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अपनी किताबें

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शुरू से ये किताबें रसोई में ही रखी थीं। सारी पत्रिकाएं भी। हर बार जब भी कोई किताब निकलता उसपर तेल की परत और गहरी हो गई होती। अंदर के कागज़ भी पीले पड़ने लगे। मैंने पापा से किताबों की अलमारी के लिए कह दिया। हमारे कमरे में एक अलमारी कपड़ों की भी है। पर वो लोहे की है। ज़मीन से पाँच फुट छः इंच ऊंची। दूसरी अलमारी की कोई जगह कमरे में बची नही। पापा ने किसी जानकार बढ़ई से कहकर तीन खानों वाला, बराबर लंबाई चौड़ाई वाला एक कामचलाऊ शेल्फ बनवा दिया।  एक दिन दो लोग अचानक आ धमके। दीवार से कपड़ों वाला हैंगर बड़ी बेरहमी से उखाड़ दिया। मैंने जबसे होश संभाला तब से वो हैंगर वहीं, वैसे ही देख रहा था। हर बार सफ़ेदी के बाद उसके किनारों पर एक और परत जम जाती। आज उखाड़े जाने के बाद इस कमरे में हुई पहली सफ़ेदी की चमक उतने हिस्से में दिख रही थी जितने हिस्से को हैंगर ने घेर रखा था। हैंगर बूढ़ा और अपराजित सा नई शेल्फ के पास पड़ा था। उन दोनों लोगों ने नया शेल्फ उठाया। पुरानी अलमारी के बाईं तरफ दीवार से सटाया और धड़ाधड़ कीलें ठोकने लगे। मुझे बड़ी बेचैनी हो रही थी। ठका-ठक की आवाज़ से सर चकरा गया। ख़ैर किसी तरह शेल्फ संभाल लेने ल

इन दिनों : अगस्त अट्ठारह

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अगस्त मेरे लिए कभी ऐसा नही रहा जैसा आज है। अगस्त महीने की याद से मुझे हमेशा दो चीजें सूझतीं हैं। सुबह की खिली-खिली धूप और रक्षाबंधन का त्यौहार। तब छत पर सोने से सुबह जल्दी आँख खुल जाया करती। सरसराती सी हवा मक्खियों को ज़रा भी चैन लेने नही देती। मैं सीढियां उतरकर आख़िरी सीढ़ी पर बैठ जाता और सामने दीवार पर पड़ने वाली धूप को देखता रहता। रक्षाबंधन वाले दिन सुबह से ही भुआओं का इंतज़ार होता रहता। वे आतीं और ज़ोर से हमारा नाम पुकारतीं। हम भागे-भागे सीढियां उतरते और उनसे चिपट जाते। नीचे दरवाज़े के बाहर सभी की चप्पलें बेतरतीब पड़ी रहतीं। मुझे दरवाज़े के बाहर इतनी सारी चप्पलें बड़ी अच्छी लगतीं, आज भी लगती हैं। मैं अपने पैर के अंगूठे और उंगलियों से उन्हें करीने से लगा देता। बुआ की चप्पल मुझे बहुत अच्छी लगती, ज़मीन से दो इंच ऊपर उठी हुई। उनकी साड़ी जैसी चमकीली। राखी बांधने के बाद शाम तक ठहाकों के कई दौर चलाने के बाद वे अपने-अपने घर वापस लौट जातीं। वो जब तक रहतीं घर गुलज़ार रहता। उनके लौटते ही एकदम सन्नाटा हो जाता। अब भी सबकुछ लगभग ऐसा ही होता है। पर अब हम बड़े हो गए हैं।  पिछले लगभग सभी अगस्त सितम्बर के

