोज़गार ढूंढ लिए। कइयों को मिल भी गए। जिन्हें नही मिले उन्होंने रेहड़ियां लगा लीं। जिस रेहड़ी से मेरे घर में सब्जी आती है वो मेरे स्कूल में नहीं पढ़ा। अगर पढ़ा भी होता तब क्या रोज़ सब्जी ख़रीदते हुए मेरे मन पर कोई बोझ पड़ता? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मम्मी कहतीं कुछ हैं, करती कुछ हैं। वो पूछेंगी सब्जी क्या बनाऊं मैं कहूँगा सूरज। वो बाज़ार से ले आएंगी चाँद। और रात को थाली में परोसा जाएगा मंगल। कुछ समझ नही आता। पिछली बातों को देखने से लग सकता है कि हमने मम्मी को केवल रसोई तक सीमित किया हुआ है। पर ऐसा नही है। मम्मी नौकरी भी करती हैं। हमारी फीसें भी मम्मी ही भरती हैं। हम अभी तक कुछ नही हो पाए हैं। कभी-कभी मेरा भी मन करता है कि सब छोड़कर कहीं काम पर लग जाऊं। पर कहीं नही लगता। फ़ोन में लग जाता हूँ। अमेज़ॉन पर रेशम की साड़ियाँ देखता हूँ। उनकी कीमतें देखता हूँ। आँखें दर्द करने पर फ़ोन बंद कर लेता हूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कभी-कभी कल्पना करता हूँ कि अपने ही स्कूल में हूँ। हिंदी पढ़ा रहा हूँ। कल्पना में समझ नही पाता कि शिक्षक होते हुए मैं कैसा महसूस करूँगा। अगर ये कल्पना सच हो भी जाती है तब मेरे सामने मेरे क्या आदर्श होंगे। क्या मेरे शिक्षकों के भी कोई आदर्श या सिद्धांत थे? या बच्चों को पढ़ाना उनके लिए केवल सरकारी नौकरी भर थी जिससे वे केवल वेतन की अपेक्षा रखते थे। क्या पढ़ाते हुए मैं भी उसी व्यवस्था का हिस्सा नही बन जाऊँगा? या अगर मैं अपने साथी शिक्षकों से अलग तरह से पढ़ाने की सोचूं भी तो साहित्य को और किन-किन तरीकों से पढ़ा पाऊंगा? एम ए की कक्षाओं में एक शिक्षक ऐसा नही मिल पाया जिससे इस बारे में बात की जा सके। पर इसमें प्रोफेसरों की ग़लती नही है। उन्हें विद्यार्थियों को पढ़ाने के आलावा बहुत से ज़रूरी काम होते हैं। पिछले सभी सवाल निराधार हैं। मैं शिक्षा के बारे में कुछ भी तो नही जनता। मैं शिक्षक नही। मैं तो बस कल्पना कर रहा था। और कल्पना बड़ी ख़राब चीज़ होती है।</div>
</div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-63567513975605136902019-05-02T00:02:00.000+05:302019-05-02T00:02:30.509+05:30जाना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFj2smIRIS4OGQIZLcuTUfD9hvxVqqnTeHyOoanbnyyAThUaDoFKdUaVudRFtIQJaMmyBY3v_RDiQXX_mFyV5Uib46yUqe1BG-WMPp3S43aYGy6FqjTq-JqFx_nQh2oNVxJ4xjHUOVWxw/s1600/ec581fc4f95b787ee822dfc5701bced0.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="741" data-original-width="478" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhFj2smIRIS4OGQIZLcuTUfD9hvxVqqnTeHyOoanbnyyAThUaDoFKdUaVudRFtIQJaMmyBY3v_RDiQXX_mFyV5Uib46yUqe1BG-WMPp3S43aYGy6FqjTq-JqFx_nQh2oNVxJ4xjHUOVWxw/s320/ec581fc4f95b787ee822dfc5701bced0.jpg" width="206" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;">ये उसे भी नही पता होगा कि उसके इस तरह चले जाने से सब कितना बदल गया है। वो लड़का भी बदल गया है। पहले जैसा नही रहा। पहले जैसा कभी कुछ नही रहता। ये एक अच्छी बात है। जाने वाला भी बदल गया होगा लड़का इस बात से हमेशा डरा सा रहता है। उसे घूम-घूमकर पुरानी बातें याद आती हैं। अगर वो नही जाता तो? या जाने से पहले अगर लड़का उससे मिल लेता तो? या फिर अगर वो सब हुआ ही होता तब?</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
अपनी कल्पनाओं में वो वापस उसी दिन पर लौटता है जिस दिन वो आखिरी बार मिले थे। वहाँ जाकर वो खूब तेज़-तेज़ बोलता है। रोता है। अपने भीतर वो सबकुछ सही करने की क्षणिक शांति को महसूसता है और लौट आता है। तब उसे लगता है कल्पनाएँ कितनी बेकार चीज़ होती हैं। उनपर नियंत्रण रखकर भी कुछ नही होता। इस तरह ये लड़का अतीत और वर्तमान के बीच कल्पना और असल के दरवाज़े से आता-जाता रहता है। झूलता और टकराता रहता है। </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
एक दिन वो इस नतीजे पर पहुँचता है कि बीते साल ने उसे बर्बाद कर दिया है। पर ये किस तरह की बर्बादी है कि सबकुछ सही सलामत है? सब वैसा ही है। फिर जीभ और होंठों को हिलाकर दो शब्द एक साथ बुदबुदाता है 'आंतरिक बर्बादी'। इन्हें इस तरह बोलता है कि कोई सुन न ले। कहीं किसी को पता न चल जाए कि उसने अपने मनोभावों को दो शब्दों में ढाल दिया है। ये किस तरह के भाव है? सोचते हुए अगर उसकी आँख लग जाती तो शायद वो इस बात पर नही पहुँच पाता कि ये कितनी ओढ़ी हुई सी चिंताएं हैं। सब कुछ खुद का ही निर्मित किया हुआ है। दीवार भी, छत भी। तब इसमें खिड़की भी बनाई जा सकती है। पर बनाए कौन? आलस!</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
अब अगर ये सब फर्जी भाव हैं तो उसके दिन में कुछ चुभता सा क्यों रहता है? वो आगे क्यों नही बढ़ जाता। 'जो बीत गई सो बात गई' ये पंक्ति उसके दिमाग में उसी तरह चलने लगती है जैसे वायु प्रदूषण बताने वाले इलेक्ट्रिक बोर्ड पर खराब वायु की सूचनाएँ चलती हैं। पर इसे कभी शब्दशः महसूस नही कर पाता। जो बीत जाता है वह भी हमारे साथ बना रहता है। जीवन भर। उससे छूटना इतना आसान नहीं होता। स्मृति या कल्पना में वो वापस लौट-लौट आता है। अतीत में घटा हुआ कभी तो उसी सघनता से साथ महसूस होता है जैसे अनुभव किया था पर कभी हम खुद उससे पृथक होकर उसे एक घटना की तरह याद कर रहे होते हैं। उससे एकदम निरपेक्ष। </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
ये लड़का स्मृतियों से भिड़कर भी कुछ कर नही पा रहा है। कोई कुछ नही कर पाता। ये तय कर चुका है कि अपने दुःख से अब निकल जाएगा। मौसम भी तो बदल गया है। इस तरह बैठे रहने से क्या होगा?, अपना समय बेकार क्यों करना?, इससे बेहतर है कि कुछ रचनात्मक काम करे। ज़िंदगी किसी के आने-जाने से बदल भले ही जाए, पर रुकती नही है। इसलिए रुको नही आगे बढ़ो!</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
पर यार, </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उसे इस तरह नही जाना था।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
मुझसे बात तो की होती। मैं अपने मन की बातें तो कह लेता। पता नही अब कब लौटना होगा। </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
मैं फ़ोन करूँ? </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
नहीं! </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
क्या उसे एक भी दिन मेरी याद नही आई होगी?</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उन दिनों भी नही?</div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-39946625364756720322019-04-25T12:26:00.000+05:302019-04-25T12:26:52.201+05:30कमरा अंधेरा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioIdPBgiKF8-Jez_3YMBYjNeMO0gdDvyIZE5-oiaB1zms1eRLbqPxfkZToz1LErYTxqNKmm6T3696xmlptbaidCjRBA7xTkoL-nIuGGEBcy872iE9Qs6hligls8xuDXjj5CBZ7T1dpKp0/s1600/3ede91eb51321d915ff3f44c72417bed.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="562" data-original-width="375" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEioIdPBgiKF8-Jez_3YMBYjNeMO0gdDvyIZE5-oiaB1zms1eRLbqPxfkZToz1LErYTxqNKmm6T3696xmlptbaidCjRBA7xTkoL-nIuGGEBcy872iE9Qs6hligls8xuDXjj5CBZ7T1dpKp0/s320/3ede91eb51321d915ff3f44c72417bed.jpg" width="213" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;">उनकी शब्दावली में इसे भागना कहूँगा। मैं भाग रहा हूँ। भागता जा रहा हूँ। पर कहीं पहुँच नही रहा। समझ नहीं पा रहा कि किससे भाग रहा हूँ। कहाँ पहुँच जाने की इच्छा लिए फ़िर रहा हूँ। अब तक ऐसा क्या महसूस नही किया जैसा करना चाह रहा हूँ। वो क्या है जिसे लगातार ढूँढता रहता हूँ सभी की आँखों में? उसे कोई भी नाम देने से क्यों कतराता हूँ? </span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<div style="text-align: justify;">
अपने लहज़े में मैं उसे भागना नहीं कहूँगा। वो मेरे लिए अवकाश होगा। कुछ दिनों के लिए सब से निजात। इससे कुछ न भी हो तब भी कुछ ज़रूर होगा। </div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
मैं सबकुछ को जर्जर नहीं कहूँगा। अब भी बहुत कुछ है जो बचा है भीतर और बाहर दोनों सतहों पर लेकिन उन्हें देखकर भी उन्हें छू लेने की इच्छा नही है। बच रहा हूँ। क्यूँ? पता नहीं।</div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
साफ़ कहें तो इस सब में अपनी भूमिका पहचान लेने की जद्दोजहद में पिछले दिन घुटते रहे हैं। ये दिन भी जा ही रहे हैं। इसमें सबकुछ असंतुलित है। मिसफिट है। असंगत है। सब आधा है। </div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
पर जो भी कमी महसूस कर रहा हूँ उसे उन सभी को कभी बता देने का मन होते हुए भी बता नहीं पाऊँगा। उसे भी कभी नही बताऊँगा। वो पूछ भी लेता है तब भी नहीं। मैं पहले पूरा हो जाऊँगा तब कभी बताऊँगा। यहाँ पूरा होना मृत्यु नही है। ये कोई आध्यात्म नही है, जीवन है।</div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
