मरवा के पौधे सी

मैं कुछ लिख दूँ  उसके लिए जिससे मैं अभी तक मिला नही। उसकी वो आदत जिससे मुझे चिढ़ होती है,और वो जिससे मुझे प्यार है।ये दोनों आदतें अगर उसमें ना हो तो शायद मैं उसे पहचान भी न पाऊं। उसका चेहरा उस पर खिंचती दो टेढ़ी रेखाएँ और सिरों पर से मुड़ते उसके भूरे बाल। छोड़ो... मैं अभी वो चेहरा नही बनाऊंगा। तुम अभी वो सारी बातें भूल जाओ जो मैंने ऊपर लिखी हैं। ठहरो मैं अभी रुक जाऊं और बंद करदूं सोचना। अभी यहाँ उसके बारे में नही कहूँगा जिसे मैं मिला नही। उसके मिल जाने पर भी क्या होगा। मैं उसके साथ रहूँगा नही। तुम इस बात को इसी तरह समझना जैसे समझते आए हो। इस कहानी में भी कुछ नया नही है। ये कहानी अगर एक पौधा होती तो ये जरूर मरवा का पौधा होता। जिसके होने न होने से किसी को कोई फ़र्क नही पड़ता। उसकी मादक महक भी दूर तक नही जाती। और इसमें कोई ऐसा आकर्षण भी नही कि कोई खिंचा चला आए।जूते के तसमों को बाँधते हुए शायद ये कहानी मुझमे घुलती रहे और मैं बस ज़रा सा हँस दूँ। गर्मी में जूते पहने रहना भी बड़ी मुश्किल का काम है। क्योंकि ये गर्मी का मौसम है। उमस को अंदर बनाए रखने का कोई तुक नही। बाहर बादल आते हैं जाते हैं पर बरसते नही। ये बादल साँवले नही हैं। इनकी सारी कालस शायद किसी डिबिया में किसी ने कैद कर ली है। पर मुझमें इतना सामर्थ्य नही कि बादलों को रंग सकूँ। मैं बस इतना कर सकता हूँ की एक पतंग पर कोई कविता लिखकर बादलों तक पहुँचा दूँ। पर अगर वो कविता का अर्थ नही समझे तो...। या मैं अब भी इस महीने के गुज़र जाने का इंतज़ार करूँ? या ऐसा करता हूँ की वही कहानी लिखकर बादलों को भेज देता हूँ। इसमें जितनी संभावना अच्छे की है उतनी बुरे की नही। शायद मेरे मन का वज़न बादलों के पास चला जाए और वो बरस जाएँ।

देवेश 14 जुलाई 2016

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