बुज़ुर्गों के साथ अतीत का सफर
शाम को जब सूरज ढल चुका था, तब पता नही क्या पर कुछ महसूस हो रहा था। तब किसी की याद भी नही आ रही थी। ना ही कोई असंतुष्टि ही थी। मैं बस अपने अंदर चुप हो रहा था। अंदर चुप होने का मतलब बाहर बोलना क़तई नही है। जब मैं अंदर से चुप होता हूँ तो मेरी आँखों की गति तेज़ हो जाती है। तब मैं तीन हो जाता हूँ एक जो बहार चुप है, दूजा जो भीतर चुप है और तीजा जो दिखने वाली वस्तुओं का सम्बन्ध आपस में जोड़कर नए-नए प्रयोग करने में लग जाता है। और ये सारी जोड़-तोड़ अंत में इस नतीजे पर पहुँचती है कि मैं उदास हूँ। अब भई उदास क्यों हूँ ? खोजते-खोजते भी इस खोज का अंतिम छोर नही मिल पा रहा है। हाँ एक कारण हो सकता है कि मैं बहुत थका हुआ हूँ। इस थकावट का कारण संभवतः कोई सफ़र रहा होगा। शायद बुज़ुर्गों के साथ पिछले दशकों में दौड़ आया होऊँ। पर बुज़ुर्ग कैसे दौड़ेंगे वे तो बुज़ुर्ग हैं? पर तब वो भी जवान हुआ करते थे। तब अगर मेट्रो होती तो वे कभी एक्सेलरेटर पर कदम तक नही रखते। तब उनके पिताजी दवाइयाँ ना ख़रीद पाने के कारण मरते नही। तब वो आसमान में उन्मुक्त भाव से उड़ जाते। पर तब इतना पैसा नही था। पर इसका ये मतलब नही की उनके पास ...