तब और अब हम

अभी कुछ समय पहले ही छूटे थे हम। तब ख्वाबों में "स्मार्ट सिटी" नही थी। तब हमें मसरूफ़ होना था टूटे घरों से बची साबुत इंटों को निकालने में या फिर बसे बसाए घरों को छोड़ एक ऐसे स्थान पर जाने में जिनकी साफ़ छवि हमारे मन में बन ही नही पा रही थी। उसे हम किसी भी तरह घर वापसी नही कह सकते। तब हमारी स्मृतियों में उनके नाम अंकित हुए जो शहीद हुए थे।उस वक्त हम छूटने की ख़ुशी की अभिव्यक्ति के लिए फेसबुक पर स्टेटस नही डाल सकते थे। हम तैयारी कर रहे थे खुद को फिर से गढ़ने की, तब हमारे पास हमारा पूरा इतिहास और आधी विरासत बची थी और कुछ इंसानियत भी। आगे क्या होना था किसीको पता नही था बस इतनी खबर सुनी थी कि हम राष्ट्र बनने जा रहे है, जिसका अर्थ हमें नही पता था। फिर टोपियाँ बदलती रहीं और हमारे मत भी। इसी बीच हम नींद की आग़ोश में जाते रहे धीरे-धीरे, हम बस लगभग सौ साल जगे थे। फिर कभी-कभी साल में दो-तीन बार राष्ट्रीयता हमारे कानों में सुबह के अलार्म सी बजती रही और हम उसको ठोककर बंद करते रहे। छूटने के काफ़ी समय बाद हम तरक्की कर गए और हम उड़ने भी लगे थे। रेडियो, टीवी, फोन.. हम जल्दी-जल्दी आधुनिक हो रहे थे। विदेश अब हमारी बगल में हो गए। कभी हम लड़ते और कभी गुट निरपेक्ष भी रह जाते। हमारी उम्र कुछ भी हो, हमारी रगों में वही खून दौड़ रहा था। हमारी मानसिक बनावट का साँचा नही बदला था। हम दो दिशाओं में एक साथ दौड़ना चाहते थे। अब हम adidas पहन रहे हैं, rayban हमारी दृष्टि बन गई है, और हमारा समय fastrack हमें बताता है। अब हम किसी का भी जूठा खा लेते हैं,'लव मैरिज' आज अजूबा नही है।पर हमारी चाल अजीब सी है, हम जितना आगे बढ़ते हैं उतना ही पीछे भी जड़ें गहराते रहते हैं। हम जितनी समानता की बातें करते है उतनी ही जातिगत गालियां क्रिएट करते हैं। हम हर तरह से नए बनना चाहते हुए भी व्यवहारिक तौर पर जालों से लिपटे रहते हैं। फिर कहीं एक स्थिति ऐसी आती है जब हम अपने सुसाइड नोट में अपने गुनाहगारों को भी "निर्दोष" लिख देते हैं। कोई नेता टुच्चई की हद पार कर सबकी जात गिनाता है। सभी पार्टियां अपने-अपने झंडे लेकर किसी आर्ट्स फैकल्टी पर धरना दे देती है। सबके पास हमारी माला चढ़ी अलग तस्वीर होती है। अलग-अलग पार्टी के लोग अलग-अलग फ़ोटो पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं और दूसरों के विरोध में जमकर गला फाड़ते हैं, और हम जनता फिर अलार्म वाली घड़ी को ठोककर बंद कर देते हैं। अब हमारी स्मृति में शहीदों से ज़्यादा उनके नाम दर्ज होने लगे है जिनकी या तो हत्या कर दी गई या फिर वो आत्महत्या को मजबूर कर दिए गए। हम देख रहे है, समझ रहे है अपने हिसाब से दुःख भी व्यक्त कर देते है, पर ये सब हमें कितना बेचैन करता है? पता नही इसपर कुछ कहना चाहिए या हमारी तरह ही मूक रह जाना चाहिए।

देवेश  27जनवरी   2016

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