दुःख

कुछ कहना क्या ज़रूरी होता है कहने के लिए? कहूँ भी तो किससे? कोई सुनना भी चाहता है? ना सुने तो ना सही! अगर कहना ना भी चाहो तो कोई समझेगा नही। इस स्थिति में बस अकेले जूझा जा सकता है। जूझने में एक इंतज़ार होता है इस दौर के खत्म हो जाने का। क्या मुझे भी इसे इंतज़ार की तरह ही लेना चाहिए? मेरी उम्मीदें तो बनी नही रह सकती। इसलिए ये दौर एक ऊब से भरा रहा है। ये हाथ-पांव बंधे होने जैसा है, कि कोई रह-रहकर आपके गले की रस्सी को उस हद तक खींच लेता है कि मृत्यु एकदम नज़दीक आ जाए और अचानक रस्सी छोड़ दे। बात बस ज़बान पर आजाए पर दिमाग़ सचेत होकर ज़हर का घूँट भर ले। खुद को इस तरह रोक लेने से भी कुछ नही हो रहा। एक युद्ध ही चल रहा है। जो भले ही अदृश्य लगे लेकिन जो अपना असर छोटे-छोटे संकेतों में दिखा जाता है, जिन्हें कोई पकड़ नही पाता। ना पकड़ पाए उसमें भी मेरी ही जीत है और हार भी। ये लिखावट भी उसी युद्ध का प्रतिफल है। जिस तरह मैं यहाँ लड़ रहा हूँ उसी तरह हर कोई लड़ रहा है लेकिन आधे मेरी तरह चुप हैं। ...