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खालीपन और बेचैनी

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इस बीच एक लंबा अंतराल आ गया है। कुछ लिखते नही बनता। कितनी ही कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं। कुछ महसूस ही नही होता। लगता है पत्थर हो गया हूँ। कुछ चुभता ही नही। लिखने के लिए पढ़ना ज़रूरी है, वो भी नही होता। बस अपने में ही रहते-रहते एक अजब सी ऊब हो गई है। इस ऊब का क्या इलाज है नही जानता। बस लगता है ये समय बीतता रहे धीरे-धीरे। अब वैसे बैठा भी नही जाता की बैठे-बैठे ही दिन निकाल दें। शाम होते ही कहीं दूर पैदल चलते चले जाने का मन होता है। इसके पीछे का कारण शायद बहुत कुछ पीछे छूट जाने का सदमा-सा भी हो सकता है और आगे की अनिश्चितता भी। पर एक बात जो समझ नही पा रहा हूँ वो ये की इससे निजात कैसे मिले। एक बेचैनी सी हैं। इस माहौल में मन में कुछ गुना भी नही जा रहा। किसी के लंबे लेख को देखकर हैरत सी होती है की इतना कोई कैसे लिख सकता है। ये सब लिखते हुए भी एक अजीब सा खालीपन पसरा हुआ है इसलिए न किसी को किसी से जोड़ पा रहा हूँ ना ही बड़े-बड़े शब्दों को ही लिख पा रहा हूँ। इस सब से निकलने की ज़िद भी है पर इसे छोड़ना भी गवारा नही। अब बताएं क्या किया जा सकता है? मैं कहता तो हूँ पर आवाज़ें टकराकर लौटती नही हैं लगता है जै

मैं नही जाऊँगा!

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मैं उन्हें कहूँगा समय ही नही मिलता, अभी मन नही या फिर परीक्षाओं की तैयारी कर रहा हूँ। तब दरअसल मेरी नज़रे ज़मीन में गहरी गड़ी होंगी और वहाँ आती-जाती गाड़ियों के हॉर्न ज़ोरों से मेरे अंदर बज रहे होंगे। बातों- बातों में कहीं घूम आने की बात आएगी और मैं उन्हें कह दूंगा 'अच्छा है कि आप घूमने गए हैं'। मेरा बस मन ही उड़ सकता है। मैं कहीं जाऊँगा नही। मैं बस यहीं रहूँगा। अब यहीं रहना है। अब तो अपनी दुनिया को फिर से बनाना होगा। अब की तरह। हो सकता है रास्तों में भी बदलाव हो। पता नही बस कौन सी होगी, कौन सा रुट होग। गंतव्य क्या होगा। शुरू-शुरू में आदत नही जाएगी, मैं वहीँ स्टैंड पर खड़ा हो जाऊंगा अपने दायीं और मुँह किये। फिर याद आने पर रास्ता बदल लूंगा। मेरी उस नई दुनिया में मेरी पसंदीदा जगह कौन सी होगी? क्या तब भी पलाश मुझे उतना ही भाएगा? कौन अनजान लोग मेरे अपने हो जाएंगे? इन सब बातों को सोचते हुए एक शून्य नज़र आता है। अनगिनत गाड़ियां उस शून्य में घूमने लगती है ज़रा देर बाद सब खो जाता है। उस गहरे शून्य में से नदी, पहाड़, पक्षी, बर्फ, पोखर, मिट्टी, बादल, झरने, सड़कें सब एक-एक कर निकलते हैं और मेरी दुन