मैं क्या करूँ अगर मेरे सपनों में वो कमरा आता है तो? मैं उसतक नहीं पहुँच पा रहा तो क्या करूँ मैं? किसी से रास्ता पूछने पर कुछ होगा? कोई क्या बताएगा? किसी को कुछ पता भी तो नहीं। अब मैं चैन से सोना चाहता हूँ, उसी अंधेरे कमरे में। तब तक जब तक कि नींद पूरी न हो जाए। लग रहा है सदियों से सोया नहीं। कई दिनों, हफ़्तों, सालों तक सोते रहने की ख़्वाहिश लिए मैं फ़िर रहा हूँ। उसी अंधेरे कमरे की तलाश में। </div>
</div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-16836438707461736442019-04-02T14:47:00.000+05:302019-04-17T11:14:27.638+05:30सुनो अनुज<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;"><br /></span></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9yrlOuQNt9dTxbGKUmRqhgi7QRTtauT3XHinhdCKxbo-bNcvtsh4v2N0YRbtDe7dmv7_t9McdMBF-L4HF2uU1X8-3k7DRue9ySLkH18fVwR4-Q_y9LIYW6hvXYRnJlotr43aMYt3ezqk/s1600/9c4cf7d1028eec948e3377b3d11ede3d.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="700" data-original-width="560" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi9yrlOuQNt9dTxbGKUmRqhgi7QRTtauT3XHinhdCKxbo-bNcvtsh4v2N0YRbtDe7dmv7_t9McdMBF-L4HF2uU1X8-3k7DRue9ySLkH18fVwR4-Q_y9LIYW6hvXYRnJlotr43aMYt3ezqk/s320/9c4cf7d1028eec948e3377b3d11ede3d.jpg" width="256" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;">मैं एक दिन दुनिया के सभी नियमों को बदल दूँगा। एक शाम को तय करूँगा कि रातभर सोऊंगा नहीं। उसके बाद हर रात को जागा करूँगा। दोस्ती और प्रेम भरे गीत सुना करूँगा और खूब रोया करूँगा। अंदर से सूख जाने के बाद मैं कहूँगा कि दोस्ती और प्रेम कुछ नही होते। ये बाज़ार के इजाद किये भाव हैं। इन सभी दृश्यों में तुम नहीं होंगे। मैं अकेला रहूँगा। उसी कमरे में बंद जिसे मैं अपना बना लेने के ख़्वाब देखा करता हूँ। उम्र में अनुज तुम कभी उसके दरवाज़े तक नहीं पहुँच पाओगे। मैं तुम्हें कभी नही बताऊँगा कि मैं कहाँ रहता हूँ।</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
तुम भले ही प्रेम की कितनी ही व्याख्याएं करते रहो पर मैं कभी ये नहीं कहूँगा कि तुम्हारा उसकी ओर आकर्षण प्रेम है। और न ही ये कहूँगा की हमारी दोस्ती प्रेम नहीं है। पर मैं कभी प्रेमी नहीं हो पाऊंगा। न ही कभी उसे प्रेम लिखना सीख पाऊंगा। न ही तुम्हारा दोस्त रह पाऊंगा।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
सुनो अनुज। तुम दुनिया को देखने की अपनी नज़र बनाना। मैं जानता हूँ कि तुम समझदार हो और नासमझ भी। हम हमेशा साथ नहीं रहेंगे। सब दुनियाएं बदल जाएगी। लोग भी बदल जाएंगे। मैं भी बदल जाऊंगा। तब कोई सलाह नहीं दे पाऊंगा। देखो तुम प्रेम करना। रजकर करना। वह नहीं जिसे सब प्रेम समझते हैं। किसी और के जैसा नहीं। अपनी तरह का नया प्रेम। उससे प्रेम करना जो तुमसे प्रेम करे। जो तुम्हारी दुनिया में, तुम्हारे लोगों में रम जाए। तुम सब कुछ मुझसे बेहतर जानते हो। </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large; text-align: justify;">
तुम मेरी कोई बात नहीं मानना। यहाँ सब झूठा है। सब अर्थों से खाली है। खोखला। तुम मुझे कभी उस तरह याद मत करना। मैं कुछ नही कह पाऊंगा। कोई सलाह नहीं दूंगा। मुझे खोजने की कभी कोशिश नहीं करना। मैं मिल भी जाऊंगा तो वो नहीं रहूँगा जिसे तुम जानते हो। मैं किसीका नहीं हूँ। तुम्हारा भी नहीं हूँ। अपना भी नहीं। इसलिए अपनी तमाम स्मृतियों से मुझे गायब कर देना। सभी बातों से मेरे संवाद हटा देना। कहीं अटक जाओ को ख़ुद को याद करना। तब आगे बढ़ना। सुनो अनुज इस दुनिया में अपना बचपना बचाना और अपना ख़याल रखना।</div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-18465572662957294682018-09-04T16:18:00.000+05:302018-09-04T16:18:36.853+05:30अपनी किताबें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBi5FwwlePancJ55nGgdbVvnyj6fAdlSXRVwl6-vxJv5mwwqOR-FnJHzFSFE3OfSjzHYG0fVdUJQK5J_yIlH0qQwDWJkHUAjB_0jZX5hzgBr39dl7uo4puwX8mxDGND-SDNKqovcS1meU/s1600/IMG_20180904_160345.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="600" data-original-width="600" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjBi5FwwlePancJ55nGgdbVvnyj6fAdlSXRVwl6-vxJv5mwwqOR-FnJHzFSFE3OfSjzHYG0fVdUJQK5J_yIlH0qQwDWJkHUAjB_0jZX5hzgBr39dl7uo4puwX8mxDGND-SDNKqovcS1meU/s320/IMG_20180904_160345.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: large;">शुरू से ये किताबें रसोई में ही रखी थीं। सारी पत्रिकाएं भी। हर बार जब भी कोई किताब निकलता उसपर तेल की परत और गहरी हो गई होती। अंदर के कागज़ भी पीले पड़ने लगे। मैंने पापा से किताबों की अलमारी के लिए कह दिया। हमारे कमरे में एक अलमारी कपड़ों की भी है। पर वो लोहे की है। ज़मीन से पाँच फुट छः इंच ऊंची। दूसरी अलमारी की कोई जगह कमरे में बची नही। पापा ने किसी जानकार बढ़ई से कहकर तीन खानों वाला, बराबर लंबाई चौड़ाई वाला एक कामचलाऊ शेल्फ बनवा दिया। </span></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif;">
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">एक दिन दो लोग अचानक आ धमके। दीवार से कपड़ों वाला हैंगर बड़ी बेरहमी से उखाड़ दिया। मैंने जबसे होश संभाला तब से वो हैंगर वहीं, वैसे ही देख रहा था। हर बार सफ़ेदी के बाद उसके किनारों पर एक और परत जम जाती। आज उखाड़े जाने के बाद इस कमरे में हुई पहली सफ़ेदी की चमक उतने हिस्से में दिख रही थी जितने हिस्से को हैंगर ने घेर रखा था। हैंगर बूढ़ा और अपराजित सा नई शेल्फ के पास पड़ा था। उन दोनों लोगों ने नया शेल्फ उठाया। पुरानी अलमारी के बाईं तरफ दीवार से सटाया और धड़ाधड़ कीलें ठोकने लगे। मुझे बड़ी बेचैनी हो रही थी। ठका-ठक की आवाज़ से सर चकरा गया। ख़ैर किसी तरह शेल्फ संभाल लेने लायक कीलें ठोककर वो दोनों चले गए। सामने की दीवार पर वो शेल्फ बिल्कुल वैसा ही दिख रहा था जैसा पापा ने बताया था और मैंने कल्पना की थी। मैंने तुरन्त किताबों को झाड़-पोंछकर लगा दिया।</span></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">किताबें-कागज़ात-पत्रिकाएं सब तबसे वैसे ही लगे हैं। हर बार इन्हें ठीक से लगा देने की इच्छा के बाद इन्हें फैलाकर बैठ जाता हूँ। हर एक का चेहरा फिर से देख-पहचान लेता हूँ। इनमें से कुछ किताबें मेरी नही हैं। उन्हें जल्द से जल्द वापस करने की इच्छा से भर जाने के बाद भी कभी उन्हें पढ़ लेने की इच्छा नही बन पाती। सबसे नीचे वाले हिस्से में वो किताबें हैं जिन्हें अभी प्रयोग में ला रहा हूँ। या जिनकी ज़रूरत इन दिनों पड़ सकती है। इस तीसरे हिस्से को जँचाने के चार दिन बाद फिर से ये वैसा ही हो जाता है। अव्यवस्थित। ये बिल्कुल मेरी ही तरह बदलता है। हर बार किताबें लगाते हुए ऐसा तरीका खोजने की कोशिश रहती है जिससे ज़्यादा से ज़्यादा किताबें लग जाएं और सबका चेहरा भी दिखता रहे। पर हर बार नाकामी ही हाथ लगती है। </span></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">अब भी मैं इस शेल्फ के सामने ही बैठा हूँ। इसे देखकर हमेशा बेचैनी होती है। इसे मैं इन पाँच सालों की कमाई कह सकता हूँ। पर कहना नही चाहता। इनमें अधिकतर किताबें वो हैं जिन्हें कभी पढ़ नही पाया। कुछ वो भी हैं जिनमें पन्द्रह-बीस पन्नों से आगे नही बढ़ पाया। कुछ डायरियाँ हैं जिन्हें भर चुका हूं, और भरना बाक़ी है। ये पता नही किस क़दर मुझमें उतरती जाती हैं। एक चित्र की तरह मैं लगातार इन्हें इसी तरह देखता रहता हूँ। ये किताबें देखने भर से इतना बेचैन कर देती हैं कि हाथ फड़कने लगते हैं। अचानक मन होता है कि इन्हें कहीं फेंक आऊं। नही। मेरा मन करता है कि इन्हें ऐसे ही आग लगा दूँ। पर मुझे इन किताबों से प्यार है। फिर भी इन्हें फाड़ देने का भाव मन से कभी नही जाता। मैं किस दिन के लिए इन्हें इस तरह जमा कर रहा हूँ? ये किताबें मुझे क्या बना रही हैं? बहुतेरे सावाल सर में बजने लगते है। अचानक से उन किताबों की याद आ जाती जो दोस्तों ने लेली पर अब तक लौटाई नहीं। तीन किताबें मेरे पास भी हैं किसी की। उन्हें जल्द ही लौटा दूंगा।</span></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;">इन किताबों को देखकर उन किताबों की भी याद आ जाती है जिन्हें अब तक खरीद नही पाया। हर बार का पुस्तक मेला दो-चार किताबों में निकल जाता है। इनके अलावा जो किताबें मेरे पास आती हैं वो शचीन्द्र सर और संदीप सर की तरफ से भेंट होती हैं। हर बार सोचता हूँ कि अगली बार ज़रूर ढ़ेर किताबें लूंगा। पर ले नही पाता। ले भी लूं तो रखूंगा कहाँ? अब घर में और जगह नही है। पिछले साल जो किताबें ली थीं वो वैसी की वैसी बंधीं धरी हैं। अब इन्हें यहां से हटाकर वो नई किताबें यहाँ लगा दूंगा। फिर एक दिन उन्हें भी हटा दूंगा। पर इन किताबों को कभी आग नही लगाऊंगा।</span></div>
<div dir="auto" style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<i><span style="font-size: large;">देवेश, 4 सितम्बर 2018</span></i></div>
