बीते दिन

उसने कहा था। उस घर से चले जाने के बाद उसे कोई याद नही करेगा। उसे भी पता है उसने झूठ कहा था। मैंने भी अब वो घर छोड़ दिया है। वहाँ भटकता भी नही। बस दिन भटकते हैं। मन भटकता है। उधर नुक्कड़ से सीधा नही जाता। गली में मुड़ जाता हूँ। मुड़ने पर लगता है मेरे पीछे कोई चल रहा है। जो मेरे बैग को ऊपर उठाकर इस तरह छोड़ देगा कि मैं लड़खड़ा जाऊंगा। फिर हँसती हुई एक गाली हवा में तैर जाएगी। मैं बेशक उसे याद नही करता। पर उस रास्ते में कुछ है जो मुझे खींचता है। जो मेरे साथ हमेशा चला आता है। 

कभी लगता है मैं वहीं उसी घर में हूँ, अब भी। सुबह उठने से पहले लगता है मेरे पैरों के बिलकुल सामने लोहे का वही नीला दरवाज़ा है। मैं उठूंगा तो दरवाज़े की कुंडी में अखबार में लिपटी फूलमाला टँगी होगी। पर आँख खोलता हूँ तो सामने हल्के पीले रंग की इस दीवार को पाता हूँ। लगता है एक क्षण में दुनिया बदल गई हो। जैसे सपना टूट गया हो। पर वो भ्रम ही होता है। अब तो सपने भी कम आते हैं। लगता है मेरे दिन सपनों में बीत जाते हैं, रात को देख लेने लायक सपने मैं बचा नही पाता हूँ। 

सपने सच्चाई में बदल जाने पर उतने रूमानी नही रहते। कुछ महसूस ही नही होता। शायद कुछ को होता हो। मुझे नही होता। सपने के छूट जाने का एक भाव रह जाता है। दिन खत्म होने से पहले ही वह चुभन में बदल जाता है। उस चुभन का कुछ नही किया जा सकता। इसे असंतोष कह सकते हों शायद। इसे महसूसते ही सब जड़ सा हो जाता है। सब ठंडा। तब कुछ कर नही पाता। तब वह दोस्त याद नही आता। उसे याद नही करता। बस सपने देखता रहता हूँ। सपनों को कहीं उतारता भी नही। वो पढ़ेगा तो सपने में उतर आएगा। हँसेगा और सभी किताबें फेंक देगा। मंदिर में शिवजी की पूजा करेगा। और कहेगा कि काशी जाना है। शायद वो अब भी काशी में हो। काशी उसका सपना था।

सर्दी इतनी बढ़ गई है कि न चाहते हुए भी इतना लबादा ओढ़ना पड़ता है। कपड़े कई दिनों में सूखते हैं। सूरज अब मोमबत्ती नज़र आता है। पापा आज कोयला ले आए हैं। बड़ी चाची घर नही हैं। कोयला कौन जलाए। बड़े चाचा होते तो इतनी लकड़ी जुगाड़ लेते कि पूरी सर्दी चूल्हे पर घर भर का पानी गर्म हो जाए। पर लोहे की रॉड धुआं नही करती। वह आसान है। उससे भी सावधान रहना होता है। जब छत पर चूल्हा था तब दो बार आग लग गई थी। एक बार तो कुर्सी खाक हो गई। पड़ोस वाली अम्मा नें बताया तो पानी लेकर भागे।

पेटी की लकड़ियाँ चूल्हे के पास ही रखी रहती थीं। उपले वगैरह भी। एक बार की बात है। छत पर चाचा सो रहे थे। भरी सर्दी में, छतपर। पड़ोस की अम्मा नें उस दिन भी आवाज़ लगाई। सब फिर बाल्टी उठाकर छतपर भगे। चाचा को ज़रा भी भनक नही लगी कि आग फैल गई। पर बिस्तरों तक आग नही पहुँची थी। जब शोर मचा तो चाचा की नींद टूटी। आग देखकर चौंके नही। चुपचाप उठे। चुपचाप रजाई-बिस्तर समेटा और चुपचाप सीढियां उतर गए। कभी-कभी यही घटना याद करके हम खूब हंसते हैं। और मन में कहते हैं, वो दिन चले गए।

हम कभी-कभी समय पर भी हँसते हैं। हँसते हैं उसी तरह जिस तरह नही हँसना चाहिए। अपने पर हँसते नही। दया करते हैं। ये बात शायद किसी कविता में पढ़ी थी।

टिप्पणियाँ

  1. बहुत प्यारा सा,अपना सा पर कुछ बीच में ही छूटा हुआ सा

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    1. जो छूटा हुआ है उसे जान बूझकर छोड़ दिया गया है। ये उतना ही टूटा हुआ भी है। उससे बचना था बस।

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