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एक अधूरी प्रेमकथा

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अभी कुछ कह देने की बेचैनी नही है, मन कुछ अजीब सा हो रहा है। बस उसकी याद आ रही है। आज से दो साल दो दिन पहले उसने ज़हर खाया था। जब उसका पहली बार नाम सुना था तब से अब तक मैं उसको एक भी बार नही मिला। बस उसकी कुछ तस्वीरें देखी थीं और एक बार फ़ोन पर बात की थी। उसका चेहरा जाना पहचान सा था, हमारी रिश्तेदारी में एक लड़की है राधा, पूजा बिलकुल उसकी तरह दिखती थी। पर वो राधा के बिलकुल उलट थी। उसे घर में रहना पसंद था। धर्म-कर्म में भी मन लगता था। पढ़ना उसके लिए सिर्फ एक मजबूरी थी, या कहें शादी तक की उसकी यात्रा का रास्ता, उसे रास्ते से ज़्यादा मंजिल पसंद थी। जीन्स टॉप से घृणा उसकी चारित्रिक विशेषता थी। अपने गुणों और विचारों में पुरुषवादी समाज उसके लिए एकदम अनुकूल था। उसके व्यक्तित्व को इस तरह गढ़ने में परिवार की भूमिका ज़्यादा रही या फिर उसके पहले और अंतिम प्यार की, पता नही, पर दोनों ने मिलकर उसे ऐसा बना दिया था। उसके प्रेमी के संस्कार भी पूजा से बढ़कर होने ही थे, उसे भी जीन्स वाली लड़कियाँ देखने में भले ही आकर्षक लगती हों पर उसे अपनी बेग़म बनाना उसे क़तई मंजूर न था।                              दोनों स्

तस्वीरों में कहना

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वहाँ बार-बार कुछ कह देने की इच्छा है। लेकिन किसी को कुछ बता देने का दावा नही। कहना सिर्फ शब्दों से ही थोड़ी होता है। तस्वीरें भी कहती हैं, जितना वो कह पाती हैं। यहाँ गाँव की तस्वीरों को इस तरह डालना भी कुछ कहता है। ये दूरी को एकदम से पाट देने जैसा है। मैंने कभी बहराइच नही देखा, कभी देख पाऊंगा या नही कुछ पता नही, लेकिन तस्वीरों से मुझे ये तो पता चल रहा है कि वो अब बदल रहा है। बदलना तो नियति है ही लेकिन इस तरह की आधुनिकता में बदलना नियति हो जाएगी इसका अंदाज़ा भी किसी ने कभी लगाया ही होगा। सर ने कहा इन्हें इस तरह यहाँ लगा देना और इस तरह लिख देना फिज़ूल है। लेकिन मैं ऐसा नही मानता। यहाँ बात  जहाँ तक निरर्थकता की है तो यह बात साफ है कि हर बात हर किसी के लिए समान महत्व नही रखती उसमें भी एक अंतर यहाँ हो जाता है कि महत्व देने के पीछे कारण क्या है। यही कारण ही महत्व निर्धारित करते हैं। उनके इस तरह तस्वीरों के माध्यम से कहने में कहे जाने से अलग एक मौन भी है, जहाँ कहे जाने के पीछे एक कहानी बताने की इच्छा है। लेकिन कहा गया खुलेगा तब जब आप कहने वाले को समझते हों।                             इन