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सीक्रेट

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उस दिन कान में वो सीक्रेट बात कहते हुए उसके कितना करीब आगई थी वो। कितना अलग लग रहा था उसे। पहले कभी वो किसी के इतना करीब नही आई थी। उसने सोचा ही नही था कि वो कभी अपने घर से इस समय बाहर आ भी पाएगी। सात बज रहे थे पर दोनों को घर की ज़रा भी याद नही आ रही थी। ठंड भी तो थी, एक अजीब सी ख़ुश्बू आ रही थी उस ठंडी हवा में घुलकर, उसने कभी नही सूँघा था, उस ख़ुश्बू को। शाम ज़रा और ठहर जाती तो वो उस फूल को भी ढूंढ निकालती। सुबह अपने बालों के छल्ले बनाकर आई थी वो, अब वो छल्ले वो ख़ुद खोल चुकी थी। कब से आज के दिन का इंतज़ार कर रही थी वो पर इतनी जल्दी शाम हो गई। उसका मन हुआ काश वो किसी एक शाम किसी फुटपाथ पर बैठकर यूँ ही उससे बातें करती रहे। वो शाम शायद ही कभी आ पाए। उसे हर शाम क्यों घर लौटना होता है? उसे भले ही महसूस हो रहा हो कि उसे उससे प्यार है पर वो क़ुबूल ही नही कर रही थी, करे भी कैसे?  वो कुछ कहता ही नही. बस चुपचाप उसकी चपर-चपर सुनता रहता है। कितना..? डेढ़ साल तो हो गया होगा उनकी दोस्ती को, वो कभी इस क़दर खुलता ही नही की उसको समझा जा सके। कभी-कभी उसे लगने लगता है कि उसकी चपर-चपर की वजह से ही वो बोल

ज़िन्दगी में

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तस्वीरों को हम जितना देख कर समझ पाते हैं उतना महसूस नही करते। हम बस देखते हैं उतना जितना दिख रहा होता है। तस्वीरों के पीछे की कहानी हमें कभी पता नही चलती। अगर कोई हमें बता दे की उस दिन फलाने की शादी में चच्चा आखिरी बार तस्वीर में कैद हुए थे, जब रमेश ने चाची के साथ उनकी फ़ोटो खेंचने को कहा तो चाची शरमा गईं थी। चच्चा को भी नही पता था की इसी तस्वीर को कभी उनका पोता दिवाली की सफाई करते-करते कूड़ेदान में सरका देगा। उस शादी में ना जाने कितनी तस्वीरें निकाली गई होंगी। आज उन तस्वीरों में दिखने वाले आधे लोग गुज़र चुके हैं। वीडियो में नाचती लड़कियाँ अब तीन-तीन बच्चों की माँ बन चुकी हैं। उनके घुटने अब दुखने लगे हैं।  ज़िन्दगी एक तस्वीर की तरह नही होती, एल्बम की तरह होती है। लेकिन ज़िन्दगी को होना चाहिए शादी वाले घर की तरह, जहां हँसी-मज़ाक, मनमुटाव, लड़ाई-झगड़ा, शोर-शराबा सब होता है। इन सभी की आवाज़ तस्वीरों में होती है बस सुनने के लिए कान चाहिए होते हैं। मैं ये दावा नही करता कि वो कान मेरे पास हैं। पर होने चाहिए। वो कान उगाने पड़ेंगे। समय पर उग भी जाएंगे। तुम जानो तुम्हारे पास वो कान और आँखें हैं कि

यूपीएससी और आँसू

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वे दोनों तब एक दूसरे को जानते भी नही थे जब उन्हें समझा दिया गया था कि तुम्हे ग्रेजुएशन के बाद यूपीएससी करना है। कॉलेज में दाखिले के बाद दोनों कब नज़दीक आ गए पता भी नही चला। दो साल किसी हिट फ़िल्म के शो की तरह निकल गए। तीसरे साल में दोनों को मुखर्जी नगर के कोचिंग सेंटरों के नाम याद आने लगे। नार्थ कैंपस उनका दूसरा घर था। ऋषि ने घर कह दिया था की अब तभी आऊंगा जब प्री क्लियर हो जाएगा। स्नेहा का मन धीरे-धीरे यूपीएससी से हटकर ऋषि पर केंद्रित होने लगा। लास्ट सेमेस्टर चुपके से आ गया। ऋषि को अब अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना था। एक दिन उसने कह दिया "स्नेहा मुझे अब पढ़ाई पर फोकस करना है, अब हम और साथ नही रह पाएंगे।"                              दो साल हो गए अब भी ऋषि का प्री क्लियर नही हुआ। आज अचानक स्नेहा ज़ार-ज़ार रोने लगी। उसे लगा की ज़िन्दगी ने उसे धोख़ा दिया है। उसका मन अब पढ़ाई में नही लगता। ऋषि का जूनून अब सर चढ़ने लगा है। चश्मा भी चढ़ गया। अब वो आर्ट्स फैकल्टी भी नही आते। दोनों ने साथ में कोचिंग सेंटर में दाखिला लिया था.. पर ऋषि ने अपना कोचिंग चेंज कर लिया। उनका प्यार भी यूपीएससी की भेंट चढ़