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देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-51063943141622002602018-08-22T16:42:00.000+05:302018-08-22T16:42:40.213+05:30इन दिनों : अगस्त अट्ठारह<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDncSecGfdpyCFqckJwr6exlu4EOyH6jLT0uagckTZvbnqlkWC0GZj06ZzZ_Zi_gr1QrgIbbQhPU1U2d0yJEMhE0HsHigSL_Wj3Rda9TEqIrCNbcueBlpG90ZTza1PtbwA3BhAbYeSOHE/s1600/d75d4a6b8287fe673af77e81e5bf1409.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="475" data-original-width="475" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjDncSecGfdpyCFqckJwr6exlu4EOyH6jLT0uagckTZvbnqlkWC0GZj06ZzZ_Zi_gr1QrgIbbQhPU1U2d0yJEMhE0HsHigSL_Wj3Rda9TEqIrCNbcueBlpG90ZTza1PtbwA3BhAbYeSOHE/s320/d75d4a6b8287fe673af77e81e5bf1409.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">अगस्त मेरे लिए कभी ऐसा नही रहा जैसा आज है। अगस्त महीने की याद से मुझे हमेशा दो चीजें सूझतीं हैं। सुबह की खिली-खिली धूप और रक्षाबंधन का त्यौहार। तब छत पर सोने से सुबह जल्दी आँख खुल जाया करती। सरसराती सी हवा मक्खियों को ज़रा भी चैन लेने नही देती। मैं सीढियां उतरकर आख़िरी सीढ़ी पर बैठ जाता और सामने दीवार पर पड़ने वाली धूप को देखता रहता। रक्षाबंधन वाले दिन सुबह से ही भुआओं का इंतज़ार होता रहता। वे आतीं और ज़ोर से हमारा नाम पुकारतीं। हम भागे-भागे सीढियां उतरते और उनसे चिपट जाते। नीचे दरवाज़े के बाहर सभी की चप्पलें बेतरतीब पड़ी रहतीं। मुझे दरवाज़े के बाहर इतनी सारी चप्पलें बड़ी अच्छी लगतीं, आज भी लगती हैं। मैं अपने पैर के अंगूठे और उंगलियों से उन्हें करीने से लगा देता। बुआ की चप्पल मुझे बहुत अच्छी लगती, ज़मीन से दो इंच ऊपर उठी हुई। उनकी साड़ी जैसी चमकीली। राखी बांधने के बाद शाम तक ठहाकों के कई दौर चलाने के बाद वे अपने-अपने घर वापस लौट जातीं। वो जब तक रहतीं घर गुलज़ार रहता। उनके लौटते ही एकदम सन्नाटा हो जाता। अब भी सबकुछ लगभग ऐसा ही होता है। पर अब हम बड़े हो गए हैं। </span></div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
पिछले लगभग सभी अगस्त सितम्बर के इंतज़ार में आसानी से निकलते गए हैं। इस साल के अगस्त तक पहुँचने में मई, जून और जुलाई का लंबा वक़्त लगा है। पर अगस्त अब आधे से ज़्यादा निकल चुका है। ये जाता हुआ अगस्त मुझे बहुत से नए अनुभवों से भरता जा रहा है। इनमें से पहला अनुभव है असफलता। हालांकि असफलता कभी भी किसी का नया अनुभव नही हो सकती पर असफलता हर बार नए रूपों में सामने आती रहती है। मेरी ये असफलता केवल मेरी नही है, ये एक पूरी पीढ़ी की असफलता है। व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए ये दोतरफा है। पहली, प्रतिभा के संदर्भ में और दूसरी, संबंधों के बारे में। शायद इसे प्रतिभा कह देना स्वयं के कार्यों से पल्ला झाड़ लेना ही होगा। ख़ुद को दोषमुक्त कर देना। बिना अभ्यास के प्रतिभा का कोई अर्थ नही होता। बीते वक़्त में इसी अभ्यास से लगातार बचता रहा हूँ। कुछ है जो मुझे हमेशा रोके रखता है। अब इसे पहचानते हुए भी इसे कह नही पा रहा। पर इतना तो समझ ही पाया हूँ कि अब ख़ुद को पहले से बेहतर समझने लगा हूँ। इस तरह असफलता एक तरफ तो तुलना की स्थिति खड़ी करती है तो साथ ही आत्मालोचन के लिए भी स्थान बनाती है। मैं किस प्रक्रिया से गुज़र रहा हूँ यह कुछ समय में पता चलेगा।</div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
मैं जितना प्रतियोगिताओं में असफल रहा उससे कहीं अधिक संबंधों में रहा हूँ। घनिष्ठता का वह स्तर मैं कभी नही पा सका जो मेरे आसपास के साथी अपने मित्रों के लिए महसूस करते होंगे। मित्रता से अलग जीवन में जितने भी रिश्ते होते हैं उनपर भी मैं कभी खरा नही उतर पाया। इस तरह मैं अंदर से एक खोखला, अधिक बजता हुआ चने का दाना ही बन पाया। शायद इसीलिए मुझे कभी प्रेम भी नही हुआ। किसीसे भी नही। ख़ुद से भी नही। नए प्रकार की स्वयं की गढ़ी हुई व्यस्तताओं में रोज़-रोज़ उलझकर मैं अपने फ़र्ज़ों से भी मुकरता रहा। चिढ़न-कुढ़न की हज़ार ग्रंथियां पाले हुए कभी कोई व्यक्ति सफल नही हो सकता। इस तरह मैं बीते पांच सालों में गर्व करने लायक एक भी लम्हा नही निकाल पाया। अपने ही भीतर घूमते-घूमते अपने को इस तरह का रूप देता रहा जो हर जगह मिसफिट रहा। किसी मध्यमार्ग की खोज दर-बदर भटकने के बाद ये समझ पाया कि मध्यमार्ग जैसी कोई चीज़ नही होती। और अगर होती भी है तो बहुत अच्छी नही होती। इसलिए ख़ुद ही भटकता हुआ ना जाने किस-किस रास्ते से होता हुआ फिर उसी रास्ते पर पहुँच गया जो आगे जाकर दो रास्तों में बंट जाता है। इस दोराहे पर ठहरा भी नही जा सकता।</div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
टकराते हुए जिस शोर का सृजन हुआ उससे मेरा आंतरिक एकांत जाता रहा। उसका स्थान लिया एक अनजान भीड़ भरे शोर ने। इस कोलाहल से दूर जाने के सभी उपाय भी असफल रहे। बाहरी एकांत तो कभी बन ही नही पाया। अब जाकर मुझे समझ आया है कि एकांत पैसे से खरीदा जा सकता है। जिंदगी में कुछ भी खरीदा जा सकता है यदि पैसा हो तो। मैं जिस एकांत की बात कर रहा हूँ उसका अर्थ अकेलापन कतई नही है। अकेलेपन तो मैं महसूस कर ही रहा हूँ। आँखें खोलने पर दूर तलक कोई नही दिखाई देता। इस अकेलेपन की व्याख्या ना ही मैं करना चाहता हूँ और ना ही कर सकता हूँ। ये बस है। इसके होने में किसी का कोई दोष नही है। शायद मेरा भी नही। या हो सकता है सारा दोष मेरा ही हो। अंततः ये अकेलापन भी मेरी असफलता का ही एक पहलू है।</div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
इन सभी बातों को देखते-समझते हुए मैं अपने लिए अगस्त अट्ठारह को असफलता का महीना कह रहा हूँ। 'इन दिनों' को दोबारा दोहराने से बचने की कोशिशों के बाद भी बहुत कुछ दोहराता रहा हूँ। दोहराव से बचना बड़ा मुश्किल काम है। फिर जब एक व्यक्ति भाषा से इतना दूर जाता रहा हो तो उससे किस प्रकार ये उम्मीद की जाए कि वो कहे जा चुके को नई तरह से कहे। अब तो लग रहा है कि कहना भी बसकी नही रहा। जो है सो जोड़-तोड़ है। फिर पता नही उस तरह कभी वापस आ भी पाऊंगा या नही। अभी तो लगता नही कि इंतज़ार ख़त्म होने को है। बाक़ी देखते हैं ऊंट किस करवट बैठता है।</div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; text-align: justify;">
देवेश<i>, 22 अगस्त 2018</i></div>
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<i><br /></i></div>
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देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-20227844877838770472018-07-09T23:13:00.001+05:302018-07-09T23:13:57.372+05:30ना कह पाना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
<div dir="auto">
<div class="separator" style="clear: both; font-size: small; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFdhpYiQl_3E9QIqabDu4RbtC8dRPVGXlAndtM7QGqqPUhQ0cOEZIkDJHGmw6UBA9dW1iU1yTQ4ZOpsBd70Kd1pJW5acyqcWpSTfbHC-nxeZPRZyIsYofXNglAKfx2V0qTgALeS1hNRJM/s1600/a4319827f35909ae8d1d7950abee9084.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1067" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjFdhpYiQl_3E9QIqabDu4RbtC8dRPVGXlAndtM7QGqqPUhQ0cOEZIkDJHGmw6UBA9dW1iU1yTQ4ZOpsBd70Kd1pJW5acyqcWpSTfbHC-nxeZPRZyIsYofXNglAKfx2V0qTgALeS1hNRJM/s320/a4319827f35909ae8d1d7950abee9084.jpg" width="213" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
एक समय आता होगा जब हर किसी को लगता होगा कि वह चुक गया। अब कहने को कुछ बाक़ी नही रह गया। ठीक उसी समय उसके पास बातों की एक दुनिया घुमड़ रही होती है। वह चाहता तो सबपर कुछ ना कुछ कह सकता है। पहाड़, नदी, बादल, आकाश, बोतल, चींटी, राज्यसभा, बिस्तर, पुल, किताबें इस सभी पर वह कह सकता है कुछ ना कुछ। असल नही तो मनघड़न्त ही सही। पर अब कहता नही। क्योंकि अब कहा नही जाता। जो वो कहता है वह एक क्षण में ही टूट जाता है। इस तरह बात टूटने से भाव और विषय सब बिखर जाते हैं। कहने का अर्थ तभी है जब सुनने वाला समझे। पर यदि कहा ही ना जा सके तो?</div>
</div>
<div dir="auto">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
<div dir="auto">
<div style="text-align: justify;">
भाषा होते हुए भी यदि ज़ुबान ना चले तो कोई क्या कर सकता है? यहाँ वह कहते कहते खुद को रोक भी लेता है क्योंकि जिस भाव को जिस तरीके से कहा जाना है वह उन्हें पकड़ ही नही पा रहा। भाषा तब साथ देती है जब मन में छवियाँ साफ हों। कहना क्या है ये पता हो। अभ्यास के महत्व को भी नकारा नही जा सकता। पर यहाँ तो कुछ साफ ही नही हो रहा। सब गड्डमड्ड है। उलझन बहुत है। शब्द सब साथ छोड़ रहे हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
</div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