ना कह पाना

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एक समय आता होगा जब हर किसी को लगता होगा कि वह चुक गया। अब कहने को कुछ बाक़ी नही रह गया। ठीक उसी समय उसके पास बातों की एक दुनिया घुमड़ रही होती है। वह चाहता तो सबपर कुछ ना कुछ कह सकता है। पहाड़, नदी, बादल, आकाश, बोतल, चींटी, राज्यसभा, बिस्तर, पुल, किताबें इस सभी पर वह कह सकता है कुछ ना कुछ। असल नही तो मनघड़न्त ही सही। पर अब कहता नही। क्योंकि अब कहा नही जाता। जो वो कहता है वह एक क्षण में ही टूट जाता है। इस तरह बात टूटने से भाव और विषय सब बिखर जाते हैं। कहने का अर्थ तभी है जब सुनने वाला समझे। पर यदि कहा ही ना जा सके तो? भाषा होते हुए भी यदि ज़ुबान ना चले तो कोई क्या कर सकता है? यहाँ वह कहते कहते खुद को रोक भी लेता है क्योंकि जिस भाव को जिस तरीके से कहा जाना है वह उन्हें पकड़ ही नही पा रहा। भाषा तब साथ देती है जब मन में छवियाँ साफ हों। कहना क्या है ये पता हो। अभ्यास के महत्व को भी नकारा नही जा सकता। पर यहाँ तो कुछ साफ ही नही हो रहा। सब गड्डमड्ड है। उलझन बहुत है। शब्द सब साथ छोड़ रहे हैं।  रचना के तीनों क्षणों में से ये कोई भी क्षण नही है। ना तो इस समय कुछ भी समेटा जा रहा है औ

वे दोनों

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ये पहली मंज़िल है। बाहर कड़ी धूप है। इस कमरे में केवल हम नहीं बैठे। हम लड़के-लड़कियों के अलावा एक युगल भी बैठा है। हम लड़के और लड़कियाँ ना चाहते हुए भी किसी न किसी बहाने से अचानक उन्हें देख लेने की इच्छा से भरे हुए हैं। वो दोनों बहुत धीमें से आपस में बात कर रहे हैं। वो नही चाहते कि कोई उनकी एक भी बात सुने। वो अपने अलग टापू पर हैं। वो अपनी इस दुनिया को अपनी पीठ से ढक लेना चाहते हैं। हम अपनी इस दुनिया से उन्हें देख रहे हैं। उन्हें इस तरह एक-दूसरे का हाथ पकड़े देखकर हम सभी कोई प्रतिक्रिया नही दे रहे। हम सब बातों में लगे हैं यही हमारी प्रतिक्रिया है। हम सभी लड़के-लड़कियाँ उन दोनों की ही तरह बैठ जाना चाहते हैं। इस बात से जो इनकार कर रहा है वह झूठा है।  वे लड़का और लड़की दोनी ही यहाँ से अनुपस्थित है। वो इस समय से टूट गए हैं उनकी स्मृति में रह गए हैं एक दूसरे के कंधे, हाथ और होंठ। मैं ये बार-बार कहता हूँ कि प्रेम तोड़ता भी है। ये टूटना ही अनुपस्थित होना है कई आयोजनों से, रिश्तों से, यादों और बातों से। उन दोनों की ही तरह यहाँ बैठे हम सब भी कंधे, हाथ और होंठ हो जाना चाहते हैं इनके अलावा और बहुत कु

