एक बयान

हमें कहा गया कि हमें निश्चित समय पर वहाँ पहुँचना है। हम अपने शाम के काम स्थगित कर समय से पहले पहुँच गए। यह एक बड़ा पार्क है। सूखा हुआ पार्क। इसमें घास उगने की कोई संभावना नही बची है, पर कहीं-कहीं दूब चमकी सी उगी हुई है जिसे देखकर अचंभा ही होता है। ये रैन बसेरे के बाहर का आँगन है।  ये उनकी जगह है जिनकी कहीं कोई जगह नही। लेकिन से सभी कुछ ना कुछ काम करते है। बड़े भी बच्चे भी। कुछ बच्चे पढ़ते भी हैं। 


सभी बच्चे बीच में बैठे हुए हैं और सर ऊपर कर उसे सुन रहे हैं जो ज़ोर-ज़ोर से भाषण दे रहा है। वो नीली कमीज वाला आदमी इन सभी का पहचाना हुआ है। ये आदमी इन्ही के अधिकार की बात कर रहा है। बीच में बैठे बच्चों को घेरा बनाकर घेरे हुए हैं कुछ जवान और बूढ़े लोग जो इनके बीच के नही हैं। वो इनसे ज़्यादा सुथरे हैं। इन सभी से ज़्यादा समझदार। दिलवाले हैं या नही ये नही पता।


बीच में एक मैली सी सफ़ेद टी-शर्ट में एक लड़का खड़ा हुआ है। कल ही कि बात है इसे पुलिस ने पीटा है। वो ख़ुद ही अपनी आपबीती धीरे-धीरे बता रहा है। लोग सुन रहे हैं उसका अनुभव। वो बता रहा है कि वो किसी मसले को लेकर थाने में एफआईआर दर्ज कराने गया था, पर पुलिस ने उसे जेबकतरा कहा और मार-पीटकर भगा दिया। वो कह रहा है कि उसके पास इस घटना की वीडियो भी है। 

नीली कमीज़ वाला आदमी लड़के की माँ को बुलाता है और उससे कहता है कि साल दो हज़ार पंद्रह का अपना अनुभव बताए। महिला पुलिस द्वारा की गई मार पिटाई के अलावा शारीरिक शोषण की अपनी कहानी बुलंद आवाज़ में कह सुनाती है और न्याय की माँग करते हुए हाथ जोड़ लेती है। यहाँ कोई मीडिया नही है। क्योंकि यहाँ भीड़ नही है।

अब हम पाँच लोग बीच में खड़े हैं। इस विरोध प्रदर्शन में हम गा रहे हैं मुक्तिबोध की एक कविता। वो कविता जिसका हर एक शब्द भारी है। हमारे बाद सभी वो कविता दोहराने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उन्हें कुछ समझ नही आ रहा। यहाँ हमारे द्वारा मुक्तिबोध को गाया जाना मेरे लिए एकाएक एक शर्मनाक घटना में परिवर्तित हो गया है। हम पाँच संवेदनहीन लोग गाए जा रहे हैं। हम केवल गा नही रहे हम मखौल उड़ा रहे हैं इन अशिक्षितों का।

बात केवल इतनी ही तो नही है। हम इस पूरी घटना को अपनी मर्ज़ी से रच रहे हैं। सब बना बनाया है। सोचा समझा है सब। यहाँ जो भी हो रहा है हम उस सभी को जमा कर रहे हैं अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिए। इस बात को किस तरह लिया जाय समझ नही पा रहा हूँ। 

 ये एक तरह का अंधेरा ही है। लेकिन ये अंधेरा वो नही है जिसकी बात मुक्तिबोध ने की होगी। यहाँ सब निरर्थक सा हो गया है। सब भारी सा। सब ख़त्म होते ही हम निकल गए हैं। मीना बाजार के बाईं ओर जामा मस्जिद मेट्रो स्टेशन की फीकी सफ़ेद रौशनी में हम समा गए हैं, और अपने-अपने स्वार्थों के साथ लौट गए हैं अपनी दुनिया में।

देवेश, 5 अप्रैल 2018

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