रचना के तीनों क्षणों में से ये कोई भी क्षण नही है। ना तो इस समय कुछ भी समेटा जा रहा है और ना ही विचार की कोई प्रक्रिया घूम रही है। एक मौन है। चुप्पा। मस्तिष्क भी चुप है। बार-बार उनके कहने के बाद भी वह चुप है। वह शायद इंतजार कर रहा है। किसी खास समय का या फिर इस समय के गुज़र जाने का। वह लगातार यही कर रहा है कई वर्षों से। वह स्थिर हो जाने के इंतज़ार में होगा। उसका मस्तिष्क भी। देखते हैं कि ये मौन उसपर कबतक हावी रहता है। वह कई बार कहता भी है पर किसी के सामने नही। अकेले में वह ख़ूब बातें करता है। एक निर्जीव देह से। जिसमें जीवन फूंकने की कोशिश वो साल भर से कर रहा है। या उसमें वह खुद को रचने का प्रयास कर रहा है। दस्तावेज़ीकरण बड़ा भारी शब्द है। वह उसे कोई दस्तावेज़ बनाना भी नही चाहता। वहां भी वह हमेशा अपने को सीमित पाता है। शब्दों और अर्थों से खाली।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="text-align: start;">देवेश, 9 जुलाई 2017</span></div>
</div>
<div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: arial, sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-19724780215260340782018-05-01T11:41:00.000+05:302018-05-02T12:54:35.552+05:30वे दोनों<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3Tbpf3iA_k6bNgGh__gkc3yED1X6Ksf_zVKKh5eDTDwcjTc4QtsPNLmfw02KBHYhJOh2JNzCs44xPQG_DY1IqCYBwwyS-6rSGzmKM08I8nIG5Z2hEyGHaI71jckAcVSC-U2gSJ0NrN1s/s1600/2737333bf81ff79550453e6c31db8ed8.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1067" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj3Tbpf3iA_k6bNgGh__gkc3yED1X6Ksf_zVKKh5eDTDwcjTc4QtsPNLmfw02KBHYhJOh2JNzCs44xPQG_DY1IqCYBwwyS-6rSGzmKM08I8nIG5Z2hEyGHaI71jckAcVSC-U2gSJ0NrN1s/s320/2737333bf81ff79550453e6c31db8ed8.jpg" width="213" /></a></div>
<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;">ये पहली मंज़िल है। बाहर कड़ी धूप है। इस कमरे में केवल हम नहीं बैठे। हम लड़के-लड़कियों के अलावा एक युगल भी बैठा है। हम लड़के और लड़कियाँ ना चाहते हुए भी किसी न किसी बहाने से अचानक उन्हें देख लेने की इच्छा से भरे हुए हैं। वो दोनों बहुत धीमें से आपस में बात कर रहे हैं। वो नही चाहते कि कोई उनकी एक भी बात सुने। वो अपने अलग टापू पर हैं। वो अपनी इस दुनिया को अपनी पीठ से ढक लेना चाहते हैं। हम अपनी इस दुनिया से उन्हें देख रहे हैं। उन्हें इस तरह एक-दूसरे का हाथ पकड़े देखकर हम सभी कोई प्रतिक्रिया नही दे रहे। हम सब बातों में लगे हैं यही हमारी प्रतिक्रिया है। हम सभी लड़के-लड़कियाँ उन दोनों की ही तरह बैठ जाना चाहते हैं। इस बात से जो इनकार कर रहा है वह झूठा है। </span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<div style="text-align: justify;">
वे लड़का और लड़की दोनी ही यहाँ से अनुपस्थित है। वो इस समय से टूट गए हैं उनकी स्मृति में रह गए हैं एक दूसरे के कंधे, हाथ और होंठ। मैं ये बार-बार कहता हूँ कि प्रेम तोड़ता भी है। ये टूटना ही अनुपस्थित होना है कई आयोजनों से, रिश्तों से, यादों और बातों से। उन दोनों की ही तरह यहाँ बैठे हम सब भी कंधे, हाथ और होंठ हो जाना चाहते हैं इनके अलावा और बहुत कुछ भी जिसे मैं यहाँ लिखना नही चाहता।</div>
</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
ये कमरा एक कक्षा है। मेरे दिमाग़ में उनका इस कमरे में इस तरह बैठना बार-बार खटक रहा है। मैं कल्पना कर रहा हूँ कि मैं उठकर उनके पास जाता हूँ और भौहें तानकर कहता हूँ आप इधर इस तरह नही बैठ सकते। मेरे इतना कहते ही वे दोनों भावहीन चेहरा लिए वहाँ से चले जाते हैं। इस घटना के बाद मेरी कल्पना मर गई है। मैं उन दोनों को इस कक्षा के बाहर कहीं भी कल्पित नही कर पा रहा हूँ। मैं कोशिश करता हूँ कि सोचूँ कि वो एक दूसरे का हाथ पकड़े एक बड़े से पार्क में घूम रहे हैं। पर मेरी कल्पना से वे दोनों जा चुके हैं केवल रह गया है एक खाली सूना पार्क।</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
उस दिन के बाद से वो दोनों मुझे कहीं नही दीखते। ना यहाँ ना कहीं और। इसका मतलब ये नही कि वो मर गए। वो बस मेरी स्मृति में चिपके रह गए हैं। उनके हज़ार चहरे मेरे अंधेरे दिमाग़ में साबुन के बुलबुलों की तरह हवाओं में डोलते और फूटते रहते हैं। उनके टूटे हुए हाथ, कटे हुए होंठ भी सेमर की रूई की तरह उड़ते नज़र आते हैं। अब मुझे उनकी ज़्यादा याद आने लगी है। मैं सोचता हूँ कि कभी कमला नगर घूमते हुए वो अचानक किसी दुकान पर दिखाई दे जाएंगे। वो दोनों तब भी दुनिया से पीठ करे रहेंगे। उन्हें यूँ देख लेने की कल्पना करते हुए भी उनके चित्र नही बन पा रहे हैं। सब रंग घुल रहे हैं। कुछ समझ नही आ रहा क्या हो रहा है। वो नही दिख रहे। उनकी कल्पना भी मुझसे नही हो रही। कोई चित्र भी नही बन रहा। </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
लेकिन अब मुझे कानों में धीरे-धीरे उनकी फुसफुसाती सी आवाज़ सुनाई दे रही है। वो आपस में बात कर रहे हैं। वो कोई गाना गा रहे हैं। वो हँस रहे हैं। </div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<br /></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; font-size: large;">
<i>देवेश, 1 मई 2018</i></div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-68422342941971835132018-04-24T23:47:00.000+05:302020-04-21T23:47:38.769+05:30इन दिनों<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhUrYaK5FtPD5WePNwdwsYwqUUcF-5zqQO08Fx5PLKf_sFKIRzZyIi8ZUKfFIRkkBtrB1IRaU_NgYrvpkpZ3TPZvLCRGr9EoUcQ6jKTDOxVeNxIExB833UgEhGOKDuh0k3vICZw70LSuW8/s1600/9cbd3f594f9fcace4a75f510df9af163.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="674" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhUrYaK5FtPD5WePNwdwsYwqUUcF-5zqQO08Fx5PLKf_sFKIRzZyIi8ZUKfFIRkkBtrB1IRaU_NgYrvpkpZ3TPZvLCRGr9EoUcQ6jKTDOxVeNxIExB833UgEhGOKDuh0k3vICZw70LSuW8/s320/9cbd3f594f9fcace4a75f510df9af163.jpg" width="224" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif; font-size: small;">यहाँ सब वैसा नहीं है जैसा पहले हुआ करता था। सब बदल गया है। मैं भी बदल गया हूँ। अब वैसा कुछ भी महसूस नही होता जैसा पहले हुआ करता था। धीरे-धीरे सम्वेदना से दूर छिटकता गया हूँ। दिन यूँ ही निकल रहे हैं। ये इंतजार जैसा ही है। पर ये इंतजार किसी समय का है या किसी व्यक्ति का समझ नही पा रहा हूँ। ये एक भरी दोपहरी है। चेहरा अब पसीने से भरा रहता है। ये उमस अब मुझमें भी उतरती जा रही है। ये सब बातें जिस शांत भाव से लिख रहा हूँ ये उससे दुगनी आक्रामकता से मेरे अंदर पल रही हैं। </span></div>
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मैं यहाँ साफ-साफ कुछ नही कहना चाहता। मैं एक भी सूत्र नही छोड़ना चाहता कि कोई उसे पकड़कर मुझतक पहुँच जाए। मैं ये भी नही चाहता कि मेरी इन अकेली बेचैनियों में कोई मेरे साथ हो। मुझे बस एकांत चाहिए जहाँ मैं अकेले जूझ सकूँ ख़ुद से। पढ़ाई से अब मोह छूट गया है। अकादमिक परिवेश से अजीब वितृष्णा हो गई है। ये एक ढाँचा है जो आपको अपनी तरह से अपने खाकों में फ़िट करने के लिए हमेशा दबाव बनाए रहता है। वो आपके सभी सपनों को रौंद डालता है। इसमें एक मज़ेदार बात ये भी है कि दुनिया-जहान में अपनी प्रगतिशीलता का डंका पीटने वाले महारथी भी अपनी संस्थाओं के स्वरूप में कोई परिवर्तन करने के इच्छुक नही लगते। बाक़ियों से उम्मीद ही क्या की जा सकती है।</div>
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इन्ही इंस्टीट्यूशन्स की तरह सम्बन्ध भी होते गए हैं। ऐसा कुछ रहा नही कि जो हमें बाँधे रख पाए। वो गर्माहट भी सब जाती रही। हम सभी आते हैं। मिलते हैं यंत्रवत। और जब हम सब एक दूसरे के पास नही होते तब हम एक दूसरे को याद भी नही करते। मैं इसे समय का तकाज़ा नही मानता, ये हमारी अनिच्छा है। संबंधों को बनाए रखने की अपनी तरफ से कोई कोशिश नही है। जिन सम्बन्धों में कुछ बचा ना हो उनका ना होना ही बेहतर है। होने ना होने की बीच की स्थिति सबसे ख़राब होती है।</div>
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ये मौसम मुझे बिल्कुल पसंद नही। बार-बार मन करता है कहीं ठंडी जगह चले जाओ। लेकिन मैं प्रवासी पक्षी नही हूँ। मैं यहीं मरूँगा। अब तो सोचता भी नही कहीं जाने की। मन टूट गया है। जाना वैसे भी संभव नही तो सोचने से कोई फायदा नही। ये मौसम बार-बार अग्निपरीक्षा की फील देता है। जितना भी चाहो आप वातावरण से अलग नही हो सकते। बसों की भीड़ से अब डर लगने लगा है। अगर ज़्यादा भीड़ हो तो तीन-चार बसें छोड़ दिया करता हूँ। कुछ भी हो झेलना तो पड़ता ही है।</div>
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अपने आप को समझने की जितनी कोशिश करता हूँ ख़ुद को उतना ही अबोध और पिछड़ा हुआ पाता हूँ। संभावनाएं और असमर्थताएँ तो बाद की बात है अपनी इच्छओं को समझना भी बस की बात नही लगती। सब कितना उलझा सा है। एक छोर पकड़ो तो दूसरा ग़ायब और सुलझाने की कोशिश करो तो इतना उलझ जाओ की निकलना दूभर हो जाए। हर छः महीने में जब ख़ुद को उलझा पाता हूँ तो देखता हूँ कि परीक्षाएं आ गईं। अब या तो पढ़ो या उलझे रहो। अंकों के लिए पढ़ना ही पड़ता है सो इन उलझनों को कुछ समय के लिए स्थगित करने के अलावा कोई चारा नही होता। फिर गए छः महीने। लगभग चार साल से यही हो रहा है। अब भी उलझा ही हूँ। लेकिन अब बेचैनी बढ़ गई है। कुछ सूझता नही। समय-समय पर ख़ुद को झिड़क देता हूँ। कभी तो बहुत से सवालों से बच भी जाता हूँ। ये बचना दीर्घकालीन नही होता कुछ ही समय में फिर वही सवाल आ खड़े होते हैं। अब इनसे बचना आसान नही होगा। अब और जूझना होगा।</div>
