बुज़ुर्गों के साथ अतीत का सफर

शाम को जब सूरज ढल चुका था, तब पता नही क्या पर कुछ महसूस हो रहा था। तब किसी की याद भी नही आ रही थी। ना ही कोई असंतुष्टि ही थी। मैं बस अपने अंदर चुप हो रहा था। अंदर चुप होने का मतलब बाहर बोलना क़तई नही है। जब मैं अंदर से चुप होता हूँ तो मेरी आँखों की गति तेज़ हो जाती है। तब मैं तीन हो जाता हूँ एक जो बहार चुप है, दूजा जो भीतर चुप है और तीजा जो दिखने वाली वस्तुओं का सम्बन्ध आपस में जोड़कर नए-नए प्रयोग करने में लग जाता है। और ये सारी जोड़-तोड़ अंत में इस नतीजे पर पहुँचती है कि मैं उदास हूँ। अब भई उदास क्यों हूँ ? खोजते-खोजते भी इस खोज का अंतिम छोर नही मिल पा रहा है। हाँ एक कारण हो सकता है कि मैं बहुत थका हुआ हूँ। इस थकावट का कारण संभवतः कोई सफ़र रहा होगा। शायद बुज़ुर्गों के साथ पिछले दशकों में दौड़ आया होऊँ। पर बुज़ुर्ग कैसे दौड़ेंगे वे तो बुज़ुर्ग हैं? पर तब वो भी जवान हुआ करते थे। तब अगर मेट्रो होती तो वे कभी एक्सेलरेटर पर कदम तक नही रखते। तब उनके पिताजी दवाइयाँ ना ख़रीद पाने के कारण मरते नही। तब वो आसमान में उन्मुक्त भाव से उड़ जाते। पर तब इतना पैसा नही था। 

पर इसका ये मतलब नही की उनके पास कुछ भी नही था। उनके पास रिश्ते थे, नैतिकता थी, मूल्य थे, जिनके बिना मनुष्य, मनुष्यता का अतिक्रमण करने लगता है। अब आप ये भी कह सकते हैं कि भई इन सभी से पेट थोड़े ही भरता है, उसके लिए तो पैसा चाहिए। ठीक बात है, पैसा तो चाहिए ही, पर कितना चाहिए? जिसमें गुज़ारा हो सके? मुझे लगता है आज तो हम पैसे को गुज़ारे की सीमाओं में नही बाँध सकते, और अगर बाँधने की कोशिश भी करेंगे तो इसकी सीमाएं लगातार विस्तृत होती रहेंगी और प्राप्त पैसा चाहे पिछली बार से कितना भी ज़्यादा हो कम ही रहेगा। तो... मैं बुज़ुर्गों के जीवन के बारे में कह रहा था। उनके समय में 'गुज़ारे' की सीमाएं इतनी तेज़ी से नही बढ़ रही थी। कम में भी लोगों को सब्र था। हाँ... सब्र। बुज़ुर्गों की जवानी के समय उनके पास सब्र बहुत था, जो उनको काफ़ी शक्ति दिया करता था परंतु कभी-कभी यही सब्र खुद उनके विकास का बाधक भी बनता रहा। हमें अकर्मण्य बनाने तथा विकास के लिए उदासीन रहने के पीछे का बड़ा कारण सब्र ही रहा है। अंग्रेजों के आने के बाद तो भारतीयों ने इतना सब्र किया कि क्या कहें। मेरे दादा मुझे हमेशा एक बात कहते हैं "कम खाना और ग़म खाना" मैं इस बात को सिरे से नकार देता हूँ। किसी भी समस्या का हल ये नही हो सकता। 

लेकिन ये सूक्ति एक परिवार को जोड़े रखने में सहायक हो सकती है। लेकिन किसी और सन्दर्भ से संगति नही बैठेगी। इस बात से मुझे अमरकांत की कहानी 'दोपहर का भोजन' याद आती है जिसमें सिद्धेश्वरी अपने परिवार को जोड़े रखने के लिए यही करती है। इसके साथ एक और चीज़ 'किस्मत', इसके बारे में क्या कहूँ कुछ समझ नही आता। पता नही मैं इसमें विश्वास करता हूँ या नही, या हो सकता है ये कहकर मैं बचने की पूरी कोशिश कर रहा होऊँ। लेकिन हमें तो बचपन से ही किस्मत पर भरोसा करना सिखाया जाता है। पर अपने विचार बन जाने पर व्यक्ति अपने विवेक के आधार पर इस सन्दर्भ में अपना पक्ष निर्धारित कर लेता है। लेकिन हमें किस्मत पर भरोसा करना क्यों सिखाया जाता है? हो सकता है इस प्रश्न का सम्बन्ध लालच से हो। हमें यही तो सिखाया जाता है "किस्मत से ज़्यादा किसी को नही मिलता"। इससे हमें ये सोचने पर मजबूर किया जाता है कि "यदि किस्मत से ज़्यादा कुछ मिलेगा ही नही तो फिर इस लालच का क्या औचित्य?" पर आगे जाकर यही किस्मत, सब्र की आधार भूमि बन जाती है, पर लालच अपने स्थान पर ही रहता है।

हमारे बुज़ुर्ग बताते हैं कि वे एक साड़ी को दो हिस्सों में काटकर अलग-अलग पहना करते थे। बिना साबुन के नहाया करते थे। सरसों से बेहतर कोई तेल माना ही नही जाता था। तब सीताराम बजार वाले फूलाराम दो पैसे के छोले और दो पैसे के ढेर सारे गुड़ के सेव लिया करते थे। वो भी एक समय था। कई बार बड़ी जिज्ञासा होती है अपने पूर्वजों को जानने की, उन्हें सुनने की, उनसे मिलने की। पर ये संभव नही। पर मैं हमेशा उन्हें महसूस करता हूँ अपने अंदर, अपनी पसंद और नापसंद में, अपनी सीमाओं और विस्तार में, अपने विचारों में, अपनी शारीरिक बनावट में, अपने मैं में। पर जब कभी घूमने का मन होता है तो घूम आता हूँ। पिछले कुछ दशकों में अपने बुज़ुर्गों के साथ। पर हर बार उदास नही होता। 

देवेश 27 फरवरी 2015

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