ढूंढना

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मैं उन किताबों में हूँ ही नही जिनमे तुम मुझे ढूंढ रहे हो। उन किताबों में कुछ ऐसा है ही नही जिसे पढ़ा जाए। सब कुछ तो किसी और का है। वो कथा भी हमारी नही। हमारी कथा कोई लिखेगा भी नही। मैं उस सफ़ेद कमरे में भी नही हूँ जहां मैं हफ्ते के सोलह घंटे गुज़ारा करता था। अब वहां जाने का मन भी नही होता। खुद को भूलकर देखो कभी। वो सोलह घंटे तुम खुद को ढूंढ भी सकते थे..  शायद तुम खुद को खोज लेते, तभी तो खुद को पहचान पाओगे। यहाँ तो समझ ही नही आ रहा कि कहाँ से जड़ें शुरू हैं और कहाँ से पत्तियाँ खत्म। ये समय बड़ा मुश्किल है। कोई बात नही, अभी ठहर जाओ थोड़ा। सोच लो तुम कहाँ हो। जगह को एक बार समझ लो फिर ढूंढो मुझे आराम से। समय वैसे कम ही है, संभावनाओं का कुछ पता नही। पर तुम पर यक़ीन है कि तुम ढूंढ लोगे मुझे। शुरुआत और अंत सब हमारे हाथ में ही है। जन्म और मृत्यु कभी शुरुआत और अंत नही हो सकते। मृत्यु के बाद भी हम खुद को ढूंढ सकते हैं, दूसरों में, उनकी बातों और यादों में। जीते जी मुझको ढूंढना अजीब सा है। खैर.. तुम ढूंढना मुझे कैंपस के दायरों के बाहर, मैं वहां हो सकता हूँ। देवेश, 4 नवम्बर  2016

कुछ ख़ास नही

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ट्रेन में बैठकर हमने न जाने कितने ही पुल पार किये, कितने जिन्हें हम जानते भी नही थे। जिनकी बनावट हमारी समझ के बाहर थी। हम बस उन गुफाओं से गुज़र रहे थे। उस अँधेरे में जहां हाथ को हाथ भी नही सूझता हम खुद को पहचानने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। अंतिम कोशिश शायद बेमन से की थी, धीरे-धीरे आंतरिक दबाव कम होता गया। एक अजीब सा सुकून उस अनजानेपन में। अनजानेपन में एक तरह की जिज्ञासा होती है, जिज्ञासा प्रकट ना करो तो हम स्वयं अपनी समझ बनाने लगते है। उस यात्रा के अंत तक हम किसी से कुछ नही बोले ना कुछ ग्रहण ही किया। हम बस खोए रहे अपनी-अपनी दुनिया में, अपने को समझते। मैंने उन्हें नही पहचाना, पर वो मुझे जानते थे। हम जहाँ जा रहे थे वहाँ भी कुछ ख़ास नही था, निरुद्देश्य चलते जाना ही मेरा मक़सद था उस वक़्त। अब उसे सोचता हूँ तो हँसता हूँ, कुछ परेशान भी होता हूँ। वो सपने की दुनिया जैसा था जिसमे हम किसी रथ पर सवार होकर हवाओं पर उड़ते जाते हैं विज्ञान के सभी नियमों से परे। इतनी उमनुक्तता तो ईश्वर भी नही दे सकता जितनी उन्मुक्तता उस दिन में थी। वो सफ़र असल में हुआ ही नही होगा। वो भी कोरी कल्पना ही रहा होगा। जिसमें तय

