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कमरा अंधेरा

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उनकी शब्दावली में इसे भागना कहूँगा। मैं भाग रहा हूँ। भागता जा रहा हूँ। पर कहीं पहुँच नही रहा। समझ नहीं पा रहा कि किससे भाग रहा हूँ। कहाँ पहुँच जाने की इच्छा लिए फ़िर रहा हूँ। अब तक ऐसा क्या महसूस नही किया जैसा करना चाह रहा हूँ। वो क्या है जिसे लगातार ढूँढता रहता हूँ सभी की आँखों में? उसे कोई भी नाम देने से क्यों कतराता हूँ?  अपने लहज़े में मैं उसे भागना नहीं कहूँगा। वो मेरे लिए अवकाश होगा। कुछ दिनों के लिए सब से निजात। इससे कुछ न भी हो तब भी कुछ ज़रूर होगा।  मैं सबकुछ को जर्जर नहीं कहूँगा। अब भी बहुत कुछ है जो बचा है भीतर और बाहर दोनों सतहों पर लेकिन उन्हें देखकर भी उन्हें छू लेने की इच्छा नही है। बच रहा हूँ। क्यूँ? पता नहीं। साफ़ कहें तो इस सब में अपनी भूमिका पहचान लेने की जद्दोजहद में पिछले दिन घुटते रहे हैं। ये दिन भी जा ही रहे हैं। इसमें सबकुछ असंतुलित है। मिसफिट है। असंगत है। सब आधा है।  पर जो भी कमी महसूस कर रहा हूँ उसे उन सभी को कभी बता देने का मन होते हुए भी बता नहीं पाऊँगा। उसे भी कभी नही बताऊँगा। वो पूछ भी लेता है तब भी नहीं। मैं पहले पूरा हो जाऊँगा तब कभी बत

सुनो अनुज

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मैं एक दिन दुनिया के सभी नियमों को बदल दूँगा। एक शाम को तय करूँगा कि रातभर सोऊंगा नहीं। उसके बाद हर रात को जागा करूँगा। दोस्ती और प्रेम भरे गीत सुना करूँगा और खूब रोया करूँगा। अंदर से सूख जाने के बाद मैं कहूँगा कि दोस्ती और प्रेम कुछ नही होते। ये बाज़ार के इजाद किये भाव हैं। इन सभी दृश्यों में तुम नहीं होंगे। मैं अकेला रहूँगा। उसी कमरे में बंद जिसे मैं अपना बना लेने के ख़्वाब देखा करता हूँ। उम्र में अनुज तुम कभी उसके दरवाज़े तक नहीं पहुँच पाओगे। मैं तुम्हें कभी नही बताऊँगा कि मैं कहाँ रहता हूँ। तुम भले ही प्रेम की कितनी ही व्याख्याएं करते रहो पर मैं कभी ये नहीं कहूँगा कि तुम्हारा उसकी ओर आकर्षण प्रेम है। और न ही ये कहूँगा की हमारी दोस्ती प्रेम नहीं है। पर मैं कभी प्रेमी नहीं हो पाऊंगा। न ही कभी उसे प्रेम लिखना सीख पाऊंगा। न ही तुम्हारा दोस्त रह पाऊंगा। सुनो अनुज। तुम दुनिया को देखने की अपनी नज़र बनाना। मैं जानता हूँ कि तुम समझदार हो और नासमझ भी। हम हमेशा साथ नहीं रहेंगे। सब दुनियाएं बदल जाएगी। लोग भी बदल जाएंगे। मैं भी बदल जाऊंगा। तब कोई सलाह नहीं दे पाऊंगा। देखो तुम प्रेम कर