इन दिनों

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यहाँ सब वैसा नहीं है जैसा पहले हुआ करता था। सब बदल गया है। मैं भी बदल गया हूँ। अब वैसा कुछ भी महसूस नही होता जैसा पहले हुआ करता था। धीरे-धीरे सम्वेदना से दूर छिटकता गया हूँ। दिन यूँ ही निकल रहे हैं। ये इंतजार जैसा ही है। पर ये इंतजार किसी समय का है या किसी व्यक्ति का समझ नही पा रहा हूँ। ये एक भरी दोपहरी है। चेहरा अब पसीने से भरा रहता है। ये उमस अब मुझमें भी उतरती जा रही है। ये सब बातें जिस शांत भाव से लिख रहा हूँ ये उससे दुगनी आक्रामकता से मेरे अंदर पल रही हैं।  मैं यहाँ साफ-साफ कुछ नही कहना चाहता। मैं एक भी सूत्र नही छोड़ना चाहता कि कोई उसे पकड़कर मुझतक पहुँच जाए। मैं ये भी नही चाहता कि मेरी इन अकेली बेचैनियों में कोई मेरे साथ हो। मुझे बस एकांत चाहिए जहाँ मैं अकेले जूझ सकूँ ख़ुद से। पढ़ाई से अब मोह छूट गया है। अकादमिक परिवेश से अजीब वितृष्णा हो गई है। ये एक ढाँचा है जो आपको अपनी तरह से अपने खाकों में फ़िट करने के लिए हमेशा दबाव बनाए रहता है। वो आपके सभी सपनों को रौंद डालता है। इसमें एक मज़ेदार बात ये भी है कि दुनिया-जहान में अपनी प्रगतिशीलता का डंका पीटने वाले महारथी भी अपनी संस्

एक बयान

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हमें कहा गया कि हमें निश्चित समय पर वहाँ पहुँचना है। हम अपने शाम के काम स्थगित कर समय से पहले पहुँच गए। यह एक बड़ा पार्क है। सूखा हुआ पार्क। इसमें घास उगने की कोई संभावना नही बची है, पर कहीं-कहीं दूब चमकी सी उगी हुई है जिसे देखकर अचंभा ही होता है। ये रैन बसेरे के बाहर का आँगन है।  ये उनकी जगह है जिनकी कहीं कोई जगह नही। लेकिन से सभी कुछ ना कुछ काम करते है। बड़े भी बच्चे भी। कुछ बच्चे पढ़ते भी हैं।  सभी बच्चे बीच में बैठे हुए हैं और सर ऊपर कर उसे सुन रहे हैं जो ज़ोर-ज़ोर से भाषण दे रहा है। वो नीली कमीज वाला आदमी इन सभी का पहचाना हुआ है। ये आदमी इन्ही के अधिकार की बात कर रहा है। बीच में बैठे बच्चों को घेरा बनाकर घेरे हुए हैं कुछ जवान और बूढ़े लोग जो इनके बीच के नही हैं। वो इनसे ज़्यादा सुथरे हैं। इन सभी से ज़्यादा समझदार। दिलवाले हैं या नही ये नही पता। बीच में एक मैली सी सफ़ेद टी-शर्ट में एक लड़का खड़ा हुआ है। कल ही कि बात है इसे पुलिस ने पीटा है। वो ख़ुद ही अपनी आपबीती धीरे-धीरे बता रहा है। लोग सुन रहे हैं उसका अनुभव। वो बता रहा है कि वो किसी मसले को लेकर थाने में एफआईआर दर्ज कराने

दुःख

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कुछ कहना क्या ज़रूरी होता है कहने के लिए? कहूँ भी तो किससे? कोई सुनना भी चाहता है? ना सुने तो ना सही! अगर कहना ना भी चाहो तो कोई समझेगा नही। इस स्थिति में बस अकेले जूझा जा सकता है। जूझने में एक इंतज़ार होता है इस दौर के खत्म हो जाने का। क्या मुझे भी इसे इंतज़ार की तरह ही लेना चाहिए? मेरी उम्मीदें तो बनी नही रह सकती। इसलिए ये दौर एक ऊब से भरा रहा है। ये हाथ-पांव बंधे होने जैसा है, कि कोई रह-रहकर आपके गले की रस्सी को उस हद तक खींच लेता है कि मृत्यु एकदम नज़दीक आ जाए और अचानक रस्सी छोड़ दे। बात बस ज़बान पर आजाए पर दिमाग़ सचेत होकर ज़हर का घूँट भर ले।                        खुद को इस तरह रोक लेने से भी कुछ नही हो रहा। एक युद्ध ही चल रहा है। जो भले ही अदृश्य लगे लेकिन जो अपना असर छोटे-छोटे संकेतों में दिखा जाता है, जिन्हें कोई पकड़ नही पाता। ना पकड़ पाए उसमें भी मेरी ही जीत है और हार भी। ये लिखावट भी उसी युद्ध का प्रतिफल है। जिस तरह मैं यहाँ लड़ रहा हूँ उसी तरह हर कोई लड़ रहा है लेकिन आधे मेरी तरह चुप हैं।                            क्या इससे अवसाद में जाने का कोई ख़तरा है? इस पंक्ति को लिखक

