इन दिनों : अगस्त अट्ठारह

अगस्त मेरे लिए कभी ऐसा नही रहा जैसा आज है। अगस्त महीने की याद से मुझे हमेशा दो चीजें सूझतीं हैं। सुबह की खिली-खिली धूप और रक्षाबंधन का त्यौहार। तब छत पर सोने से सुबह जल्दी आँख खुल जाया करती। सरसराती सी हवा मक्खियों को ज़रा भी चैन लेने नही देती। मैं सीढियां उतरकर आख़िरी सीढ़ी पर बैठ जाता और सामने दीवार पर पड़ने वाली धूप को देखता रहता। रक्षाबंधन वाले दिन सुबह से ही भुआओं का इंतज़ार होता रहता। वे आतीं और ज़ोर से हमारा नाम पुकारतीं। हम भागे-भागे सीढियां उतरते और उनसे चिपट जाते। नीचे दरवाज़े के बाहर सभी की चप्पलें बेतरतीब पड़ी रहतीं। मुझे दरवाज़े के बाहर इतनी सारी चप्पलें बड़ी अच्छी लगतीं, आज भी लगती हैं। मैं अपने पैर के अंगूठे और उंगलियों से उन्हें करीने से लगा देता। बुआ की चप्पल मुझे बहुत अच्छी लगती, ज़मीन से दो इंच ऊपर उठी हुई। उनकी साड़ी जैसी चमकीली। राखी बांधने के बाद शाम तक ठहाकों के कई दौर चलाने के बाद वे अपने-अपने घर वापस लौट जातीं। वो जब तक रहतीं घर गुलज़ार रहता। उनके लौटते ही एकदम सन्नाटा हो जाता। अब भी सबकुछ लगभग ऐसा ही होता है। पर अब हम बड़े हो गए हैं। 

पिछले लगभग सभी अगस्त सितम्बर के इंतज़ार में आसानी से निकलते गए हैं। इस साल के अगस्त तक पहुँचने में मई, जून और जुलाई का लंबा वक़्त लगा है। पर अगस्त अब आधे से ज़्यादा निकल चुका है। ये जाता हुआ अगस्त मुझे बहुत से नए अनुभवों से भरता जा रहा है। इनमें से पहला अनुभव है असफलता। हालांकि असफलता कभी भी किसी का नया अनुभव नही हो सकती पर असफलता हर बार नए रूपों में सामने आती रहती है। मेरी ये असफलता केवल मेरी नही है, ये एक पूरी पीढ़ी की असफलता है। व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए ये दोतरफा है। पहली, प्रतिभा के संदर्भ में और दूसरी, संबंधों के बारे में। शायद इसे प्रतिभा कह देना स्वयं के कार्यों से पल्ला झाड़ लेना ही होगा। ख़ुद को दोषमुक्त कर देना। बिना अभ्यास के प्रतिभा का कोई अर्थ नही होता। बीते वक़्त में इसी अभ्यास से लगातार बचता रहा हूँ। कुछ है जो मुझे हमेशा रोके रखता है। अब इसे पहचानते हुए भी इसे कह नही पा रहा। पर इतना तो समझ ही पाया हूँ कि अब ख़ुद को पहले से बेहतर समझने लगा हूँ। इस तरह असफलता एक तरफ तो तुलना की स्थिति खड़ी करती है तो साथ ही आत्मालोचन के लिए भी स्थान बनाती है। मैं किस प्रक्रिया से गुज़र रहा हूँ यह कुछ समय में पता चलेगा।

मैं जितना प्रतियोगिताओं में असफल रहा उससे कहीं अधिक संबंधों में रहा हूँ। घनिष्ठता का वह स्तर मैं कभी नही पा सका जो मेरे आसपास के साथी अपने मित्रों के लिए महसूस करते होंगे। मित्रता से अलग जीवन में जितने भी रिश्ते होते हैं उनपर भी मैं कभी खरा नही उतर पाया। इस तरह मैं अंदर से एक खोखला, अधिक बजता हुआ चने का दाना ही बन पाया। शायद इसीलिए मुझे कभी प्रेम भी नही हुआ। किसीसे भी नही। ख़ुद से भी नही। नए प्रकार की स्वयं की गढ़ी हुई व्यस्तताओं में रोज़-रोज़ उलझकर मैं अपने फ़र्ज़ों से भी मुकरता रहा। चिढ़न-कुढ़न की हज़ार ग्रंथियां पाले हुए कभी कोई व्यक्ति सफल नही हो सकता। इस तरह मैं बीते पांच सालों में गर्व करने लायक एक भी लम्हा नही निकाल पाया। अपने ही भीतर घूमते-घूमते अपने को इस तरह का रूप देता रहा जो हर जगह मिसफिट रहा। किसी मध्यमार्ग की खोज दर-बदर भटकने के बाद ये समझ पाया कि मध्यमार्ग जैसी कोई चीज़ नही होती। और अगर होती भी है तो बहुत अच्छी नही होती। इसलिए ख़ुद ही भटकता हुआ ना जाने किस-किस रास्ते से होता हुआ फिर उसी रास्ते पर पहुँच गया जो आगे जाकर दो रास्तों में बंट जाता है। इस दोराहे पर ठहरा भी नही जा सकता।

टकराते हुए जिस शोर का सृजन हुआ उससे मेरा आंतरिक एकांत जाता रहा। उसका स्थान लिया एक अनजान भीड़ भरे शोर ने। इस कोलाहल से दूर जाने के सभी उपाय भी असफल रहे। बाहरी एकांत तो कभी बन ही नही पाया। अब जाकर मुझे समझ आया है कि एकांत पैसे से खरीदा जा सकता है। जिंदगी में कुछ भी खरीदा जा सकता है यदि पैसा हो तो। मैं जिस एकांत की बात कर रहा हूँ उसका अर्थ अकेलापन कतई नही है। अकेलेपन तो मैं महसूस कर ही रहा हूँ। आँखें खोलने पर दूर तलक कोई नही दिखाई देता। इस अकेलेपन की व्याख्या ना ही मैं करना चाहता हूँ और ना ही कर सकता हूँ। ये बस है। इसके होने में किसी का कोई दोष नही है। शायद मेरा भी नही। या हो सकता है सारा दोष मेरा ही हो। अंततः ये अकेलापन भी मेरी असफलता का ही एक पहलू है।

इन सभी बातों को देखते-समझते हुए मैं अपने लिए अगस्त अट्ठारह को असफलता का महीना कह रहा हूँ। 'इन दिनों' को दोबारा दोहराने से बचने की कोशिशों के बाद भी बहुत कुछ दोहराता रहा हूँ। दोहराव से बचना बड़ा मुश्किल काम है। फिर जब एक व्यक्ति भाषा से इतना दूर जाता रहा हो तो उससे किस प्रकार ये उम्मीद की जाए कि वो कहे जा चुके को नई तरह से कहे। अब तो लग रहा है कि कहना भी बसकी नही रहा। जो है सो जोड़-तोड़ है। फिर पता नही उस तरह कभी वापस आ भी पाऊंगा या नही। अभी तो लगता नही कि इंतज़ार ख़त्म होने को है। बाक़ी देखते हैं ऊंट किस करवट बैठता है।

देवेश, 22 अगस्त 2018

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