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इन दिनों तो सब गड़बड़ा ही गया है। समयबोध भी। कुछ समझ नही पाता कब दिन निकल गया। सब बस चल रहा है किसलिए पता नही। सब छूट रहा है समय की तरह। उद्देश्य भी छूट रहे हैं। सब गड्डमड्ड। बेकार की व्यस्तता हावी होती जा रही है। मैं अनुपस्थित होता जा रहा हूँ हर कहीं से। अपने आपमें से भी। यहाँ पता नही क्यूँ हूँ। कहना बहुत कुछ है लेकिन कुछ है जो रोक रहा है। शायद मैं ख़ुद ही रोक रहा हूँ स्वयं को। या आलस्य, या डर। ये ऐसा भाव है जिसे लिखने की जद्दोजहद में कुछ भी नही लिखा जाता। ये बस है। अनकहा।</div>
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<i>देवेश, 24 अप्रैल 2018</i></div>
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देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-50230460737688578452018-04-07T11:20:00.000+05:302020-04-21T23:44:49.086+05:30एक बयान<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpxRrxKv5YYCakHLvxVIGin9GIOLZS5aB2vwgutjhVgqxjnt3wJ7EPJTbpkh173WCEIMkQ3VmH1auiPRRhCG1Uxd6427mzx58zU_SlfZP4B0AuH0tMgeghDKEFll2wDIP33QdXOMqqgbY/s1600/3ba68a404f586239fc0e05cb26b60448.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="600" data-original-width="491" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpxRrxKv5YYCakHLvxVIGin9GIOLZS5aB2vwgutjhVgqxjnt3wJ7EPJTbpkh173WCEIMkQ3VmH1auiPRRhCG1Uxd6427mzx58zU_SlfZP4B0AuH0tMgeghDKEFll2wDIP33QdXOMqqgbY/s320/3ba68a404f586239fc0e05cb26b60448.jpg" width="261" /></a></div>
<span style="font-family: sans-serif; font-size: small;">हमें कहा गया कि हमें निश्चित समय पर वहाँ पहुँचना है। हम अपने शाम के काम स्थगित कर समय से पहले पहुँच गए। यह एक बड़ा पार्क है। सूखा हुआ पार्क। इसमें घास उगने की कोई संभावना नही बची है, पर कहीं-कहीं दूब चमकी सी उगी हुई है जिसे देखकर अचंभा ही होता है। ये रैन बसेरे के बाहर का आँगन है। ये उनकी जगह है जिनकी कहीं कोई जगह नही। लेकिन से सभी कुछ ना कुछ काम करते है। बड़े भी बच्चे भी। कुछ बच्चे पढ़ते भी हैं। </span></div>
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सभी बच्चे बीच में बैठे हुए हैं और सर ऊपर कर उसे सुन रहे हैं जो ज़ोर-ज़ोर से भाषण दे रहा है। वो नीली कमीज वाला आदमी इन सभी का पहचाना हुआ है। ये आदमी इन्ही के अधिकार की बात कर रहा है। बीच में बैठे बच्चों को घेरा बनाकर घेरे हुए हैं कुछ जवान और बूढ़े लोग जो इनके बीच के नही हैं। वो इनसे ज़्यादा सुथरे हैं। इन सभी से ज़्यादा समझदार। दिलवाले हैं या नही ये नही पता।</div>
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बीच में एक मैली सी सफ़ेद टी-शर्ट में एक लड़का खड़ा हुआ है। कल ही कि बात है इसे पुलिस ने पीटा है। वो ख़ुद ही अपनी आपबीती धीरे-धीरे बता रहा है। लोग सुन रहे हैं उसका अनुभव। वो बता रहा है कि वो किसी मसले को लेकर थाने में एफआईआर दर्ज कराने गया था, पर पुलिस ने उसे जेबकतरा कहा और मार-पीटकर भगा दिया। वो कह रहा है कि उसके पास इस घटना की वीडियो भी है। </div>
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नीली कमीज़ वाला आदमी लड़के की माँ को बुलाता है और उससे कहता है कि साल दो हज़ार पंद्रह का अपना अनुभव बताए। महिला पुलिस द्वारा की गई मार पिटाई के अलावा शारीरिक शोषण की अपनी कहानी बुलंद आवाज़ में कह सुनाती है और न्याय की माँग करते हुए हाथ जोड़ लेती है। यहाँ कोई मीडिया नही है। क्योंकि यहाँ भीड़ नही है।</div>
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अब हम पाँच लोग बीच में खड़े हैं। इस विरोध प्रदर्शन में हम गा रहे हैं मुक्तिबोध की एक कविता। वो कविता जिसका हर एक शब्द भारी है। हमारे बाद सभी वो कविता दोहराने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उन्हें कुछ समझ नही आ रहा। यहाँ हमारे द्वारा मुक्तिबोध को गाया जाना मेरे लिए एकाएक एक शर्मनाक घटना में परिवर्तित हो गया है। हम पाँच संवेदनहीन लोग गाए जा रहे हैं। हम केवल गा नही रहे हम मखौल उड़ा रहे हैं इन अशिक्षितों का।</div>
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बात केवल इतनी ही तो नही है। हम इस पूरी घटना को अपनी मर्ज़ी से रच रहे हैं। सब बना बनाया है। सोचा समझा है सब। यहाँ जो भी हो रहा है हम उस सभी को जमा कर रहे हैं अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए। इस बात को किस तरह लिया जाय समझ नही पा रहा हूँ। </div>
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ये एक तरह का अंधेरा ही है। लेकिन ये अंधेरा वो नही है जिसकी बात मुक्तिबोध ने की होगी। यहाँ सब निरर्थक सा हो गया है। सब भारी सा। सब ख़त्म होते ही हम निकल गए हैं। मीना बाजार के बाईं ओर जामा मस्जिद मेट्रो स्टेशन की फीकी सफ़ेद रौशनी में हम समा गए हैं, और अपने-अपने स्वार्थों के साथ लौट गए हैं अपनी दुनिया में।</div>
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<i>देवेश, 5 अप्रैल 2018</i></div>
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देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-90929784847003900342018-02-25T23:05:00.000+05:302020-04-21T23:42:47.237+05:30दुःख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjoKy0RjwKjOn7t6K4ynNDQ1zXYDZUny9HiPlEk3YskarWCg75_Xj9nWFIbOFwrR_bEnXF5YKyhN6YZMKE-uaiBWzg4W0mWIT3BckD9W9OVA-_LnwGkJPBBoHlm1wy2PT4twEyfQDVbuow/s1600/b7ad7907f112052e894c745f1a1c1e00.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="750" data-original-width="500" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjoKy0RjwKjOn7t6K4ynNDQ1zXYDZUny9HiPlEk3YskarWCg75_Xj9nWFIbOFwrR_bEnXF5YKyhN6YZMKE-uaiBWzg4W0mWIT3BckD9W9OVA-_LnwGkJPBBoHlm1wy2PT4twEyfQDVbuow/s320/b7ad7907f112052e894c745f1a1c1e00.jpg" width="213" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif;"><span style="font-size: medium;">कुछ कहना क्या ज़रूरी होता है कहने के लिए? कहूँ भी तो किससे? कोई सुनना भी चाहता है? ना सुने तो ना सही! अगर कहना ना भी चाहो तो कोई समझेगा नही। इस स्थिति में बस अकेले जूझा जा सकता है। जूझने में एक इंतज़ार होता है इस दौर के खत्म हो जाने का। क्या मुझे भी इसे इंतज़ार की तरह ही लेना चाहिए? मेरी उम्मीदें तो बनी नही रह सकती। इसलिए ये दौर एक ऊब से भरा रहा है। ये हाथ-पांव बंधे होने जैसा है, कि कोई रह-रहकर आपके गले की रस्सी को उस हद तक खींच लेता है कि मृत्यु एकदम नज़दीक आ जाए और अचानक रस्सी छोड़ दे। बात बस ज़बान पर आजाए पर दिमाग़ सचेत होकर ज़हर का घूँट भर ले।</span></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: medium;"> खुद को इस तरह रोक लेने से भी कुछ नही हो रहा। एक युद्ध ही चल रहा है। जो भले ही अदृश्य लगे लेकिन जो अपना असर छोटे-छोटे संकेतों में दिखा जाता है, जिन्हें कोई पकड़ नही पाता। ना पकड़ पाए उसमें भी मेरी ही जीत है और हार भी। ये लिखावट भी उसी युद्ध का प्रतिफल है। जिस तरह मैं यहाँ लड़ रहा हूँ उसी तरह हर कोई लड़ रहा है लेकिन आधे मेरी तरह चुप हैं।</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: medium;"> क्या इससे अवसाद में जाने का कोई ख़तरा है? इस पंक्ति को लिखकर ही ख़ुद पर हंसी आ रही है। हम सभी तो अवसाद में जी रहे हैं। अवसाद का कोई ख़ास मौसम थोड़े ही होता है, अवसाद बारहोंमास छाया रहता है। बस दिखता नही। चेहरे को नियंत्रित किया जाना उतना भी मुश्किल नही होता। अवसाद का स्तर भी हम सभी में अलग है। मुझे अवसाद में डूब जाने का डर नही। अवसाद की गहराइयों में भी मेरे साथ कलाएं होंगी। वो मेरी अपनी ना हो किसी और की ही सही पर होंगी ज़रूर।</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: medium;"> कला से ही दुःख को उसके सच्चे रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है। कला की अपनी नग्नता और अपने पर्दे होते हैं। उसमें जितनी बेफिक्री होती है उतनी ही सजगता भी। इसलिए कला एक सनक भी है। यहाँ इन बातों को लिख देना मेरे लिए कला के क़रीब आजाना नही है, ये एक दबाव है जिसे यहाँ समाप्त कर दिया गया। लेकिन यहाँ मैं जितना ख़ाली हुआ हूँ उतना ही भर भी गया हूँ। इससे बचा नही जा सकता। संजीवनी जैसी कोई जड़ी शायद ही बच पाई हो। लेकिन हमें जीना होगा। समुद्र भी कितना नमक लिए जी ही तो रहा है। उसे भी शायद इंतज़ार हो। शायद मुझे भी हो।</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: medium;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: medium;"> कई बार हमें बीमारी का इलाज पता होता है लेकिन इलाज नही कर सकते। ये मजबूरी ही है। इसे ढोते रहना ही अब बाक़ी रह गया है। इसका इलाज बस बग़ावत है। क्या अपने मन की करना ग़लत है? सबके लिए वही तो बग़ावत होगी। मन भी तो नही बन पाता। हाँ-ना में ही दिन, महीने, साल कट रहे हैं। इस सब में अगर सभी से चिढ़ हो तो क्या ग़लत है? काबू किसी का नही। बस फैसले भर की बात है। सब टूटने ही को होगा तब। तब पता नही दुःख ख़त्म होगा या शुरू। उसने तो यही बताया था कि दुःख ही होता है, बहुत दुःख।