चाय, कुर्सी, मैं

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मुझे अगर यहाँ कुर्सी, एक टेबल और एक कप चाय मिल गई होती तो कितना अच्छा होता... मैं यहीं गार्डन में बैठ जाता। इस गार्डन के दोनों और बड़े-बड़े दो आलीशान होटल हैं। जिन्हें हमेशा ही बाहर से देखा है। और जहाँ मैं अभी हूँ वहाँ भी पहली ही बार आया हूँ। ये ईमारत नेताओं के बँगले जैसी है। मुझे बस इसका गार्डन पसंद आया और बाहर का मौसम, बादल, हल्की फुहार और पेड़-पौधों की ख़ुशबू। भीड़ के लायक ये जगह नही है इसलिए भीड़ है भी नही। एक अजीब सा सुकून है इधर। इसकी खोज में कोई पूरी दिल्ली का चक्कर भी लगा सकता है। यहाँ तक पहुँचने में जो ख़ुशी मिली उसे मैं कह नही सकता। अकेले होते हुए भी जैसे किसी का साथ हो। मुझे जो कुछ पसंद है वो सब यहाँ है। अकेले होने पर भी आप अकेले नही होते तब आप दो हो जाते हैं ये बात मैं पहले भी कह चूका हूँ। बहरहाल, ये फुहार ही मौसम को ख़ुशनुमा बना नही है नही तो धूप में तो मैं जल जाता। यहाँ से इंडिया गेट पास में ही है, अभी शाम हो गई वहां कितनी भीड़ होगी। कितने लोग उसे देख रहे होंगे पर मैं वहां नही हूँ। मैं यहीं हूँ इस गार्डन में। इन बातों को अब कहने का कोई मतलब भी है। जब ये सब लिखा था तब सब कुछ और ह

तुम्हारी मेरी बातें

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क्या शाम थी न वो। साथ वाले कॉलेज में शंकर महादेवन गा रहे थे। हल्की-हल्की ठंडी थी हवा। मुझे आज अचानक वो दिन याद आ गया। उस वक़्त मैं जो महसूस कर रहा था, अब कभी नही कर पाउँगा। चाह कर भी नही। तब हम इतने बड़े नही हुए थे। समय इतना बंधा हुआ नही था। हम जितनी देर चाहें कॉलेज में बैठे रह सकते थे। अब वैसा नही होगा। न तुम्हे समय है ना मुझे। अब तुम्हे मुम्बई भी तो जाना है। तब तो तुम दो साल तक पता नही मिल भी पाओगी या नही। फिर हमारा मिलना भी मुसलसल कम होता रहेगा। किसी और दिन भी उस दिन को याद करके मेरी आँखें भर आएंगी। अब हम वैसे बातें नही कर पाएंगे जैसे तब किया करते थे। लाख संकोच होने पर भी मैंने इतनी लंबी-लंबी बातें की थी। बातों के अलावा और क्या होता है जो रह जाता है। हम रहें ना रहें वो बातें गूंजती रहेंगी वहीं हमेशा। जब भी फिर मैं वहां जाऊँगा वो मेरे अंदर भर जाएंगी। मेरे अंदर भी वो गूंजेंगी। मुझे पता है आजकल मैं बदला-बदला सा लगता हूँ। फिर मिलना कभी तुम्हारे पास समय हो तो, बहुत सी बातें जमा है। देवेश, 9 अक्टूबर 2016

मैं वैसा क्यों लिखूँ...?

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मैं क्यों लिखूं? मेरा लिखा तुम्हे कभी पसंद आएगा ही नही। मेरा कहा बड़ा सतही सा लगता होगा तुम्हें। उसमे वो बुनावट नही होती। सारी बातें बस ख़यालों में चलती रहती है। बातें बादलों की तरह बदलती रहती है। सच कहूँ लिखते हुए मैं कुछ सोचता नही बस लिख देता हूँ। इसमें ना कोई नीति है ना कोई प्लान मैं बस लिख रहा हूँ। हाँ कभी-कभी लिखते हुए कोई मेरे सामने ज़रूर होता है जिसे मैं ये सब सुना रहा होता हूँ, पर न तो उसका चेहरा है ना मुंह। लिखने से मन सिर्फ ख़ाली नही होता भरता भी है। यही भारीपन तो सूत्र की तरह एक से दूसरी लिखावट को जोड़े रखता है। मैं यहाँ जितना अपने लिए लिखता हूँ उतना तुम्हारे लिए भी, लिखने वाले के लिए अगर वो अस्पष्ट चेहरा ज़रूरी न होता तो क्यों हमारे उस्ताद अपनी भाषा में परिवर्तन क्यों लाते? इसलिए हर लिखने वाले के लिए उसका लिखा पसंद किया जाना महत्व रखता है।                                     तो मुझे कैसा लिखना चाहिए? जो तुम्हे पसंद आए या जो मुझे सहज हो। अगर मैं तुम्हारी पसंद का लिखते हुए वो कह ही न पाऊं जिसको कहने के लिए मैंने लिखना शुरू किया, तो इस सब का क्या फायदा। और अगर ज़्यादा कलात्मकता

