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उदास बातें

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किसी तिमिर में बैठकर मैं खिड़की से बाहर देख रहा था। बाहर रौशनी थी। मुझे लगा कि बाहर रौशनी है। रौशनी को देखना चाहिए। उसे छूना चाहिए। मैं उठकर बाहर जाता उससे पहले मैं बैठ चुका था। मैं बैठकर रौशनी को देख रहा था। और उसे छूने के बारे में सोच रहा था। मैं उठा और बाहर जाने लगा। बाहर रौशनी थी। मैं बाहर जाता कि पता चला चौखट आसमान से धरती की ओर आती है। उसका आकार मैंने पहली बार देखा। चौखट नें मुझे रोक लिया। मैंने रौशनी को देखा। मैनें रौशनी को छुआ नहीं। मैं रौशनी से डर गया। क्या मुझे रौशनी चाहिए? मेरा कमरा कबसे यही है। अंधा। मैं किस तरह अब तक इस अंधेरे में रह गया? यह उसका सवाल था। मैंने ये नहीं कहा कि यहाँ बत्ती नहीं आती। मैंने कोई ग़ैर रचनात्मक सा जवाब दे दिया। उसे अचम्भा हुआ। अब तक यहाँ तस्वीरें क्यों नहीं है। इस बात पर भी उसे अचम्भा होना था। लेकिन तस्वीरों के बारे में उसनें पूछा नहीं। मैनें भी उसे कुछ नहीं बताया। मैनें कहा नहीं कि क्यों तस्वीरें यहाँ नहीं हैं। क्या उसके उस सवाल से मुझे डर जाना चाहिए था? उसी तरह जैसे मैं रौशनी से डर रहा हूँ। ये संकोच नहीं है। कोरा डर है। इसका क्या करूँ? चौखट उभरती

दुनिया देख, फिर आईयो

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अभी यहीं इस कुर्सी पर बैठा हूँ। बाहर नहीं जा रहा। बाहर जाता हूँ तो मन में जो बन रहा है वह टूट जाएगा। इस पंक्ति के तीसरे कमरे में बैठकर मैं सोच रहा हूँ कि बाहर का मौसम कैसा होगा। बाहर धूप होगी या बादल ? हवा बोल रही होगी या चुप होगी ? आसमान गर दिख रहा होगा तो उसका रंग कैसा होगा ?   इस कमरे में अगर एक खिड़की होती तो ये सवाल बन ही नहीं पाते। मेरी नज़र मुझसे पहले बाहर जा चुकी होती और इन तीनों और इनके अलावा सबका हाल-चाल ले चुकी होती। लेकिन यहाँ कोई खिड़की नहीं है। केवल एक दरवाज़ा है। जिसका प्रयोग अंदर आने और बाहर जाने के लिए किया जाता है। दरवाज़ा खिड़की नहीं है। कुछ बातों को लेकर मैं स्पष्ट हूँ। जैसे कि बाहर जाने पर मुझे लोग नहीं दिखाई देंगे। अगर दो-चार लोग दिखेंगे भी तो कुछ देर में वे नहीं होंगे। उनकी जगह कोई और दो-चार लोग ले लेंगे। ये लोग खड़े होकर बातें नहीं कर रहे होंगे। न ही खेल रहे होंगे। न ही ख़रीदारी कर रहे होंगे। ये लोग घर जा रहे होंगे। उन घरों में , जो इनके नहीं हैं। उन घरों को निपटाकर इन्हें दूसरे घरों को भी निपटाना होगा। यहाँ रहने वाले लोग घरों से बाहर नहीं निकलते। निकलते हैं तो ज़मी