कुछ ख़ास नही
![चित्र](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhkhQkxzebEDglcADvmncFeH4CW7XokeD9pn41VPl5nGeVgi-kA4PHCETu8hDE6c7bq9T2Iq2TayVlm1xfTbtxMM_Z3xu_ZS41O4fQif5Lk2l_xQJxFy2imyqbmXEVqIMlS0id9itVNCqU/s640/6223c709b5aa590e6f7950fafe022ff7.jpg)
ट्रेन में बैठकर हमने न जाने कितने ही पुल पार किये, कितने जिन्हें हम जानते भी नही थे। जिनकी बनावट हमारी समझ के बाहर थी। हम बस उन गुफाओं से गुज़र रहे थे। उस अँधेरे में जहां हाथ को हाथ भी नही सूझता हम खुद को पहचानने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। अंतिम कोशिश शायद बेमन से की थी, धीरे-धीरे आंतरिक दबाव कम होता गया। एक अजीब सा सुकून उस अनजानेपन में। अनजानेपन में एक तरह की जिज्ञासा होती है, जिज्ञासा प्रकट ना करो तो हम स्वयं अपनी समझ बनाने लगते है। उस यात्रा के अंत तक हम किसी से कुछ नही बोले ना कुछ ग्रहण ही किया। हम बस खोए रहे अपनी-अपनी दुनिया में, अपने को समझते। मैंने उन्हें नही पहचाना, पर वो मुझे जानते थे। हम जहाँ जा रहे थे वहाँ भी कुछ ख़ास नही था, निरुद्देश्य चलते जाना ही मेरा मक़सद था उस वक़्त। अब उसे सोचता हूँ तो हँसता हूँ, कुछ परेशान भी होता हूँ। वो सपने की दुनिया जैसा था जिसमे हम किसी रथ पर सवार होकर हवाओं पर उड़ते जाते हैं विज्ञान के सभी नियमों से परे। इतनी उमनुक्तता तो ईश्वर भी नही दे सकता जितनी उन्मुक्तता उस दिन में थी। वो सफ़र असल में हुआ ही नही होगा। वो भी कोरी कल्पना ही रहा होगा। जिसमें तय