इन दिनों

यहाँ सब वैसा नहीं है जैसा पहले हुआ करता था। सब बदल गया है। मैं भी बदल गया हूँ। अब वैसा कुछ भी महसूस नही होता जैसा पहले हुआ करता था। धीरे-धीरे सम्वेदना से दूर छिटकता गया हूँ। दिन यूँ ही निकल रहे हैं। ये इंतजार जैसा ही है। पर ये इंतजार किसी समय का है या किसी व्यक्ति का समझ नही पा रहा हूँ। ये एक भरी दोपहरी है। चेहरा अब पसीने से भरा रहता है। ये उमस अब मुझमें भी उतरती जा रही है। ये सब बातें जिस शांत भाव से लिख रहा हूँ ये उससे दुगनी आक्रामकता से मेरे अंदर पल रही हैं। मैं यहाँ साफ-साफ कुछ नही कहना चाहता। मैं एक भी सूत्र नही छोड़ना चाहता कि कोई उसे पकड़कर मुझतक पहुँच जाए। मैं ये भी नही चाहता कि मेरी इन अकेली बेचैनियों में कोई मेरे साथ हो। मुझे बस एकांत चाहिए जहाँ मैं अकेले जूझ सकूँ ख़ुद से। पढ़ाई से अब मोह छूट गया है। अकादमिक परिवेश से अजीब वितृष्णा हो गई है। ये एक ढाँचा है जो आपको अपनी तरह से अपने खाकों में फ़िट करने के लिए हमेशा दबाव बनाए रहता है। वो आपके सभी सपनों को रौंद डालता है। इसमें एक मज़ेदार बात ये भी है कि दुनिया-जहान में अपनी प्रगतिशीलता का डंका पीटने वाले महारथी भी अपनी ...