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मनुष्य होने की निशानियाँ

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।   हम हमेशा अपने अंदर रहते है.घूमते उलझते चुनते और छोड़ते। हमारे अंदर जो दुनिया है वह असल में इस भौतिक दुनिया का प्रतिबिम्ब मात्र है जिसे हम अपनी सुविधा के अनुसार मोड़ते तोड़ते और बनाते रहते है।हम इस भौतिक दुनिया को छू सकते है,पर अपने मन के अंदर की दुनिया को हम सिर्फ देख और महसूस कर सकते है।उलझन चुनाव की ही समस्या है।अपने मन की दुनिया में हम वो नही चुनते जो हमारे लिए बेहतर है। वहाँ "बेहतर" की परिभाषा "मनपसंद" से बदल जाती है।इस भौतिक दुनिया में हम जैसे दिख रहे होते है अपने मन में हम ठीक उलट होते है,इसका कारण मनुष्य की मूल प्रकृति असंतुष्टि है।दोनों दुनियाओं को रेल की पटरियों सा चलाना मुश्किल है।ये दोनों दुनिया समानांतर चलने के साथ साथ ज़िग-ज़ैग़ होती है।हम चाहें न चाहें हमारी मानसिक दुनिया हमारी भौतिक दुनिया में हस्तक्षेप करती है।इन दोनों दुनियाओं को नियंत्रित करने वाला स्टेयरिंग व्हील हमारा विवेक ही होता है पर हम कम ही इन्हें नियंत्रित कर पाते है।यदि हम भौतिक दुनिया को ठीक-ठाक नियंत्रित करने की कोशिश भी करते हैं तो बाह्य परिस्थितियाँ उसपर अपना नकारात्

तब और अब हम

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अभी कुछ समय पहले ही छूटे थे हम। तब ख्वाबों में "स्मार्ट सिटी" नही थी। तब हमें मसरूफ़ होना था टूटे घरों से बची साबुत इंटों को निकालने में या फिर बसे बसाए घरों को छोड़ एक ऐसे स्थान पर जाने में जिनकी साफ़ छवि हमारे मन में बन ही नही पा रही थी। उसे हम किसी भी तरह घर वापसी नही कह सकते। तब हमारी स्मृतियों में उनके नाम अंकित हुए जो शहीद हुए थे।उस वक्त हम छूटने की ख़ुशी की अभिव्यक्ति के लिए फेसबुक पर स्टेटस नही डाल सकते थे। हम तैयारी कर रहे थे खुद को फिर से गढ़ने की, तब हमारे पास हमारा पूरा इतिहास और आधी विरासत बची थी और कुछ इंसानियत भी। आगे क्या होना था किसीको पता नही था बस इतनी खबर सुनी थी कि हम राष्ट्र बनने जा रहे है, जिसका अर्थ हमें नही पता था। फिर टोपियाँ बदलती रहीं और हमारे मत भी। इसी बीच हम नींद की आग़ोश में जाते रहे धीरे-धीरे, हम बस लगभग सौ साल जगे थे। फिर कभी-कभी साल में दो-तीन बार राष्ट्रीयता हमारे कानों में सुबह के अलार्म सी बजती रही और हम उसको ठोककर बंद करते रहे। छूटने के काफ़ी समय बाद हम तरक्की कर गए और हम उड़ने भी लगे थे। रेडियो, टीवी, फोन.. हम जल्दी-जल्दी आधुनिक हो रहे थे

एक संगोष्ठी की समीक्षा

सभापति के अंतिम वक्तव्य के इंतज़ार में ही संगोष्ठी की शुरुआत हुई। दो वक्ता जिनका 'पुष्पगुच्छ' से स्वागत हुआ था अपनी अपनी कविता की किताबों को गर्व से निहार रहे थे। सभापति का चेहरा गंभीर बन पड़ता था। शायद मन ही मन कविता पर गहन चिंतन कर रहे थे। मंच संचालक बड़ी तारीफें कर रहा था जैसे विश्व में यह अपनी तरह की पहली संगोष्ठी हो। पहले वक्ता ने बड़े ठाठ से बोलना शुरू किया, वे शुरू क्या हुए उन्हें पता ही नही चला कब श्रोताओं का पेट भर गया और उनके दिमाग का दही बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई। फिर उन्हें पर्ची पकड़ाई गई। पता नही इन पर्चियों में क्या लिखा होता है। हो सकता है, लिखा होता हो "ये आपके कॉलेज की कक्षा नही, अब चुप हो जाइए"। खैर किसी तरह दूसरे वक्ता की बारी आ गई। ये साहब महापंडित। ऐसा लग रहा था जैसे तुलसी ने खुद इन्हें बुलाकर कविता की दीक्षा दी हो। अपनी कविता से इन्होंने वक्तव्य की शुरूआत की। अपने वक्तव्य से इन्होंने उस संगोष्ठी को बहुत सार्थक किया। इन्होंने संगोष्ठी में भी अपनी दयालुता का परिचय दिया, पर्ची मिलने से पहले ही ये चुप हो गए। साहित्य जगत में जिनका तेज है और जिनकी मर्

यहाँ आने का मतलब

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यहाँ पर लिखना मेरे लिए अलग अनुभव होगा। अपने डायरी के दायरे को तोड़कर उससे बहार निकलने की बेचैनी ही मुझे यहाँ ले आई है। मुझे वो सीख याद है "यहाँ पर लिखना आसान है पर मुश्किल है लगातार लिखना"। पता नही कितना लिख पाउँगा, पर लगातार लिखने की कोशिश हमेशा रहेगी। जो महसूस करता हूँ उसे उसी तरह लिखने की कोशिश रहेगी। अगर मैं ये कहूँ की उनके लेखन का प्रभाव मेरे लेखन पर नही होगा तो ये गलत होगा, पर फिर भी मैं उनकी परछाई से निकलने की पूरी कोशिश करूँगा। यहाँ लिखना खुद को तलाशने जैसा भी है अपने घेरे से निकलकर एक अलग दृष्टि से खुद को देखने जैसा। यहाँ लिखने वाला मैं, महसूस करने वाले मैं से कितना भिन्न होगा ये भी देखने वाली बात होगी।यहाँ रहकर मैं कैसे ढालूँगा, खुद से कितना सीखूंगा इस प्रश्न का उत्तर ही मेरा फल होगा और पता नही वो क्या होगा। इससे ज़्यादा कुछ सोचना अभी ज़रूरी नही।  देवेश, 12 जनवरी 2016