</span></div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-13558497732517639692018-02-13T23:41:00.001+05:302020-09-27T20:24:35.029+05:30छूटना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdTkBxJuaHZBmRR7JiGLGvV5wgqmFdfMoV6oUKuEY5iVV9ePKHpZb7Py8Co8mwS41WG_miCp9hQ9xT2Mo7KX5sAvBVouiDA5nncbJIwXjRSRQZhmUBtlrrqDWUv5LQPaWmT3QGBBzrCM8/s1600/9ba1ed64687d0f91f40dff096604a818.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="674" data-original-width="500" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdTkBxJuaHZBmRR7JiGLGvV5wgqmFdfMoV6oUKuEY5iVV9ePKHpZb7Py8Co8mwS41WG_miCp9hQ9xT2Mo7KX5sAvBVouiDA5nncbJIwXjRSRQZhmUBtlrrqDWUv5LQPaWmT3QGBBzrCM8/s320/9ba1ed64687d0f91f40dff096604a818.jpg" width="237" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span face="sans-serif" style="font-size: medium;">उसने मुझे बताया नही की उसकी तरह वहाँ वो शहर भी अकेला है। अकेला होने का अर्थ प्रेम से खाली होना नही है। वहाँ उसके और यहाँ मेरे अकेलेपन में प्रेम का अस्तित्व है। उसका शहर वो शहर है जिसके लोग आपस में बतियाते नही हैं, लेकिन वो चुप भी नही रहते। ऐसी स्थिति में वो शहर बिल्कुल मेरी तरह होता है, चुप और तेज़। उसने पहले ही समझ लिया था कि एक न एक दिन ऐसा ज़रूर होगा कि हम अकेले होंगे। हम होंगे अलग-अलग शहरों में गाड़ियों के शोर और धुएं से अलग-अलग जूझते हुए और हमारा प्रेम भी अलग होगा। हम अलग-अलग घूम रहे होंगे अपने दिमागों में।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">यहाँ समझ नही आता कि क्यों वो उदासी पसर रही है जो गर्मियों की छुट्टियों में शाम को रात में बदलते देखने पर मेरे अंदर उतर जाया करती थी। ये उदासी अकेलापन क्या खुद का ही खड़ा किया हुआ है? क्या मैं इस सब से छूट नही जाना चाहता? मैं क्यों चीख़कर ये नही कह देता की मेरा मन नही लगता यहाँ, मुझे एकांत चाहिए! मुझे एक अलग जगह चाहिए। मैं बादलों से भरी अंधेरी दोपहरों में जी भरकर सोना चाहता हूँ। मुझे नही होना यहाँ। मेरे बिल्कुल बदल जाने तक मैं यहाँ से दूर चले जाना चाहता हूँ, उन नए लोगों के बीच जिन्हें कभी भी मेरा इंतज़ार नही रहा। पता नही वो उन लोगों के बीच कैसा महसूस करता होगा। वो भी तो नही जानता उन सबको। लेकिन उसे वहाँ शान्ति तो है।</span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;"><br /></span></div><div style="text-align: justify;"><span style="font-size: medium;">यहाँ कहीं भी नीरवता की इच्छा नही है। चाह केवल स्थान की है, उस स्थान में केवल कुछ का निषेध हो। क्या इस तरह हम अपनी दुनिया को चुन सकते है? चुन ना भी सकें तो क्या बना सकते है? क्या वो दुनिया सफल होगी? उस नई दुनिया के पैमाने हम अपनी तरह बदल देंगे। भाषा भी हम अपनी बनाएंगे। तब सफल और असफलता अपने अर्थ खो देंगे। केवल इच्छा रह जाएगी। उस इच्छा में भी प्रेम होगा अकेलेपन की तरह।</span></div><div style="text-align: justify;"><i><span style="font-size: medium;"><br /></span></i></div><div style="text-align: justify;"><i><span style="font-size: medium;">देवेश, 13 फरवरी 2017</span></i></div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-38363678618373760692018-01-12T00:48:00.000+05:302018-01-12T00:48:26.975+05:30मिसफिट<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRqEeSmEv5QGcTZ83janKTeTjy_zcKQbwUzZnRgUmlPBR5ED2QpCsIE8lUdKfZiWjaWpgdpSqTDQfnaFt6-Pf-7YG78_ge7Me_H2VJs6L7-gt7q9GgGTkeUAPLk3Rt6DpUyTQF5VABTGM/s1600/6fd788e3b06b4d811581c31a434d64b6.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="456" data-original-width="570" height="256" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRqEeSmEv5QGcTZ83janKTeTjy_zcKQbwUzZnRgUmlPBR5ED2QpCsIE8lUdKfZiWjaWpgdpSqTDQfnaFt6-Pf-7YG78_ge7Me_H2VJs6L7-gt7q9GgGTkeUAPLk3Rt6DpUyTQF5VABTGM/s320/6fd788e3b06b4d811581c31a434d64b6.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif; font-size: large;">एक दिन अचानक सब नही बदला। सब बदल रहा था धीरे-धीरे, या फिर कुछ बदला ही नही अब तक। हाँ कुछ भी नही बदला। जो जैसा है वो वैसे ही रहना चाहता है। वो जहाँ बैठा है वहाँ से इंच भर भी नही खिसकना चाहता किसी और के लिए। तो क्यों उन्हें वहाँ होना चाहिए जहाँ वो होकर भी नही हैं। क्या वो उनकी दुनिया है भी? या वो अपनी बातों को ही पुल बनाकर वहाँ तक पहुँचने की नाकाम कोशिशें कर रहें हैं पिछले कुछ सालों से? वो भले ही कितनी कोशिशें कर लें लेकिन वो जानते हैं ये दुनिया उनकी नही। वो कभी भी उसमें रम नही पाए, ना ही कभी रम पाएंगे। वो अपनी दुनिया से निकलकर किन्ही और की दुनिया में अगर चाहेंगे भी तो जम नही पाएंगे। अपने से अलग उस दुनिया में वो ख़ुद को हमेशा मिसफिट ही महसूस करेंगे।</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">असल में मिसफिट होना ही उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी त्रासदी है। इन सभी बातों को सोचते हुए वो तीनों कई अन्य जगहों से अनुपस्थित हो गए हैं। उनकी अपनी दुनिया, नाटक, संगीत, चित्र और साहित्य के संसार से वो सभी अनुपस्थित हैं। इस अनुपस्थिति में वो कहीं भी नही हैं। उनके होने न होनें से किसी को कोई फर्क भी नही पड़ेगा। आज उनके आने से या कल जाने से कुछ होगा नही। यहाँ तक कि उनका स्थान भी खाली नही होगा, ये उनकी विफलता है कि वो स्थान ही नही बना पाए।</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिन नए रिश्तों के लिए वो चौंक कर ख़ुश हो जाया करते थे। आज उन्हें पक्का यक़ीन हो गया है कि वो रिश्ते कभी बन ही नही पाए। वो जब भी आपस में मिल रहे होते हैं हमेशा ही थोड़े-थोड़े ख़ाली हो जाया करते हैं। उनके बीच कुछ बचता ही नही बात करने को। उनके जो साझे अनुभव है वो नाकाफ़ी है उनकी बातों को पिरोने के लिए। हारकर वो चुप रह जाते हैं।</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">चुप होने का अर्थ नही कि वो सोच नही रहे हैं या कह नही रहे हैं। वो कहते सब है, चीख़कर भी कहते हैं लेकिन वो किसी को सुनाई ना दे इस तरह कहते हैं। इस भीड़ में अकेले होने पर भले ही कोई व्यंग्य करे और कहे कि ऐसा कुछ नही होता लेकिन इस स्थिति को वो क्या नाम देगा?</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अब उन्होंने सब को अपने हाल पर छोड़ दिया है। यहाँ ना तो डूब जाने की इच्छा है और ना ही उबर जाने की बेचैनी। इस स्थिति को फिलहाल कोई नाम नही दिया जा सकता। इस स्थिति को ऐसा बनाए रखने में किसी भी कला का कोई दोष नही है। कला से पहले संबंध होते हैं। सम्बन्ध हम ही तो बना रहे हैं। इन संबंधों का जो रूप बन रहा है उसकी ज़िम्मेदारी हमारी साझी है। यहाँ सबका दोष है और सब निर्दोष भी।</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<i><span style="font-size: large;">देवेश, 11 जनवरी 2018</span></i></div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-3763963412914449192017-12-18T23:13:00.000+05:302017-12-18T23:13:10.509+05:30एक अधूरी प्रेमकथा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGZjZzRduIClMh2_ETxEKohPOxf1iKBva8PHtuWiEWOZkX6wOd3kg_hD1cNEXnxGimZFiKkzAyK2YPZMz-LK3SXQovkui1DSuhhFM9o1R4TOiTDKWKlfuvoc9deAkruFMnhSx1iRVhNcU/s1600/c385e3a78cbc47aab63e837f174f1369.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="697" data-original-width="491" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhGZjZzRduIClMh2_ETxEKohPOxf1iKBva8PHtuWiEWOZkX6wOd3kg_hD1cNEXnxGimZFiKkzAyK2YPZMz-LK3SXQovkui1DSuhhFM9o1R4TOiTDKWKlfuvoc9deAkruFMnhSx1iRVhNcU/s320/c385e3a78cbc47aab63e837f174f1369.jpg" width="225" /></a></div>
<span style="font-size: large;">अभी कुछ कह देने की बेचैनी नही है, मन कुछ अजीब सा हो रहा है। बस उसकी याद आ रही है। आज से दो साल दो दिन पहले उसने ज़हर खाया था। जब उसका पहली बार नाम सुना था तब से अब तक मैं उसको एक भी बार नही मिला। बस उसकी कुछ तस्वीरें देखी थीं और एक बार फ़ोन पर बात की थी। उसका चेहरा जाना पहचान सा था, हमारी रिश्तेदारी में एक लड़की है राधा, पूजा बिलकुल उसकी तरह दिखती थी। पर वो राधा के बिलकुल उलट थी। उसे घर में रहना पसंद था। धर्म-कर्म में भी मन लगता था। पढ़ना उसके लिए सिर्फ एक मजबूरी थी, या कहें शादी तक की उसकी यात्रा का रास्ता, उसे रास्ते से ज़्यादा मंजिल पसंद थी। जीन्स टॉप से घृणा उसकी चारित्रिक विशेषता थी। अपने गुणों और विचारों में पुरुषवादी समाज उसके लिए एकदम अनुकूल था। उसके व्यक्तित्व को इस तरह गढ़ने में परिवार की भूमिका ज़्यादा रही या फिर उसके पहले और अंतिम प्यार की, पता नही, पर दोनों ने मिलकर उसे ऐसा बना दिया था। उसके प्रेमी के संस्कार भी पूजा से बढ़कर होने ही थे, उसे भी जीन्स वाली लड़कियाँ देखने में भले ही आकर्षक लगती हों पर उसे अपनी बेग़म बनाना उसे क़तई मंजूर न था। </span></div>