एकांत की चाह

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अभी शाम क्यों हो गई? इसे अभी शाम नही होना था। इसे होना था बादलों से भरी दोपहर। जिसमे ज़रा भी धूप न हो। एक अँधेरी दोपहर। और मुझे इस झुण्ड से परे होना था, एकदम एकांत में। जहां मैं बारिश में भीग ना पाऊं और बैठा रहूँ उस बड़ी सी खिड़की पर जिसमें से मैं दूर पहाड़ों को देख पाऊं। अब इन्ही दीवारों को देखकर मन ऊब चुका है। ये एक खोल सी मेरे चारों और बनी हुई है। संभाल कर रखी बचपन की तस्वीरों में खुद को देखकर हैरत सी होती है। उस दिन हम मेले में गए थे। कन्धों पर बैठकर। तब हम जानते ही नही थे गुरुत्वाकर्षण क्या होता है। कि ऊपर उठने पर भी वो हमें नीचे खींचता रहता है। गुरुत्वाकर्षण सोची समझी साज़िश है। और बाक़ी सभी बंधनों का ये एक हिस्सा भर है। कभी-कभी कल्पना करता हूँ कि मैं छत पर अकेला हूँ, दूर तक कोई नही है। मैं जल्दी सीढियाँ उतरकर भागता हूँ पर किसी घर में कोई नही है। ये सब भी उसी अँधेरी दोपहर में घट रहा होता है। मेरी बेचैनी हर पल बढ़ती जाती है। चारों तरफ धूल और सूखे पत्ते हैं अन्धकार और नीरवता भी। मैं बस भाग रहा हूँ, भागता जा रहा हूँ पर कहीं पहुँच नही रहा। जब रास्ते का मुहाना आता है तब देखता हूँ की उसे

मरवा के पौधे सी

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मैं कुछ लिख दूँ  उसके लिए जिससे मैं अभी तक मिला नही। उसकी वो आदत जिससे मुझे चिढ़ होती है,और वो जिससे मुझे प्यार है।ये दोनों आदतें अगर उसमें ना हो तो शायद मैं उसे पहचान भी न पाऊं। उसका चेहरा उस पर खिंचती दो टेढ़ी रेखाएँ और सिरों पर से मुड़ते उसके भूरे बाल। छोड़ो... मैं अभी वो चेहरा नही बनाऊंगा। तुम अभी वो सारी बातें भूल जाओ जो मैंने ऊपर लिखी हैं। ठहरो मैं अभी रुक जाऊं और बंद करदूं सोचना। अभी यहाँ उसके बारे में नही कहूँगा जिसे मैं मिला नही। उसके मिल जाने पर भी क्या होगा। मैं उसके साथ रहूँगा नही। तुम इस बात को इसी तरह समझना जैसे समझते आए हो। इस कहानी में भी कुछ नया नही है। ये कहानी अगर एक पौधा होती तो ये जरूर मरवा का पौधा होता। जिसके होने न होने से किसी को कोई फ़र्क नही पड़ता। उसकी मादक महक भी दूर तक नही जाती। और इसमें कोई ऐसा आकर्षण भी नही कि कोई खिंचा चला आए।जूते के तसमों को बाँधते हुए शायद ये कहानी मुझमे घुलती रहे और मैं बस ज़रा सा हँस दूँ। गर्मी में जूते पहने रहना भी बड़ी मुश्किल का काम है। क्योंकि ये गर्मी का मौसम है। उमस को अंदर बनाए रखने का कोई तुक नही। बाहर बादल आते हैं जाते हैं पर बरसत

फैसले की घड़ी में

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कभी सोचा नही था कि मेरी ज़िन्दगी में भी एक ऐसा समय आएगा जब खुद को इतना उलझा हुआ पाउँगा। बचपन में किसी विषय की गहराई का पता नही होता, तब सब एक खेल जैसा लगता है। तब लगता था की काश बिना पढ़े ही मैं बड़ा हो जाऊं। मोटी-मोटी किताबें देखकर तब भय होता था। आज जब मैं ग्रेजुएट हो चुका हूँ तो एकाएक भविष्य जैसे धुंधला गया है। अभी कुछ समय पहले तक सब स्पष्ट था। अब सारी चीजें एक दूसरे में घुल रही है, सारे विचार, योजनाएं, दावे, आशाएँ, संभावनाएं। अब जैसे सारी योजनाओं के आगे एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। इसका उत्तर मुझसे बनता ही नही। मैं क्या करूँ? इस सब में मैं खुद को अकेला महसूस नही कर रहा, मेरे साथ एक पूरी पीढ़ी है जो अभी इसी वक़्त इन्ही सवालों से जूझ रही है। इस सब से पार पाना जितना कठिन है उतना आसान भी। सभी हमें कह देते हैं कि ये रास्ता सही है, ये गलत, इसमें ज़्यादा कठिनाई होगी या ये रास्ता ज़्यादा बेहतर रहेगा। उन सभी के सुझाए रास्तों पर चलने को हम तैयार भी हो जाएं तो। क्या हम चल भी पाएंगे? कहीं ऐसा तो नही की हम वो रास्ता कभी चुनना ही न चाहें। किसी सेमीनार में किसी ने कहा था कि सबसे पहले

