साहित्यिक मूल्य और विद्यार्थी

लिखना कभी भी आसान नही होता। भोगे हुए को फिर से कई बार भोगना पड़ता है। जीवन में जिन घटनाओं से नज़र बचाकर हम निकल जाते है, लिखने के दौरान हम खुद उसका हिसाब लेते हैं। तब हम कटघरे में खड़े होते है अपने ही सम्मुख। तब हमारी बातें सुनने वाला कोई नही होता, हमें खुद ही जूझना होता है। लेखक इसे इसी तरह भोगता होगा । ऐसा नही है कि जो लेखक नही वो इस स्थिति से अनभिज्ञ है। आम इंसान भी स्थितियों को ऐसे ही भोगता है परन्तु उसमे उतनी गहराई नही होती वह बस स्थितियों को ऊपर से छूकर ही छोड़ देता है जबकि लेखक जब तक तेह तक ना पहुँच जाए मानता नही। विषयों के आधार पर दृष्टिकोण भी परिवर्तित हो जाता है। किसी साहित्यिक रचना ख़ासकर गद्य रचना में हम समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, भूगोल, मनोविज्ञान, इतिहास, राजनीतिशास्त्र आदि खोज सकते हैं। लेखक रचना में इस सभी का संतुलन के साथ वर्णन करता है। मुक्तिबोध कला के जिन तीन क्षणों की बात कहते हैं, उसका दूसरा क्षण वही होता है जब हम घटना को अपने अंदर घोटते हैं, उसे परत दर परत समझते हैं। उसके बाद अपने लेखन की विशेष शैली के द्वारा इस तरह लिखते है कि वो रचना समाज का साफ़ आईना होने के साथ-साथ समाज को एक दिशा दे। समाज की परिधि तो बड़ी हुई, यदि वह रचना एक व्यक्ति में भी चिंतन जागृत करने में सफल हो तो लेखक सफल हो जाता है। हमें साहित्य की कक्षाओं में साहित्य की महत्ता के ज्ञान के साथ-साथ कुछ आदर्श और मूल्य भी दिए जाते है। एक लेखक की पक्षधरता, साहित्य व समाज के प्रति उसका दायित्व आदि विचार हमारा साहित्य की और आकर्षण बढ़ाते है, हमें महसूस होता है हमारे माता पिता नें भी कभी हमें इन आदर्शों की पूरी सूची एक विरासत के रूप में सौंपी थी, पर क्या हम उन आदर्शों और मूल्यों का आदर करते हैं? क्या कल को यदि हम भी कुछ लिखने को प्रेरित हों तो हम उन बड़े आदर्शों और मूल्यों का निर्वाह कर पाएँगे? मुझे तो लगता है इतनी जल्दी इन आदर्शो और बड़े-बड़े मूल्यों के बारे में विद्यार्थियों को बताना ही नही चाहिए। मुझ जैसा विद्यार्थी तो इनको जानकार कभी कुछ लिखने के बारे में सोचेगा ही नही। सभी साहित्य को गंभीर रूप में नही लेते ये बात तो तथ्य है, उनमें से छंटे हुए जो विद्यार्थी उसे गंभीरता से लेते हैं वे खुद साहित्य की महत्ता और रचना प्रक्रिया से लेकर साहित्य के मूल्य और आदर्शों तक अपनी पहुँच बना लेते हैं। और जिन विद्यार्थियों को साहित्य के होने ना होने से कोई फर्क ही नही पड़ता उन्हें सुनाते रहिये भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद की बातें उनके लिए तो हिंदी एक विषय है और विषय का अर्थ हुआ अंक। अंक तो निर्जीव होते हैं, साहित्य उसके विपरीत है। जब तक व्यक्ति कोई चीज़ चुभती नही, जब तक वो बेचैन नही होता तब तक वो लिखने के लिए मानसिक रूप से तैयार नही होता। सभी आंतरिक और बाहरी दबावों को सहते हुए, वह अपने अनुभवों और अनुभूतियों को किस रचनात्मक रूप में रूपांतर करता है यह उसके विषय, पसंद  और सामर्थ्य पर निर्भर करता है।
           
देवेश  8 फरवरी  2016

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