कमरा अंधेरा

उनकी शब्दावली में इसे भागना कहूँगा। मैं भाग रहा हूँ। भागता जा रहा हूँ। पर कहीं पहुँच नही रहा। समझ नहीं पा रहा कि किससे भाग रहा हूँ। कहाँ पहुँच जाने की इच्छा लिए फ़िर रहा हूँ। अब तक ऐसा क्या महसूस नही किया जैसा करना चाह रहा हूँ। वो क्या है जिसे लगातार ढूँढता रहता हूँ सभी की आँखों में? उसे कोई भी नाम देने से क्यों कतराता हूँ? अपने लहज़े में मैं उसे भागना नहीं कहूँगा। वो मेरे लिए अवकाश होगा। कुछ दिनों के लिए सब से निजात। इससे कुछ न भी हो तब भी कुछ ज़रूर होगा। मैं सबकुछ को जर्जर नहीं कहूँगा। अब भी बहुत कुछ है जो बचा है भीतर और बाहर दोनों सतहों पर लेकिन उन्हें देखकर भी उन्हें छू लेने की इच्छा नही है। बच रहा हूँ। क्यूँ? पता नहीं। साफ़ कहें तो इस सब में अपनी भूमिका पहचान लेने की जद्दोजहद में पिछले दिन घुटते रहे हैं। ये दिन भी जा ही रहे हैं। इसमें सबकुछ असंतुलित है। मिसफिट है। असंगत है। सब आधा है। पर जो भी कमी महसूस कर रहा हूँ उसे उन सभी को कभी बता देने का मन होते हुए भी बता नहीं पाऊँगा। उसे भी कभी नही बताऊँगा। वो पूछ भी लेता है तब भी नहीं। मैं पहले पूरा हो जा...