<div dir="ltr" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> दोनों स्कूल से लौटते हुए कभी आँखों-आँखों में एक दूसरे से कुछ बतला भले ही लें लेकिन इसे लेकर वो इतने सतर्क रहते की किसी को कानोंकान ख़बर ना पड़े। प्रेम एक तरफ तो कोमलता देता है लेकिन एक का प्रेम बाकियों को शूल की तरह चुभता भी है गांव तो दूर की बात है शहरों में भी यही हाल है, मजाल है कि कोई ज़रा भी भटकने पाए। फिर भी ये दोनों कहीं ना कहीं से मिलने की जुगत लगा ही लेते थे। यूसुफ़ ने पूजा को एक फ़ोन भी दिया था जिसे वो अपने स्कूल बैग में छुपाए रखती थी और एक बार पकड़े जाने पर जबरदस्त तरीक़े से पिटी भी थी। वे घंटों फ़ोन पर बात नही करते थे और न ही साथ कहीं घूम पाते थे पर हमेशा एक दूसरे के ख़यालों में खोए रहते थे। दोनों की कल्पनाओं में उनका एक घर रोज़ बन जाया करता था जिसमें ये दोनों शाम का खाना साथ खा रहे होते थे, इसी कल्पना की तरह यूसुफ़ को पसंद था अज़ान होते ही पूजा का अपना सर ढक लेना।</span></div>
<div dir="ltr" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> यू</span><span style="font-size: large;">सुफ़ कभी भागकर शादी नही करना चाहता था, लेकिन वक़्त ने उसे मजबूर कर दिया। एक ओर नई दिल्ली स्टेशन से उसने हर तरफ की ट्रेन की जानकारी इकट्ठा कर ली, वहीं दूसरी तरफ उसके एक दोस्त ने एक वक़ील से भी उसकी बात करा दी। सब इतना जल्दी हो रहा था कि यूसुफ़ कुछ समझ ही नही पा रहा था कि क्या करे। घंटों सोच-सोचकर उसका सर फटा जा रहा था, पर हाथ कुछ लग ही नही रहा था। यूसुफ़ के घर वाले तो पूजा से शादी के लिए राज़ी हो गए लेकिन पूजा की माँ को सब जानकारी होते हुए भी वो कुछ बोली नही। यूसुफ़ बार-बार उनके आगे गिड़गिड़ाता रहा, वह भी हाँ-ना करके टालती रहीं। उन्होंने पूजा के पापा को कुछ बताया नही। क्योंकि वो जानती थीं कि अगर उन्होंने ये बात पूजा के पापा को बताई तो वो उसे मार ही डालेंगे।</span></div>
<div dir="ltr" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> </span><span style="font-size: large;">आठ साल दोनो के प्रेम संबंध को हो चुके थे, दोनों ही पीछे हटना नही चाहते थे। पूजा का शादी जल्दबाज़ी में तय हुई, हफ्ते भर बाद का ही दिन शादी के लिए तय कर लिया गया। यूसुफ़ की जान पर बन आई, वो ऐसा होते हुए देख ही नही सकता था। सारे इंतज़ाम वो पहले ही कर चुका था। लेकिन उसके हाथ में कुछ आ ही नही रहा था। पूजा ने यूसुफ़ से आख़री बार कोई बात नही की। बीतता हुआ हर लम्हा यूसुफ़ को और बेचैन कर रहा था साथ ही पूजा से बात ना हो पाने का दुख भी उसकी बेचैनी को और बढ़ा रहा था। यहाँ पूजा की उस सहेली ने भी यूसुफ़ का साथ देने से मना कर दिया जो दोनों की बातें एक-दूसरे तक पहुँचाया करती थी। देखते ही देखते पूजा की शादी का दिन आगया।</span></div>
<div dir="ltr" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> उस दिन सुबह जल्दी ही यूसुफ़ घर से निकल गया। पर कहीं गया नही। यहीं सदर बाज़ार की गलियों में भटकता रहा। फ़ोन पर फ़ोन करने का भी कोई फायदा नही होता। पूजा वो फ़ोन बन्द कर चुकी थी। अब उसके पास कुछ नही था। वो एकदम ख़ाली हो गया था। जो डर उसके मन में कई सालों से बना हुआ था वही आज सच हो गया। पूजा अब उसकी नही हुई। वो एकदम चुप हो गया, कुछ बोला नही, दोस्तों से भी नही। शाम को घर पहुँचा तब पूजा की सहेली ने बताया कि पूजा ने ज़हर पी लिया।</span></div>
<div dir="ltr" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> आज यूसुफ़ को नही पता पूजा कहाँ है। वो नही जानता कि उसकी शादी हुई या नही। उसे बस इतना ही पता चला कि पूजा ने ज़हर पिया था। लेकिन उस दिन शादी भी हुई थी, वो कौन थी जो फेरों पर बैठी थी? मुझे भी नही पता आज पूजा ज़िंदा है या नही, मैं बस इतना जानता हूँ कि कभी यूसुफ़ उसे बहुत प्यार करता था, शायद आज भी करता हो। लेकिन अब कभी पूजा का कोई ज़िक्र यूसुफ़ की ज़बान पर नही आता। उसकी सहेली भी सारे राज़ अपने सीने में जमाए बैठी है। वो भी अब यूसुफ़ को मिलती नही। सब अचानक से बंद हो गया एक दरवाज़े की तरह। पर अब भी कभी मुझे फ़ोन पर पूजा से की गई वो बातें याद आजाती है तो लगता है कल ही कि बात है। मुझे एक बार तो उससे मिलना ही चाहिए था क्योंकि वो यूसुफ़ की प्रेमिका थी और यूसुफ़ मेरा पात्र।</span></div>
<div dir="ltr" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="ltr" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><i>देवेश, 23 नवम्बर 2017</i></span></div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-45223684358404804402017-12-01T21:28:00.000+05:302018-03-06T18:52:26.339+05:30तस्वीरों में कहना<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEilpQ5B35Dfz2IgNen1FzyQuhmoo0QXGoKXcj-Qi7dRL33La6AskmBvxZieKwgtsItNmTj-oc-VDp4bD3cEL6q4sS8nOSJ3KjHVdcPemdnBmMB6tDfCfiq7xvNbDf-Us6aCLa-Tb11QnKY/s1600/FB_IMG_1512143060402.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: justify;"><img border="0" data-original-height="1458" data-original-width="1458" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEilpQ5B35Dfz2IgNen1FzyQuhmoo0QXGoKXcj-Qi7dRL33La6AskmBvxZieKwgtsItNmTj-oc-VDp4bD3cEL6q4sS8nOSJ3KjHVdcPemdnBmMB6tDfCfiq7xvNbDf-Us6aCLa-Tb11QnKY/s320/FB_IMG_1512143060402.jpg" width="320" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span style="font-family: sans-serif;">वहाँ बार-बार कुछ कह देने की इच्छा है। लेकिन किसी को कुछ बता देने का दावा नही। कहना सिर्फ शब्दों से ही थोड़ी होता है। तस्वीरें भी कहती हैं, जितना वो कह पाती हैं। यहाँ गाँव की तस्वीरों को इस तरह डालना भी कुछ कहता है। ये दूरी को एकदम से पाट देने जैसा है। मैंने कभी बहराइच नही देखा, कभी देख पाऊंगा या नही कुछ पता नही, लेकिन तस्वीरों से मुझे ये तो पता चल रहा है कि वो अब बदल रहा है। बदलना तो नियति है ही लेकिन इस तरह की आधुनिकता में बदलना नियति हो जाएगी इसका अंदाज़ा भी किसी ने कभी लगाया ही होगा। सर ने कहा इन्हें इस तरह यहाँ लगा देना और इस तरह लिख देना फिज़ूल है। लेकिन मैं ऐसा नही मानता। यहाँ बात </span><span style="font-family: sans-serif;">जहाँ तक निरर्थकता की है तो यह बात साफ है कि हर बात हर किसी के लिए समान महत्व नही रखती उसमें भी एक अंतर यहाँ हो जाता है कि महत्व देने के पीछे कारण क्या है। यही कारण ही महत्व निर्धारित करते हैं। उनके इस तरह तस्वीरों के माध्यम से कहने में कहे जाने से अलग एक मौन भी है, जहाँ कहे जाने के पीछे एक कहानी बताने की इच्छा है। लेकिन कहा गया खुलेगा तब जब आप कहने वाले को समझते हों।</span></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> इन तस्वीरों को इस तरह लेना एक समय को समेट लेने की कोशिश भी है और बेचैनी भी और इसी समय में आधुनिकता को विचारता हुआ एक शोधार्थी भी है जो तस्वीरों की अपनी अलग दुनिया गढ़ रहा है, नज़र भी उसकी अपनी है। नज़र का इस प्रकार बने जाने में भी उसकी ही मेहनत है। हम सभी इस तरह सबकुछ समेट लेने की इच्छाओं से भर जाते हैं, थोड़ा बहुत समेट भी लेते हैं लेकिन धीरे-धीरे वह सब स्मृति से रिसरिसकर खो जाता है। इन डिजिटल तस्वीरों में रिसने जैसा कुछ नही होता ये धीरे-धीरे नही जाती अचानक खो जाती हैं और हम उन्हें ढूंढते रह जाते हैं।</span></div>
</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
<i><span style="font-size: large;"><br /></span></i></div>
</div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
<i><span style="font-size: large;">देवेश, 1 दिसम्बर 2017</span></i></div>
</div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-40673516069751453822017-11-13T20:23:00.002+05:302017-12-19T15:34:43.337+05:30बेचैनी का कवि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLA1Qclzw4-kMYFVJrt_S_Zr_7Zo2f7q6W_-lOd2HVPz8pRUx8uMMGqqkJycw5gDiO08_6n1UWWiZNF2otFtUt4mpJ-TWxRYiTG3k_4XFJERI9KyCiEHXi5bnCIYN4zI9eB3SkGBKpHUM/s1600/images+%25281%2529.jpeg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="251" data-original-width="201" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhLA1Qclzw4-kMYFVJrt_S_Zr_7Zo2f7q6W_-lOd2HVPz8pRUx8uMMGqqkJycw5gDiO08_6n1UWWiZNF2otFtUt4mpJ-TWxRYiTG3k_4XFJERI9KyCiEHXi5bnCIYN4zI9eB3SkGBKpHUM/s320/images+%25281%2529.jpeg" width="256" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><span style="font-family: sans-serif;">आज उनका जन्मदिन है। आज वो पूरे सौ बरस के हो जाते। उम्र बहुत अधिक नही थी जब वे गुज़र गए। उनका जाना दिखने में बिल्कुल एक सामान्य इनसान के जाने जैसा ही था। तब उन्हें इतना कोई जानता भी नही था, और जो जानते भी थे उनमें से अधिकतर को उनकी कोई परवाह भी नही थी। पर सब ये जानते थे कि ये जो बीमार बिस्तर पर पड़ा है ये कवि भी है। सब ये मानते थे कि ये जो कविताएं करता है वो किसी को समझ नही आती इसलिए ना पढ़ने से कोई नुकसान नही। </span></span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="font-family: