अपनी किताबें

शुरू से ये किताबें रसोई में ही रखी थीं। सारी पत्रिकाएं भी। हर बार जब भी कोई किताब निकलता उसपर तेल की परत और गहरी हो गई होती। अंदर के कागज़ भी पीले पड़ने लगे। मैंने पापा से किताबों की अलमारी के लिए कह दिया। हमारे कमरे में एक अलमारी कपड़ों की भी है। पर वो लोहे की है। ज़मीन से पाँच फुट छः इंच ऊंची। दूसरी अलमारी की कोई जगह कमरे में बची नही। पापा ने किसी जानकार बढ़ई से कहकर तीन खानों वाला, बराबर लंबाई चौड़ाई वाला एक कामचलाऊ शेल्फ बनवा दिया। 

एक दिन दो लोग अचानक आ धमके। दीवार से कपड़ों वाला हैंगर बड़ी बेरहमी से उखाड़ दिया। मैंने जबसे होश संभाला तब से वो हैंगर वहीं, वैसे ही देख रहा था। हर बार सफ़ेदी के बाद उसके किनारों पर एक और परत जम जाती। आज उखाड़े जाने के बाद इस कमरे में हुई पहली सफ़ेदी की चमक उतने हिस्से में दिख रही थी जितने हिस्से को हैंगर ने घेर रखा था। हैंगर बूढ़ा और अपराजित सा नई शेल्फ के पास पड़ा था। उन दोनों लोगों ने नया शेल्फ उठाया। पुरानी अलमारी के बाईं तरफ दीवार से सटाया और धड़ाधड़ कीलें ठोकने लगे। मुझे बड़ी बेचैनी हो रही थी। ठका-ठक की आवाज़ से सर चकरा गया। ख़ैर किसी तरह शेल्फ संभाल लेने लायक कीलें ठोककर वो दोनों चले गए। सामने की दीवार पर वो शेल्फ बिल्कुल वैसा ही दिख रहा था जैसा पापा ने बताया था और मैंने कल्पना की थी। मैंने तुरन्त किताबों को झाड़-पोंछकर लगा दिया।

किताबें-कागज़ात-पत्रिकाएं सब तबसे वैसे ही लगे हैं। हर बार इन्हें ठीक से लगा देने की इच्छा के बाद इन्हें फैलाकर बैठ जाता हूँ। हर एक का चेहरा फिर से देख-पहचान लेता हूँ। इनमें से कुछ किताबें मेरी नही हैं। उन्हें जल्द से जल्द वापस करने की इच्छा से भर जाने के बाद भी कभी उन्हें पढ़ लेने की इच्छा नही बन पाती। सबसे नीचे वाले हिस्से में वो किताबें हैं जिन्हें अभी प्रयोग में ला रहा हूँ। या जिनकी ज़रूरत इन दिनों पड़ सकती है। इस तीसरे हिस्से को जँचाने के चार दिन बाद फिर से ये वैसा ही हो जाता है। अव्यवस्थित। ये बिल्कुल मेरी ही तरह बदलता है। हर बार किताबें लगाते हुए ऐसा तरीका खोजने की कोशिश रहती है जिससे ज़्यादा से ज़्यादा किताबें लग जाएं और सबका चेहरा भी दिखता रहे। पर हर बार नाकामी ही हाथ लगती है। 

अब भी मैं इस शेल्फ के सामने ही बैठा हूँ। इसे देखकर हमेशा बेचैनी होती है। इसे मैं इन पाँच सालों की कमाई कह सकता हूँ। पर कहना नही चाहता। इनमें अधिकतर किताबें वो हैं जिन्हें कभी पढ़ नही पाया। कुछ वो भी हैं जिनमें पन्द्रह-बीस पन्नों से आगे नही बढ़ पाया। कुछ डायरियाँ हैं जिन्हें भर चुका हूं, और भरना बाक़ी है। ये पता नही किस क़दर मुझमें उतरती जाती हैं। एक चित्र की तरह मैं लगातार इन्हें इसी तरह देखता रहता हूँ। ये किताबें देखने भर से इतना बेचैन कर देती हैं कि हाथ फड़कने लगते हैं। अचानक मन होता है कि इन्हें कहीं फेंक आऊं। नही। मेरा मन करता है कि इन्हें ऐसे ही आग लगा दूँ। पर मुझे इन किताबों से प्यार है। फिर भी इन्हें फाड़ देने का भाव मन से कभी नही जाता। मैं किस दिन के लिए इन्हें इस तरह जमा कर रहा हूँ? ये किताबें मुझे क्या बना रही हैं? बहुतेरे सावाल सर में बजने लगते है। अचानक से उन किताबों की याद आ जाती जो दोस्तों ने लेली पर अब तक लौटाई नहीं। तीन किताबें मेरे पास भी हैं किसी की। उन्हें जल्द ही लौटा दूंगा।

इन किताबों को देखकर उन किताबों की भी याद आ जाती है जिन्हें अब तक खरीद नही पाया। हर बार का पुस्तक मेला दो-चार किताबों में निकल जाता है। इनके अलावा जो किताबें मेरे पास आती हैं वो शचीन्द्र सर और संदीप सर की तरफ से भेंट होती हैं। हर बार सोचता हूँ कि अगली बार ज़रूर ढ़ेर किताबें लूंगा। पर ले नही पाता। ले भी लूं तो रखूंगा कहाँ? अब घर में और जगह नही है। पिछले साल जो किताबें ली थीं वो वैसी की वैसी बंधीं धरी हैं। अब इन्हें यहां से हटाकर वो नई किताबें यहाँ लगा दूंगा। फिर एक दिन उन्हें भी हटा दूंगा। पर इन किताबों को कभी आग नही लगाऊंगा।

देवेश, 4 सितम्बर 2018

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