जुड़ती-टूटती बातें और हमारा मन

सुबह आँख खुलते ही फोन को खोजता हमारा हाथ अचानक उसे न पाकर रुक जाता है। और हम चौंक कर उठ जाते हैं। समय देखकर लगता है अभी तो सात ही बजे है बोहोत समय है सोने के लिए। चारदीवारी के अंदर हम ताज़ी हवा को न पाकर कुछ बेचैन तो होते है पर उसका कोई उपाए न पाकर बेशर्मों की तरह फिर सो जाते है। सवा ग्यारह बजे फिर आँख खुलती है। फ़ोन बज रहा है सब अपने अपने काम पर चले गए हैं घर में कोई नही अब फ़ोन हमें ही ढूढंना है। रात को फ़ोन भी करवटें लेता लेता कब पलंग के नीचे पहुँच गया उसे भी पता नही चला। फ़ोन सोता नही। फोन कभी सपने भी नही देखता। उसके अंदर पूरी दुनिया है पर प्राण नही। हम भी कभी फ़ोन हो जाएंगे। टाइम ज़्यादा हो गया सोचकर मजबूरी में एक ज़ोरदार अंगड़ाई लेकर उठ जाएंगे। उठ जाने पर भी कोई काम नही होगा बस यूँ ही घुमते रहेंगे अंदर अंदर। हमारे अंदर भी बाहर जैसा खुलापन होना चाहिए। पर वहां नियंत्रण हमारा होता है। सब हमारे लायक हमारा चाहा। 

उन घटनाओं को दोबारा दोबारा घटाकर हम हज़ारों बार वही जीने की कोशिश करते हैं जो नही जी पाए। उस दिन की बात जब मैं सोच रहा हूँ कि अगर उस सामने खड़े लड़के से मैंने नाटक का समय पूछा होता तब वो मुझे कुछ बताता और उसका चेहरा देखते ही मेरा शक़ पक्का हो जाता कि ये वही तन्नू वेड्स मन्नू वाला अभिनेता है। पर ये घटना हुई नही। फ़ोन पर आई मिस कॉल को देखकर मन अजीब हो गया उसी ने फोन किया जिससे बात करने का मन नही होता। उसकी बातों में नकलीपन ज़्यादा होता है। मैं उसको फोन नही करूँगा। ये सब बातें अलग अलग हैं। सब टूट सा रहा है। हमारा मन भी ऐसा ही होता है। कुछ कहा नही जा सकता। अब बस छूट जाने का इंतज़ार है। इन सभी से जो हमें पकड़ें हैं।

(देवेश, पाँच जुलाई, 2016)

टिप्पणियाँ

  1. अच्छा लिखा है. ऐसे ही लिखते रहो. इसी सघनता से कहते रहोगे और इस ताप को बाहर लाते रहोगे तो बेहतर महसूस करोगे.

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