जुड़ती-टूटती बातें और हमारा मन

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सुबह आँख खुलते ही फोन को खोजता हमारा हाथ अचानक उसे न पाकर रुक जाता है। और हम चौंक कर उठ जाते हैं। समय देखकर लगता है अभी तो सात ही बजे है बोहोत समय है सोने के लिए। चारदीवारी के अंदर हम ताज़ी हवा को न पाकर कुछ बेचैन तो होते है पर उसका कोई उपाए न पाकर बेशर्मों की तरह फिर सो जाते है। सवा ग्यारह बजे फिर आँख खुलती है। फ़ोन बज रहा है सब अपने अपने काम पर चले गए हैं घर में कोई नही अब फ़ोन हमें ही ढूढंना है। रात को फ़ोन भी करवटें लेता लेता कब पलंग के नीचे पहुँच गया उसे भी पता नही चला। फ़ोन सोता नही। फोन कभी सपने भी नही देखता। उसके अंदर पूरी दुनिया है पर प्राण नही। हम भी कभी फ़ोन हो जाएंगे। टाइम ज़्यादा हो गया सोचकर मजबूरी में एक ज़ोरदार अंगड़ाई लेकर उठ जाएंगे। उठ जाने पर भी कोई काम नही होगा बस यूँ ही घुमते रहेंगे अंदर अंदर। हमारे अंदर भी बाहर जैसा खुलापन होना चाहिए। पर वहां नियंत्रण हमारा होता है। सब हमारे लायक हमारा चाहा।  उन घटनाओं को दोबारा दोबारा घटाकर हम हज़ारों बार वही जीने की कोशिश करते हैं जो नही जी पाए। उस दिन की बात जब मैं सोच रहा हूँ कि अगर उस सामने खड़े लड़के से मैंने नाटक का समय पूछा हो

खालीपन और बेचैनी

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इस बीच एक लंबा अंतराल आ गया है। कुछ लिखते नही बनता। कितनी ही कोशिशें नाकाम हो चुकी हैं। कुछ महसूस ही नही होता। लगता है पत्थर हो गया हूँ। कुछ चुभता ही नही। लिखने के लिए पढ़ना ज़रूरी है, वो भी नही होता। बस अपने में ही रहते-रहते एक अजब सी ऊब हो गई है। इस ऊब का क्या इलाज है नही जानता। बस लगता है ये समय बीतता रहे धीरे-धीरे। अब वैसे बैठा भी नही जाता की बैठे-बैठे ही दिन निकाल दें। शाम होते ही कहीं दूर पैदल चलते चले जाने का मन होता है। इसके पीछे का कारण शायद बहुत कुछ पीछे छूट जाने का सदमा-सा भी हो सकता है और आगे की अनिश्चितता भी। पर एक बात जो समझ नही पा रहा हूँ वो ये की इससे निजात कैसे मिले। एक बेचैनी सी हैं। इस माहौल में मन में कुछ गुना भी नही जा रहा। किसी के लंबे लेख को देखकर हैरत सी होती है की इतना कोई कैसे लिख सकता है। ये सब लिखते हुए भी एक अजीब सा खालीपन पसरा हुआ है इसलिए न किसी को किसी से जोड़ पा रहा हूँ ना ही बड़े-बड़े शब्दों को ही लिख पा रहा हूँ। इस सब से निकलने की ज़िद भी है पर इसे छोड़ना भी गवारा नही। अब बताएं क्या किया जा सकता है? मैं कहता तो हूँ पर आवाज़ें टकराकर लौटती नही हैं लगता है जै

मैं नही जाऊँगा!

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मैं उन्हें कहूँगा समय ही नही मिलता, अभी मन नही या फिर परीक्षाओं की तैयारी कर रहा हूँ। तब दरअसल मेरी नज़रे ज़मीन में गहरी गड़ी होंगी और वहाँ आती-जाती गाड़ियों के हॉर्न ज़ोरों से मेरे अंदर बज रहे होंगे। बातों- बातों में कहीं घूम आने की बात आएगी और मैं उन्हें कह दूंगा 'अच्छा है कि आप घूमने गए हैं'। मेरा बस मन ही उड़ सकता है। मैं कहीं जाऊँगा नही। मैं बस यहीं रहूँगा। अब यहीं रहना है। अब तो अपनी दुनिया को फिर से बनाना होगा। अब की तरह। हो सकता है रास्तों में भी बदलाव हो। पता नही बस कौन सी होगी, कौन सा रुट होग। गंतव्य क्या होगा। शुरू-शुरू में आदत नही जाएगी, मैं वहीँ स्टैंड पर खड़ा हो जाऊंगा अपने दायीं और मुँह किये। फिर याद आने पर रास्ता बदल लूंगा। मेरी उस नई दुनिया में मेरी पसंदीदा जगह कौन सी होगी? क्या तब भी पलाश मुझे उतना ही भाएगा? कौन अनजान लोग मेरे अपने हो जाएंगे? इन सब बातों को सोचते हुए एक शून्य नज़र आता है। अनगिनत गाड़ियां उस शून्य में घूमने लगती है ज़रा देर बाद सब खो जाता है। उस गहरे शून्य में से नदी, पहाड़, पक्षी, बर्फ, पोखर, मिट्टी, बादल, झरने, सड़कें सब एक-एक कर निकलते हैं और मेरी दुन

