मैं वैसा क्यों लिखूँ...?

मैं क्यों लिखूं? मेरा लिखा तुम्हे कभी पसंद आएगा ही नही। मेरा कहा बड़ा सतही सा लगता होगा तुम्हें। उसमे वो बुनावट नही होती। सारी बातें बस ख़यालों में चलती रहती है। बातें बादलों की तरह बदलती रहती है। सच कहूँ लिखते हुए मैं कुछ सोचता नही बस लिख देता हूँ। इसमें ना कोई नीति है ना कोई प्लान मैं बस लिख रहा हूँ। हाँ कभी-कभी लिखते हुए कोई मेरे सामने ज़रूर होता है जिसे मैं ये सब सुना रहा होता हूँ, पर न तो उसका चेहरा है ना मुंह। लिखने से मन सिर्फ ख़ाली नही होता भरता भी है। यही भारीपन तो सूत्र की तरह एक से दूसरी लिखावट को जोड़े रखता है। मैं यहाँ जितना अपने लिए लिखता हूँ उतना तुम्हारे लिए भी, लिखने वाले के लिए अगर वो अस्पष्ट चेहरा ज़रूरी न होता तो क्यों हमारे उस्ताद अपनी भाषा में परिवर्तन क्यों लाते? इसलिए हर लिखने वाले के लिए उसका लिखा पसंद किया जाना महत्व रखता है।
                                   तो मुझे कैसा लिखना चाहिए? जो तुम्हे पसंद आए या जो मुझे सहज हो। अगर मैं तुम्हारी पसंद का लिखते हुए वो कह ही न पाऊं जिसको कहने के लिए मैंने लिखना शुरू किया, तो इस सब का क्या फायदा। और अगर ज़्यादा कलात्मकता के चक्कर में मैं बनावटी हो गया तो? इसमें ज़रूरी क्या है? अच्छा..., लिखने के लिए क्या ज़रूरी होता है? इस पर काफ़ी सोचने की ज़रुरत है। सबके अपने मानदंड होते हैं। अब जैसे तुम्हे मीठा ज़्यादा पसंद नही पर मुझे वो अच्छा लगता है। खैर.. बात चाहे कहीं से भी शुरू करूँ पर रुकेगी इस ही बात पर। लिखना मेरी ज़िद बन जायगी। मैं लिखूंगा वैसा ही जैसा मैं लिखना चाहूँगा। इस बात को तुम मेरे घमंड के रूप में भी देख सकती हो पर ये मेरी सीमा है। शायद आगे जाकर तुम्हे वो पसंद आने लगे जो मैं लिखना चाहता हूँ।

देवेश, 11 सितम्बर 2016

टिप्पणियाँ