एकांत की चाह

अभी शाम क्यों हो गई? इसे अभी शाम नही होना था। इसे होना था बादलों से भरी दोपहर। जिसमे ज़रा भी धूप न हो। एक अँधेरी दोपहर। और मुझे इस झुण्ड से परे होना था, एकदम एकांत में। जहां मैं बारिश में भीग ना पाऊं और बैठा रहूँ उस बड़ी सी खिड़की पर जिसमें से मैं दूर पहाड़ों को देख पाऊं। अब इन्ही दीवारों को देखकर मन ऊब चुका है। ये एक खोल सी मेरे चारों और बनी हुई है। संभाल कर रखी बचपन की तस्वीरों में खुद को देखकर हैरत सी होती है। उस दिन हम मेले में गए थे। कन्धों पर बैठकर। तब हम जानते ही नही थे गुरुत्वाकर्षण क्या होता है। कि ऊपर उठने पर भी वो हमें नीचे खींचता रहता है। गुरुत्वाकर्षण सोची समझी साज़िश है। और बाक़ी सभी बंधनों का ये एक हिस्सा भर है। कभी-कभी कल्पना करता हूँ कि मैं छत पर अकेला हूँ, दूर तक कोई नही है। मैं जल्दी सीढियाँ उतरकर भागता हूँ पर किसी घर में कोई नही है। ये सब भी उसी अँधेरी दोपहर में घट रहा होता है। मेरी बेचैनी हर पल बढ़ती जाती है। चारों तरफ धूल और सूखे पत्ते हैं अन्धकार और नीरवता भी। मैं बस भाग रहा हूँ, भागता जा रहा हूँ पर कहीं पहुँच नही रहा। जब रास्ते का मुहाना आता है तब देखता हूँ की उसे सलाखों से बंद कर दिया गया है। अब वहाँ कोई आता-जाता नही। दुनिया उन सलाखों के एक तरफ है और मैं दूसरी तरफ। पता है तब रौशनी की इच्छा भी नही होती। बस हवा के एक तेज़ झोंके की ज़रुरत होती है। हम फिर भी खिंचते रहते हैं दुनिया की तरफ। तारों को देखना भी अब हम भूल गए हैं। हमें जो चाहिए वो मिल जाता है एक फोन भर से। मौसमों को बदलना अब हमने सीख लिया। अब से मैं भी फोन करके अपने हिस्से की अँधेरी दोपहर और बारिश मंगा लिया करूँगा साथ में एकांत भी।
देवेश, 9 सितम्बर 2016

टिप्पणियाँ