मैं आपका अपना हूँ

आइये, इस कुर्सी पर बैठ जाइये। आराम से। हाँ। अब अपनी आँखे बंद कर लीजिये। आपको बस मेरी आवाज़ सुनाई दे रही है। मैं जो कहूँ उसे ध्यान से सुनिए। आप अपना शरीर ढीला छोड़ दीजिये। अब आपको नींद आ रही है, धीरे-धीरे। अब आप गहरी नींद में हैं। आप बस मेरी आवाज़ सुन रहे हैं। मैं जो कहूँ उस पर आप विश्वास करेंगे। उसपर कोई प्रश्न नही करेंगे। मैं जो कहूँ उसका कोई सुबूत नही मांगेंगे। मैं जो कहूँ वही सच है। मैं तुम्हारा अपना हूँ। मैंने अब तक तुम्हारे भले के लिए काम किया है और आगे भी करूँगा। जब उस वर्ष मुझ पर इल्ज़ाम लगा था, वो झूठा था। उसके बाद जितने भी इल्ज़ाम लगे वे भी मेरे विरोधियों की ईर्ष्या का ही नतीजा थे। मैंने सिर्फ और सिर्फ जनता की भलाई के लिए ही काम किया है। न मैंने कोई मुद्दे क्रिएट किये ना उन्हें दबाने के लिए कुछ नए मुद्दे बनवाए। मेरी पार्टी के सभी लोग भी बड़े राष्ट्रवादी है। लेकिन मेरे विरोधी... उनके बारे में आप ना ही सोचें तो बेहतर है। पर आपको उनमें से नही होना है। हमें राष्ट्रवादी होना है, हमें स्मार्ट होना है जो हम अब तक नही थे। अब हमें वही 1757 वाला बाज़ार होना है.. अरे नही नही, ये गलत

बुज़ुर्गों के साथ अतीत का सफर

शाम को जब सूरज ढल चुका था, तब पता नही क्या पर कुछ महसूस हो रहा था। तब किसी की याद भी नही आ रही थी। ना ही कोई असंतुष्टि ही थी। मैं बस अपने अंदर चुप हो रहा था। अंदर चुप होने का मतलब बाहर बोलना क़तई नही है। जब मैं अंदर से चुप होता हूँ तो मेरी आँखों की गति तेज़ हो जाती है। तब मैं तीन हो जाता हूँ एक जो बहार चुप है, दूजा जो भीतर चुप है और तीजा जो दिखने वाली वस्तुओं का सम्बन्ध आपस में जोड़कर नए-नए प्रयोग करने में लग जाता है। और ये सारी जोड़-तोड़ अंत में इस नतीजे पर पहुँचती है कि मैं उदास हूँ। अब भई उदास क्यों हूँ ? खोजते-खोजते भी इस खोज का अंतिम छोर नही मिल पा रहा है। हाँ एक कारण हो सकता है कि मैं बहुत थका हुआ हूँ। इस थकावट का कारण संभवतः कोई सफ़र रहा होगा। शायद बुज़ुर्गों के साथ पिछले दशकों में दौड़ आया होऊँ। पर बुज़ुर्ग कैसे दौड़ेंगे वे तो बुज़ुर्ग हैं? पर तब वो भी जवान हुआ करते थे। तब अगर मेट्रो होती तो वे कभी एक्सेलरेटर पर कदम तक नही रखते। तब उनके पिताजी दवाइयाँ ना ख़रीद पाने के कारण मरते नही। तब वो आसमान में उन्मुक्त भाव से उड़ जाते। पर तब इतना पैसा नही था।  पर इसका ये मतलब नही की उनके पास कुछ

तुम्हें सोचते हुए...

