मिसफिट

एक दिन अचानक सब नही बदला। सब बदल रहा था धीरे-धीरे, या फिर कुछ बदला ही नही अब तक। हाँ कुछ भी नही बदला। जो जैसा है वो वैसे ही रहना चाहता है। वो जहाँ बैठा है वहाँ से इंच भर भी नही खिसकना चाहता किसी और के लिए। तो क्यों उन्हें वहाँ होना चाहिए जहाँ वो होकर भी नही हैं। क्या वो उनकी दुनिया है भी? या वो अपनी बातों को ही पुल बनाकर वहाँ तक पहुँचने की नाकाम कोशिशें कर रहें हैं पिछले कुछ सालों से? वो भले ही कितनी कोशिशें कर लें लेकिन वो जानते हैं ये दुनिया उनकी नही। वो कभी भी उसमें रम नही पाए, ना ही कभी रम पाएंगे। वो अपनी दुनिया से निकलकर किन्ही और की दुनिया में अगर चाहेंगे भी तो जम नही पाएंगे। अपने से अलग उस दुनिया में वो ख़ुद को हमेशा मिसफिट ही महसूस करेंगे।

असल में मिसफिट होना ही उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी त्रासदी है। इन सभी बातों को सोचते हुए वो तीनों कई अन्य जगहों से अनुपस्थित हो गए हैं। उनकी अपनी दुनिया, नाटक, संगीत, चित्र और साहित्य के संसार से वो सभी अनुपस्थित हैं। इस अनुपस्थिति में वो कहीं भी नही हैं। उनके होने न होनें से किसी को कोई फर्क भी नही पड़ेगा। आज उनके आने से या कल जाने से कुछ होगा नही। यहाँ तक कि उनका स्थान भी खाली नही होगा, ये उनकी विफलता है कि वो स्थान ही नही बना पाए।

जिन नए रिश्तों के लिए वो चौंक कर ख़ुश हो जाया करते थे। आज उन्हें पक्का यक़ीन हो गया है कि वो रिश्ते कभी बन ही नही पाए। वो जब भी आपस में मिल रहे होते हैं हमेशा ही थोड़े-थोड़े ख़ाली हो जाया करते हैं। उनके बीच कुछ बचता ही नही बात करने को। उनके जो साझे अनुभव है वो नाकाफ़ी है उनकी बातों को पिरोने के लिए। हारकर वो चुप रह जाते हैं।

चुप होने का अर्थ नही कि वो सोच नही रहे हैं या कह नही रहे हैं। वो कहते सब है, चीख़कर भी कहते हैं लेकिन वो किसी को सुनाई ना दे इस तरह कहते हैं। इस भीड़ में अकेले होने पर भले ही कोई व्यंग्य करे और कहे कि ऐसा कुछ नही होता लेकिन इस स्थिति को वो क्या नाम देगा?

अब उन्होंने सब को अपने हाल पर छोड़ दिया है। यहाँ ना तो डूब जाने की इच्छा है और ना ही उबर जाने की बेचैनी। इस स्थिति को फिलहाल कोई नाम नही दिया जा सकता। इस स्थिति को ऐसा बनाए रखने में किसी भी कला का कोई दोष नही है। कला से पहले संबंध होते हैं। सम्बन्ध हम ही तो बना रहे हैं। इन संबंधों का जो रूप बन रहा है उसकी ज़िम्मेदारी हमारी साझी है। यहाँ सबका दोष है और सब निर्दोष भी।

देवेश, 11 जनवरी  2018

टिप्पणियाँ

  1. तुम्हारी भाषा में यह परिवर्तन कैसे आया? सब अमूर्त सा क्यों लग रहा है? कुछ दिख क्यों नहीं रहा । या यह भी हो सकता है कि सब दिख रहा हो और मुझे कुछ न दिख रहा हो ।

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    1. इसे जान बूझकर अमूर्त कर दिया गया है। इसे साफ-साफ नही कहना था बस। भाषा मन का परिचय देती है शायद इसलिए अमूर्त रही है यहाँ। जिनतक सूत्र पहुँचने चाहिए उनतक पहुँच जाएँगे।

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