छूटना

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उसने मुझे बताया नही की उसकी तरह वहाँ वो शहर भी अकेला है। अकेला होने का अर्थ प्रेम से खाली होना नही है। वहाँ उसके और यहाँ मेरे अकेलेपन में प्रेम का अस्तित्व है। उसका शहर वो शहर है जिसके लोग आपस में बतियाते नही हैं, लेकिन वो चुप भी नही रहते। ऐसी स्थिति में वो शहर बिल्कुल मेरी तरह होता है, चुप और तेज़। उसने पहले ही समझ लिया था कि एक न एक दिन ऐसा ज़रूर होगा कि हम अकेले होंगे। हम होंगे अलग-अलग शहरों में गाड़ियों के शोर और धुएं से अलग-अलग जूझते हुए और हमारा प्रेम भी अलग होगा। हम अलग-अलग घूम रहे होंगे अपने दिमागों में। यहाँ समझ नही आता कि क्यों वो उदासी पसर रही है जो गर्मियों की छुट्टियों में शाम को रात में बदलते देखने पर मेरे अंदर उतर जाया करती थी। ये उदासी अकेलापन क्या खुद का ही खड़ा किया हुआ है? क्या मैं इस सब से छूट नही जाना चाहता? मैं क्यों चीख़कर ये नही कह देता की मेरा मन नही लगता यहाँ, मुझे एकांत चाहिए! मुझे एक अलग जगह चाहिए। मैं बादलों से भरी अंधेरी दोपहरों में जी भरकर सोना चाहता हूँ। मुझे नही होना यहाँ। मेरे बिल्कुल बदल जाने तक मैं यहाँ से दूर चले जाना चाहता हूँ, उन नए लोगों के बीच जि

मिसफिट

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एक दिन अचानक सब नही बदला। सब बदल रहा था धीरे-धीरे, या फिर कुछ बदला ही नही अब तक। हाँ कुछ भी नही बदला। जो जैसा है वो वैसे ही रहना चाहता है। वो जहाँ बैठा है वहाँ से इंच भर भी नही खिसकना चाहता किसी और के लिए। तो क्यों उन्हें वहाँ होना चाहिए जहाँ वो होकर भी नही हैं। क्या वो उनकी दुनिया है भी? या वो अपनी बातों को ही पुल बनाकर वहाँ तक पहुँचने की नाकाम कोशिशें कर रहें हैं पिछले कुछ सालों से? वो भले ही कितनी कोशिशें कर लें लेकिन वो जानते हैं ये दुनिया उनकी नही। वो कभी भी उसमें रम नही पाए, ना ही कभी रम पाएंगे। वो अपनी दुनिया से निकलकर किन्ही और की दुनिया में अगर चाहेंगे भी तो जम नही पाएंगे। अपने से अलग उस दुनिया में वो ख़ुद को हमेशा मिसफिट ही महसूस करेंगे। असल में मिसफिट होना ही उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी त्रासदी है। इन सभी बातों को सोचते हुए वो तीनों कई अन्य जगहों से अनुपस्थित हो गए हैं। उनकी अपनी दुनिया, नाटक, संगीत, चित्र और साहित्य के संसार से वो सभी अनुपस्थित हैं। इस अनुपस्थिति में वो कहीं भी नही हैं। उनके होने न होनें से किसी को कोई फर्क भी नही पड़ेगा। आज उनके आने से या कल जाने से कुछ ह