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कुछ ख़ास नही

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ट्रेन में बैठकर हमने न जाने कितने ही पुल पार किये, कितने जिन्हें हम जानते भी नही थे। जिनकी बनावट हमारी समझ के बाहर थी। हम बस उन गुफाओं से गुज़र रहे थे। उस अँधेरे में जहां हाथ को हाथ भी नही सूझता हम खुद को पहचानने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। अंतिम कोशिश शायद बेमन से की थी, धीरे-धीरे आंतरिक दबाव कम होता गया। एक अजीब सा सुकून उस अनजानेपन में। अनजानेपन में एक तरह की जिज्ञासा होती है, जिज्ञासा प्रकट ना करो तो हम स्वयं अपनी समझ बनाने लगते है। उस यात्रा के अंत तक हम किसी से कुछ नही बोले ना कुछ ग्रहण ही किया। हम बस खोए रहे अपनी-अपनी दुनिया में, अपने को समझते। मैंने उन्हें नही पहचाना, पर वो मुझे जानते थे। हम जहाँ जा रहे थे वहाँ भी कुछ ख़ास नही था, निरुद्देश्य चलते जाना ही मेरा मक़सद था उस वक़्त। अब उसे सोचता हूँ तो हँसता हूँ, कुछ परेशान भी होता हूँ। वो सपने की दुनिया जैसा था जिसमे हम किसी रथ पर सवार होकर हवाओं पर उड़ते जाते हैं विज्ञान के सभी नियमों से परे। इतनी उमनुक्तता तो ईश्वर भी नही दे सकता जितनी उन्मुक्तता उस दिन में थी। वो सफ़र असल में हुआ ही नही होगा। वो भी कोरी कल्पना ही रहा होगा। जिसमें तय

चाय, कुर्सी, मैं

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मुझे अगर यहाँ कुर्सी, एक टेबल और एक कप चाय मिल गई होती तो कितना अच्छा होता... मैं यहीं गार्डन में बैठ जाता। इस गार्डन के दोनों और बड़े-बड़े दो आलीशान होटल हैं। जिन्हें हमेशा ही बाहर से देखा है। और जहाँ मैं अभी हूँ वहाँ भी पहली ही बार आया हूँ। ये ईमारत नेताओं के बँगले जैसी है। मुझे बस इसका गार्डन पसंद आया और बाहर का मौसम, बादल, हल्की फुहार और पेड़-पौधों की ख़ुशबू। भीड़ के लायक ये जगह नही है इसलिए भीड़ है भी नही। एक अजीब सा सुकून है इधर। इसकी खोज में कोई पूरी दिल्ली का चक्कर भी लगा सकता है। यहाँ तक पहुँचने में जो ख़ुशी मिली उसे मैं कह नही सकता। अकेले होते हुए भी जैसे किसी का साथ हो। मुझे जो कुछ पसंद है वो सब यहाँ है। अकेले होने पर भी आप अकेले नही होते तब आप दो हो जाते हैं ये बात मैं पहले भी कह चूका हूँ। बहरहाल, ये फुहार ही मौसम को ख़ुशनुमा बना नही है नही तो धूप में तो मैं जल जाता। यहाँ से इंडिया गेट पास में ही है, अभी शाम हो गई वहां कितनी भीड़ होगी। कितने लोग उसे देख रहे होंगे पर मैं वहां नही हूँ। मैं यहीं हूँ इस गार्डन में। इन बातों को अब कहने का कोई मतलब भी है। जब ये सब लिखा था तब सब कुछ और ह

तुम्हारी मेरी बातें

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क्या शाम थी न वो। साथ वाले कॉलेज में शंकर महादेवन गा रहे थे। हल्की-हल्की ठंडी थी हवा। मुझे आज अचानक वो दिन याद आ गया। उस वक़्त मैं जो महसूस कर रहा था, अब कभी नही कर पाउँगा। चाह कर भी नही। तब हम इतने बड़े नही हुए थे। समय इतना बंधा हुआ नही था। हम जितनी देर चाहें कॉलेज में बैठे रह सकते थे। अब वैसा नही होगा। न तुम्हे समय है ना मुझे। अब तुम्हे मुम्बई भी तो जाना है। तब तो तुम दो साल तक पता नही मिल भी पाओगी या नही। फिर हमारा मिलना भी मुसलसल कम होता रहेगा। किसी और दिन भी उस दिन को याद करके मेरी आँखें भर आएंगी। अब हम वैसे बातें नही कर पाएंगे जैसे तब किया करते थे। लाख संकोच होने पर भी मैंने इतनी लंबी-लंबी बातें की थी। बातों के अलावा और क्या होता है जो रह जाता है। हम रहें ना रहें वो बातें गूंजती रहेंगी वहीं हमेशा। जब भी फिर मैं वहां जाऊँगा वो मेरे अंदर भर जाएंगी। मेरे अंदर भी वो गूंजेंगी। मुझे पता है आजकल मैं बदला-बदला सा लगता हूँ। फिर मिलना कभी तुम्हारे पास समय हो तो, बहुत सी बातें जमा है। देवेश, 9 अक्टूबर 2016