sans-serif;"> ये व्यक्ति जो बिस्तर पर लेटा हुआ था इसे इन सब बातों से कोई फर्क नही पड़ा, वह लिखता रहा अपनी तरह से और उलझता रहा उन सब बातों में जिन बातों से किसी को कोई फर्क नही पड़ता। अब इन्हें मर जाने का भी कोई ग़म नही, जिन बेचैनियों में ये तड़पे वह सब ये कह चुके हैं। जो मर गया वह केवल शरीर था कवि मरा नही, ये कवि मरेगा नही। इस कवि ने रोशनियों के बजाए अंधेरे को बुनना चुना। इन्होंने चुना धरती की खोहों में दुबके रहस्य के उजागर को। असली और नकली के भेद के पार इन दोनों को मिलाकर इन्होंने एक अलग संसार रचा जिसमें छायावाद जैसा रहस्यवाद भले ही लगे लेकिन वैसी कोमलता कतई नही है। जितना उबड़-खाबड़ इन्होंने देखा-सहा इतना ही खुरदुरा कहा भी। </span></span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="font-family: sans-serif;"> मैं हमेशा इनकी उम्र का अंदाज़ा लगता था और सोचता था कि शायद इन्हें कभी देख पाता, निराला के बारे में भी मैं यही सोचता हूँ, लेकिन मैं जानता हूँ कि मैं देख भी लेता तो कोई बड़ी घटना नही होती। तब बस 'छायास्मृति' जैसा ही कुछ लिख दिया होता। कवि कैसा है ये हमें कवि को मिलकर कभी पता नही चल सकता, कवि कि गहराई का रास्ता केवल उसकी कविता से होकर जाता है। और कवि मौलिक रूप से केवल अपनी कविता में ही बच पाता है। लेकिन ये अच्छी बात है कि इस कवि को हमनें कम से कम मरने से पहले पहचान लिया और ये माना कि ये बड़ा कवि है। जिनपर ठप्पा नही लग पाता उनकी बात यहाँ करना अप्रासंगिक होगा</span><span style="font-family: sans-serif;">।</span></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> जन्मदिवस पर मृत्यु को याद करना पता नही ठीक है या नही पर इसे ऐसे ही कहा जाना था। ये समय भी मृत्यु से कम नही। इस समय में ज़रूरी है कि हम मुक्तिबोध की कविताओं को पढ़े और महसूस करें कि हम अभी भी मरे नही हैं। एक बेचैन करने वाला कवि यहाँ तक बेचैन कर देने वाला कि कोई लड़का उनकी किताबों को अपने कमरे से बाहर कर दे, सदियों में एक होता है। मुक्ति के लिए छटपटाहट को बढ़ा देने वाले कवि मुक्तिबोध को नमन।</span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif; text-align: justify;">
<i><span style="font-size: large;">देवेश, 13 नवम्बर 2017</span></i></div>
</div>
देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-88638179033154969732017-10-15T22:33:00.000+05:302017-10-15T22:33:11.229+05:30उसकी कहानी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzigxvzwYmLjoU-OnXtz5KNU8in4F0PADCijnUF7rlnulDBI5fiJXCQlk1EPnvR2HFDHJMa-89Hf9cr0srnQbXNalYc-ut2pAJRbBo8dPLbLqSVcSuxdkPCFaACzpZr2IMoWnt2TAiutE/s1600/fdc2e0eda4fb3962fe5b3706f8f70c61.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="983" data-original-width="655" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgzigxvzwYmLjoU-OnXtz5KNU8in4F0PADCijnUF7rlnulDBI5fiJXCQlk1EPnvR2HFDHJMa-89Hf9cr0srnQbXNalYc-ut2pAJRbBo8dPLbLqSVcSuxdkPCFaACzpZr2IMoWnt2TAiutE/s320/fdc2e0eda4fb3962fe5b3706f8f70c61.jpg" width="213" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: sans-serif; font-size: large;">पता नही उन दिनों वो क्या सोचता रहा होगा जब वो अस्पताल में भर्ती था।अब तक तो कभी सोचा भी नही होगा कि एक दिन इस तरह फूले हुए पैरों समेत वो अपने को सरकारी अस्पताल के उस खचाखच भरे वार्ड में पाएगा। भारी आँखों और बोझिल होती आवाज़ से कुछ कहने की नाक़ाम कोशिश करता हुआ वह कितना असहाय महसूस कर रहा होगा। वो ज़िन्दगी में कितना बेफिक्र था। पता नही उसे अपने बीवी बच्चों की कोई चिंता थी भी या नही। अस्पताल में भर्ती करने वाले फॉर्म में उसकी उम्र शायद सत्ताईस वर्ष चढ़ी होगी। शादी को अब लगभग तीन साल हो रहे होंगे। अब वो एक बच्चे का बाप भी है। लेकिन अब भी वो खुद को एक लड़का ही मानता है। पिछले पंद्रह अगस्त को किस तरह उसे चालाकी से हमारी पतंग ले ली थी। तब से उसकी तरफ देखने का मेरा नज़रिया एकाएक बदल गया। पड़ोसी तो वह था पर कभी ना तो मदद की और ना शायद मांगी। उसकी बारात सुबह-सुबह गई थी उस दिन बड़ा सुंदर लग रहा था। तब वो काम नही करता था हाँ कभी-कभी अपनी माँ की रेहड़ी पर खड़ा हो जाया करता था, गुटखा भी खाता था और शायद तब शराब भी पीता होगा। पता नही वो क्या परिस्थितियाँ रही होंगी जब उसकी शादी का फैंसला लिया गया होगा। हालांकि ज़िम्मेदारियाँ उठाने के क़ाबिल वो था नही। समाज इसी तरह हमारे विचार गढ़ता है कि अगर लड़का नाकारा है तो उसकी शादी कर दो तो सब ठीक हो जाएगा। इससे अगर किसी लड़की की ज़िंदगी हलकान हो तो हो। हो भी गई। अपनी माँ की हर बात को वो अनसुना करता रहा, कभी टिककर काम नही किया। और अब अस्पताल में पड़ा वो सब याद कर रहा है। </span></div>
<div dir="auto" style="font-family: sans-serif;">
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-size: large;"> ज़रा देर बाद आँखों के आगे एक चकरी सी घूमी होगी। दिखाई दिए होंगे पापा, दादी, चाचा। बचपन की सभी छवियाँ घूम गईं होंगी। और तब शायद अपनी हालत पर दुःख और पश्चाताप भी हुआ होगा। पर अब कोई फायदा नही। वो कहने की कोशिश भी कर रहा है तो मुँह नही खुल रहा। पैर भी महसूस नही हो रहे लग रहा है जैसे धंसा जा रहा है। बेतहाशा आँसू बह रहे हैं।</span></div>
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<span style="font-size: large;"> उसकी बीवी की उम्र उससे कम है। उसके साथ उसका ससुराल पक्ष है पर वो नही रहा जिसके साथ शादीकर यहाँ आई थी। अब केवल वो बच्चा बचा है जिसके सहारे वो अपनी ज़िंदगी गुज़ारने की कोशिश करेगी वो। समझ नही पाता कि उसका बच्चा उसके जीवन की कैसी कहानी सुनेगा। वो अपने बच्चे के सामने उसके पिता को कैसा रचेगी। किन बातों को वो छुपाएगी और किन्हें चाव से बताएगी। </span><br />
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<span style="font-size: large;"><i>देवेश, 15 अक्टूबर 2017</i></span></div>
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देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2729581601532184158.post-46149791595111361182017-09-21T00:19:00.000+05:302017-09-22T21:10:17.970+05:30बच्चा फंस गया<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKDB9kY4JeKCrRHwlOwcRpxeISLO2IC9LqBYGzFcaeUNQOqTr6hpIaDpAnh14Oln_WsK9dTwe7CXxGLMWEwrc4ucwTJq9auEdOTM0PcL1sV1bjCGd2OFxFhE-S0CGKEhGX-NRNsdijIX4/s1600/IMG_20170921_084225+%25281%2529.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="1057" height="290" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhKDB9kY4JeKCrRHwlOwcRpxeISLO2IC9LqBYGzFcaeUNQOqTr6hpIaDpAnh14Oln_WsK9dTwe7CXxGLMWEwrc4ucwTJq9auEdOTM0PcL1sV1bjCGd2OFxFhE-S0CGKEhGX-NRNsdijIX4/s320/IMG_20170921_084225+%25281%2529.jpg" width="320" /></a></div>
<span style="font-family: sans-serif; font-size: medium;">जैसे ही उसने मझे देखा वो एक क्षण अचानक रुक गया फिर एकदम जल्दी से बोल गया "आओ सर मसाज" वो उंगली से जिस तरफ इशारा कर रहा था वहाँ होटल के बेसमेंट में जाती सीढियां थी जिसपर पारदर्शी काँच का दरवाज़ा था लेकिन वो दरवाज़ा मसाज करवाते हुए महिलाओं और पुरुषों के चित्रों से ढका हुआ था। वह जिस संकोच और भावशून्य चेहरे के साथ रास्ते में आने-जाने वालों को टोक रहा था, उससे ये साफ पता चल रहा था कि ये लड़का यहाँ नया है और उसे ये काम भा नही रहा है। उम्र उसकी चौदह से सोलह साल रही होगी। दिल्ली का वह नही था अन्यथा वो इस जगह इस तरह नही होता। इसका कोई अंदाज़ा नही लगाया जा सकता कि वह कितना पढ़ा होगा। अगर वह पढ़ता ही तो यहाँ नही होता, पर इस बात का कोई दावा भी नही किया जा सकता। पता नही वो कौन सी परिस्थितियाँ रही होंगी जब उसे यूपी या बिहार से दिल्ली आना पड़ा होगा। ट्रेन की धुकधुकी के बीच ना जाने दिल्ली के कैसे-कैसे चित्र बने होंगे। पता नही उन चित्रों में इंडिया गेट के अलावा और कोई ईमारत बन भी पाई होगी या नही। इस सफ़र के बीच उसने कई सपने भी बुने होंगे, उन सपनों में उसके माँ-बाप की मौजूदगी रही होगी या नही ये तो वही जाने, मैं तो ये भी नही जानता कि उसके दिल्ली पहुँचने में उसके माँ- बाप का कितना हाथ रहा है। लेकिन बात यह है कि अब वो दिल्ली में है और बहुत उलझा हुआ है। मसाज पार्लर की तरफ इशारा करते हुए उसका मन कैसा-कैसा हो जाता होगा। उससे ज़्यादा अजीब उसे तब लगता होगा जब लोग उसे किसी अपराधी की नज़र से देखते हैं। उसका मन मेरे मन से कितना भिन्न होगा ना। मैं कभी वैसा महसूस नही कर पाऊंगा जैसा वो महसूस कर रहा है। कितना कुछ तो है जो कहा नही जा पा रहा। मैं उससे फिर कभी मिलूंगा तब कुछ कहूँगा नही बस चुपचाप उसके पास से गुज़र जाऊंगा, पर वो गुज़रना वहीं पर रुक जाने जैसा ही होगा।</span></div>
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<i>देवेश, 20 सितम्बर 2017 </i></div>
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देवेशhttp://www.blogger.com/profile/03354248069116231603noreply@blogger.com0