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... और जब तेरह तारीख़ को मैं तुम्हें सोच रहा होऊंगा तो मेरा खाली मन किसी खूबसूरत रंग से भर जाएगा, वही रंग जिसकी टी-शर्ट कुछ लड़कियों को लड़कों पर अच्छी नही लगती। पर मैं फिर भी तुम्हारे लिए हफ्ते में तीन बार वही टी-शर्ट पहनूंगा। उस दिन भी पहनूंगा। उस दिन हम एक दूसरे के हाथ में हाथ डालकर यूं ही किसी सड़क पर चलते चले जाएंगे। तब ना मैं कुछ कहूँगा ना तुम, हम बस एक दूसरे को सुनते रहेंगे। सुबह सवेरे मैं अपनी  गाड़ी  की पिछली सीट्स को उसी रंग के गुब्बारों से भर दूंगा। तुमसे मिलते ही सबसे पहले मैं तुम्हे ओरकेट्स का गुलदस्ता दूंगा फिर अपने हाथों से बनाया एक ग्रीटिंग कार्ड जिसे देखकर हम दोनों की आँखें भर जाएंगी। और तब मैं तुम्हारा चेहरा छूऊंगा, पहली बार। अचानक मैं एक चुटकुला कहूँगा और तुम उन्मुक्तता से हँसती रहोगी देर तक। और मैं तुम्हे देखता रहूंगा।फिर कुछ देर बाद हम एक-दूसरे का कन्धा हो जाएंगे। दोपहर की चुभन भरी धूप में आइसक्रीम खाते हुए तुम मुझसे एक गाने की फ़रमाइश करोगी तो मैं अपनी बेसुरी आवाज़ में कोई गाना गाऊँगा। उस गाने को सुनकर तुम ज़रा स्तब्ध सी हो जाओगी फिर ज़ोरदार ठहाका मारकर हँसती रहोगी। मै

साहित्यिक मूल्य और विद्यार्थी

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लिखना कभी भी आसान नही होता। भोगे हुए को फिर से कई बार भोगना पड़ता है। जीवन में जिन घटनाओं से नज़र बचाकर हम निकल जाते है, लिखने के दौरान हम खुद उसका हिसाब लेते हैं। तब हम कटघरे में खड़े होते है अपने ही सम्मुख। तब हमारी बातें सुनने वाला कोई नही होता, हमें खुद ही जूझना होता है। लेखक इसे इसी तरह भोगता होगा । ऐसा नही है कि जो लेखक नही वो इस स्थिति से अनभिज्ञ है। आम इंसान भी स्थितियों को ऐसे ही भोगता है परन्तु उसमे उतनी गहराई नही होती वह बस स्थितियों को ऊपर से छूकर ही छोड़ देता है जबकि लेखक जब तक तेह तक ना पहुँच जाए मानता नही। विषयों के आधार पर दृष्टिकोण भी परिवर्तित हो जाता है। किसी साहित्यिक रचना ख़ासकर गद्य रचना में हम समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, मनोविज्ञान, इतिहास, राजनीतिशास्त्र आदि खोज सकते हैं। लेखक रचना में इस सभी का संतुलन के साथ वर्णन करता है। मुक्तिबोध कला के जिन तीन क्षणों की बात कहते हैं, उसका दूसरा क्षण वही होता है जब हम घटना को अपने अंदर घोटते हैं, उसे परत दर परत समझते हैं। उसके बाद अपने लेखन की विशेष शैली के द्वारा इस तरह लिखते है कि वो रचना समाज का साफ़ आईना होने के साथ

मनुष्य होने की निशानियाँ

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।   हम हमेशा अपने अंदर रहते है.घूमते उलझते चुनते और छोड़ते। हमारे अंदर जो दुनिया है वह असल में इस भौतिक दुनिया का प्रतिबिम्ब मात्र है जिसे हम अपनी सुविधा के अनुसार मोड़ते तोड़ते और बनाते रहते है।हम इस भौतिक दुनिया को छू सकते है,पर अपने मन के अंदर की दुनिया को हम सिर्फ देख और महसूस कर सकते है।उलझन चुनाव की ही समस्या है।अपने मन की दुनिया में हम वो नही चुनते जो हमारे लिए बेहतर है। वहाँ "बेहतर" की परिभाषा "मनपसंद" से बदल जाती है।इस भौतिक दुनिया में हम जैसे दिख रहे होते है अपने मन में हम ठीक उलट होते है,इसका कारण मनुष्य की मूल प्रकृति असंतुष्टि है।दोनों दुनियाओं को रेल की पटरियों सा चलाना मुश्किल है।ये दोनों दुनिया समानांतर चलने के साथ साथ ज़िग-ज़ैग़ होती है।हम चाहें न चाहें हमारी मानसिक दुनिया हमारी भौतिक दुनिया में हस्तक्षेप करती है।इन दोनों दुनियाओं को नियंत्रित करने वाला स्टेयरिंग व्हील हमारा विवेक ही होता है पर हम कम ही इन्हें नियंत्रित कर पाते है।यदि हम भौतिक दुनिया को ठीक-ठाक नियंत्रित करने की कोशिश भी करते हैं तो बाह्य परिस्थितियाँ उसपर अपना नकारात्

