अनजान शहर में...

कभी तो सोचा ही होगा वहां जाने के बारे में। फिर गया क्यों नही। किसी ने मुझे रोका भी तो नही था। पर कुछ ऐसा भी तो नही था जो मुझे वहां खींचे ले जाता। वहां मेरा घर नही, कोई रिश्तेदार नही, मैं जाता भी तो किसलिए? घूमना ही मेरा उद्देश्य होता। पर उस शहर में ऐसा क्या है जो उसे घूमने लायक बनाता है? एक नदी में ऐसा क्या हो सकता है जिसे देखने लोग कहीं से भी वहां आ सकते हैं? नदियाँ कहाँ नही है भारत में? सब जानते हैं कि पानी कैसे बहता है, किनारे की बालू कैसी ठंडी होती है, हवा नदी पर कैसी अठखेलियाँ करती है। मैंने बस इस शहर का नाम ही सुना था। मुझे नही पता था की यहाँ नदी भी बहा करती है। अब बस वहाँ जा रहा हूँ। घूमने नही। बस एक काम है। घूमने जाना मेरी किस्मत में नही है। इस बहाने ज़रा सा एक ग़ैर शहर से रु-ब-रु हो जाऊँगा। मुझे पता है मैं कभी इस शहर को फुर्सत से नही देख पाऊंगा। शहर का इतिहास आप कहीं भी पढ़ सकते है पर उसे कहीं और जी नही सकते। इतिहास और साहित्य में मैंने जिन्हें पढ़ा है मुझे पता है उनके घर आज भी यहाँ हैं पर वे मुझे वहाँ नही मिलेंगे। इमारतें भी सूनी होंगी और दो दिनों बाद मैं लौट आऊंगा। पर वो शहर मेरे साथ नही आएगा। मैं फिर लौट आऊंगा अपने शहर में। लौटना ना जाने क्यों मजबूरी लगता है। मैं लौटना नही चाहता वहाँ से कहीं और उड़ जाना चाहता हूँ। जो लोग लगातार घूमते होंगे वो पता नही कैसा महसूस करते होंगे। उन्हें तो अब आदत पड़ गई होगी उड़ने की। कागज़ के पंख होने ज़रूरी है उड़ने के लिये। आज मैं भी उड़ रहा हूँ किसी और के पंखों से। मुझे किसी ने भरोसा दिया है की कल को मैं भी किसी को पंख दूंगा। मुझे कुछ मालूम नही। भरोसा नही होता। ये सब बातें बेकार हैं। सच यही है कि सुबह वो शहर जब जागेगा तब तक मैं वहाँ पहुँच जाऊँगा पर शहर उदासीन रहेगा। उसे कोई फर्क नही पड़ेगा मेरे आने से...

देवेश, 5 फरवरी 2017

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