जिस रात नींद नहीं आई
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रात नींद नहीं आई। जब नींद नहीं आती तो स्मृतियाँ आती हैं , लो ग आते हैं , असफलताओं के चेहरे बादलों में दिखने लगते हैं। मैं उस वक़्त बादलों को देख पाता तो उनमें अपने हासिल को देखने की कोशिश करता। उन्हें देखकर शायद नींद आ जाती। पर बादल हैं नहीं और उनके दिख जाने लायक आसमान भी नहीं बचा है अब। पहले लगता था कि दुनिया जैसी है एकदम वैसे ही रहेगी। कुछ भी नहीं बदलेगा। हमारे बूढ़े हो जाने तक गैंदो अम्मा अपना बटुआ खोलकर हमें दो का सिक्का देती रहेंगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ऐसा होता नहीं है। दुनिया बदलती है , बहुत जल्दी बदलती है। हमारी दुनिया भी कितनी बदल गई है। कभी सोच सकता था कि ज़िंदगी में एक ऐसा साल भी आएगा जिसका कोई हिसाब-किताब रख नहीं पाउँगा ? अगर काग़ज़ न होते तो इस दुनिया का क्या होता ? काग़ज़ों के होने पर दुनिया अधिक बर्बाद हुई है। काग़ज़ न होते तो वो सभी पेड़ शायद अभी हमारे सामने होते जो इस वक़्त काग़ज़ बनकर सरकारी दफ्तरों में धूल फांक रहे हैं। तब एक-एक काग़ज़ जुटाने के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ता। तब इंसान काग़ज़ों में बदलते नहीं। हालाँकि इंसान बने रहते इसका भी कोई दावा नहीं किया जा सकता। जितनी किताबें दुनिय