तब और अब हम

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अभी कुछ समय पहले ही छूटे थे हम। तब ख्वाबों में "स्मार्ट सिटी" नही थी। तब हमें मसरूफ़ होना था टूटे घरों से बची साबुत इंटों को निकालने में या फिर बसे बसाए घरों को छोड़ एक ऐसे स्थान पर जाने में जिनकी साफ़ छवि हमारे मन में बन ही नही पा रही थी। उसे हम किसी भी तरह घर वापसी नही कह सकते। तब हमारी स्मृतियों में उनके नाम अंकित हुए जो शहीद हुए थे।उस वक्त हम छूटने की ख़ुशी की अभिव्यक्ति के लिए फेसबुक पर स्टेटस नही डाल सकते थे। हम तैयारी कर रहे थे खुद को फिर से गढ़ने की, तब हमारे पास हमारा पूरा इतिहास और आधी विरासत बची थी और कुछ इंसानियत भी। आगे क्या होना था किसीको पता नही था बस इतनी खबर सुनी थी कि हम राष्ट्र बनने जा रहे है, जिसका अर्थ हमें नही पता था। फिर टोपियाँ बदलती रहीं और हमारे मत भी। इसी बीच हम नींद की आग़ोश में जाते रहे धीरे-धीरे, हम बस लगभग सौ साल जगे थे। फिर कभी-कभी साल में दो-तीन बार राष्ट्रीयता हमारे कानों में सुबह के अलार्म सी बजती रही और हम उसको ठोककर बंद करते रहे। छूटने के काफ़ी समय बाद हम तरक्की कर गए और हम उड़ने भी लगे थे। रेडियो, टीवी, फोन.. हम जल्दी-जल्दी आधुनिक हो रहे थे

एक संगोष्ठी की समीक्षा

सभापति के अंतिम वक्तव्य के इंतज़ार में ही संगोष्ठी की शुरुआत हुई। दो वक्ता जिनका 'पुष्पगुच्छ' से स्वागत हुआ था अपनी अपनी कविता की किताबों को गर्व से निहार रहे थे। सभापति का चेहरा गंभीर बन पड़ता था। शायद मन ही मन कविता पर गहन चिंतन कर रहे थे। मंच संचालक बड़ी तारीफें कर रहा था जैसे विश्व में यह अपनी तरह की पहली संगोष्ठी हो। पहले वक्ता ने बड़े ठाठ से बोलना शुरू किया, वे शुरू क्या हुए उन्हें पता ही नही चला कब श्रोताओं का पेट भर गया और उनके दिमाग का दही बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई। फिर उन्हें पर्ची पकड़ाई गई। पता नही इन पर्चियों में क्या लिखा होता है। हो सकता है, लिखा होता हो "ये आपके कॉलेज की कक्षा नही, अब चुप हो जाइए"। खैर किसी तरह दूसरे वक्ता की बारी आ गई। ये साहब महापंडित। ऐसा लग रहा था जैसे तुलसी ने खुद इन्हें बुलाकर कविता की दीक्षा दी हो। अपनी कविता से इन्होंने वक्तव्य की शुरूआत की। अपने वक्तव्य से इन्होंने उस संगोष्ठी को बहुत सार्थक किया। इन्होंने संगोष्ठी में भी अपनी दयालुता का परिचय दिया, पर्ची मिलने से पहले ही ये चुप हो गए। साहित्य जगत में जिनका तेज है और जिनकी मर्

यहाँ आने का मतलब

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यहाँ पर लिखना मेरे लिए अलग अनुभव होगा। अपने डायरी के दायरे को तोड़कर उससे बहार निकलने की बेचैनी ही मुझे यहाँ ले आई है। मुझे वो सीख याद है "यहाँ पर लिखना आसान है पर मुश्किल है लगातार लिखना"। पता नही कितना लिख पाउँगा, पर लगातार लिखने की कोशिश हमेशा रहेगी। जो महसूस करता हूँ उसे उसी तरह लिखने की कोशिश रहेगी। अगर मैं ये कहूँ की उनके लेखन का प्रभाव मेरे लेखन पर नही होगा तो ये गलत होगा, पर फिर भी मैं उनकी परछाई से निकलने की पूरी कोशिश करूँगा। यहाँ लिखना खुद को तलाशने जैसा भी है अपने घेरे से निकलकर एक अलग दृष्टि से खुद को देखने जैसा। यहाँ लिखने वाला मैं, महसूस करने वाले मैं से कितना भिन्न होगा ये भी देखने वाली बात होगी।यहाँ रहकर मैं कैसे ढालूँगा, खुद से कितना सीखूंगा इस प्रश्न का उत्तर ही मेरा फल होगा और पता नही वो क्या होगा। इससे ज़्यादा कुछ सोचना अभी ज़रूरी नही।  देवेश, 12 जनवरी 2016