जिस रात नींद नहीं आई
काग़ज़ों के होने पर दुनिया अधिक बर्बाद हुई है। काग़ज़ न होते तो वो सभी पेड़ शायद अभी हमारे सामने होते जो इस वक़्त काग़ज़ बनकर सरकारी दफ्तरों में धूल फांक रहे हैं। तब एक-एक काग़ज़ जुटाने के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ता। तब इंसान काग़ज़ों में बदलते नहीं। हालाँकि इंसान बने रहते इसका भी कोई दावा नहीं किया जा सकता। जितनी किताबें दुनिया में छप रहीं हैं दुनिया उतनी बदतर होती जा रही है।
किताबों को देखकर इस उम्र में नौकरी याद आने लगती है। किताबें हम किसलिए पढ़ते हैं? कि किताबों में लिखी बातों को पढ़कर हम दुनिया की एक समझ बना पाएं? एक सवालिया नज़र पैदा कर पाएं? या उन्हें पढ़कर लिखने का सहूर सीख पाएं? नहीं! हम किताबें इसलिए पढ़ते हैं कि उनमें लिखी बातों को याद कर या रटकर कोई नौकरी पा लें। हमारी जवानी का अंतिम लक्ष्य नौकरी हो जाता है। कइयों का कुछ और होता होगा। नौकरी इसलिए कि महीने की किसी ख़ास तारीख़ को तय रक़म हमें मिल जाए जिससे अपनी ज़रूरतें पूरी होती रहें। बैल किताबें नहीं पढ़ते लेकिन काम वह भी यही करते हैं।
हम इंसान हैं इसलिए हाथ घुमा कर कान पकड़ते हैं। जो बात कहनी है उसे न कहकर कुछ और बोल जाते हैं। जिसे चुनना है उसे न चुनकर कुछ और चुन लेते हैं, फिर तड़पते रहते हैं। वक़्त निकल जाता है। हम वहीं रह जाते हैं। अगर बदलती दुनिया में लोगों के साथ नहीं चले तो प्रासंगिक नहीं रहेंगे। समय के साथ चलना मतलब उम्र के साथ चलना भी होता है। उम्र की तरह व्यवहार करना भी। इस उम्र का व्यवहार न जाने कब तक सीख पाउँगा। तब तक कोई नई उम्र आ चुकी होगी। जिस सहजता से उम्र बदलती है क्या उसी सहजता से व्यवहार भी बदलता है? क्या किसी ख़ास उम्र में किसी ख़ास तरह के व्यवहार की हमसे अपेक्षाएं नहीं की जातीं? क्या ये अपेक्षाएं की जानी चाहिए?
ऊपर के सवालों को हां या न के श्वेत-श्याम रंगों में बांधकर नहीं देख रहा, लेकिन किसी विस्तृत उत्तर तक भी नहीं पहुँच पाया हूँ। पहुँचने के लिए चलना होगा। फिलहाल यहाँ रुककर पीछे की उम्र को देख रहा हूँ। उन वर्षों को जिन्हें गुज़रता महसूस नहीं कर पाया। जो पूरब से आती हवा की तरह पश्चिम को निकल गए और कभी दिख नहीं पाए। उनपर अभी कुछ कह नहीं पा रहा। वे अलग संघर्षों के दिन थे। आज दिन अलग हैं। अभी इन दिनों में ख़ुद को स्थापित कर किसी विहंग की नज़र से ख़ुद को और आसपास के भूगोल को देखना चाहता हूँ। पर देख नहीं पा रहा हूँ। शायद आने वाले दिनों में किसी सिंह की तरह इन्हें देख पाऊँ।
अगर इस रात नींद आ जाती तो आगे नींद न आने वाली रातों की गिनती में एक संख्या कम हो जाती। हो सकता है नींद के उड़ जाने का ये सिलसिला बन ही न पाता। क्या तब सपने आते? सपनों के आने न आने से क्या हमारी ज़िंदगी पर कोई फ़र्क पड़ता है। मनोविज्ञान में शायद इस सवाल का कोई जवाब हो। मेरा सपनों से बस इतना सम्बन्ध है कि कभी इक्का-दुक्का सपने दिख जाते हैं तो उन्हें लिख लेता हूँ। अब पहले की तरह सपने आते भी नहीं। पहले हर रात कम से कम एक सपना आता था। अब शायद निश्चिन्त रहने लगा होऊं। पता नहीं ये कैसे दिन हैं। अब बस यहाँ से निकलने की इच्छा है।
देवेश
10 सितंबर 2020
Urrf Vikas 😇😊
जवाब देंहटाएंBadiya likha hai bhaiya
Keep it up. 🤟
शुक्रिया विकास।
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