मक़बूल उर्फ़ हुसैन


अब तक उसके चेहरे के साथ कोई ऐसा चेहरा शायद ही नज़र आया हो जो बचपन से अब तक साथ रहा हो। वक़्त सभी को एक-एक कर छीन लेता है। बेशक वो अपने माँ-बाप की अकेली औलाद था। उसने कभी अपनी माँ को नही देखा, उसे नही पता कि उसकी माँ किस तरह किस ख़ुशी से उसे चूमती होगी, उसके चीख़-चीख़ के रोने पर किस तरह बेचैन हो जाती होगी। उसके पिता उसके साथी रहे, जब तक उनकी उम्र रही वे अपने लड़के को संभालते-संवारते रहे। लेकिन लड़के के ज़हन में जो अब तक बसा हुआ था वह था लम्बी अचकन में समाया एक बुज़ुर्ग। ये लड़का अपने दादा की उंगली पकड़े ना जाने कहाँ-कहाँ घूमा। कभी तो उसे लगा होगा कि उसकी माँ का चेहरा ज़रूर दादा जैसा रहा होगा। एक दिन अचानक दादा यूँ गए जैसे कभी थे ही नही। लड़का अकेला हो गया। दादा की अचकन के लिपटकर कितना, कितने दिन रोया। चेहरा पीला पड़ गया। ज़िन्दगी रंग बदलती रही लेकिन इसके ज़हन में दादा की याद बराबर बनी रही।
                                                                               
                                                                             अपने घर की लालटेन से इसे बड़ा लगाव था। इसने लालटेन को कभी केवल रौशनी करने वाला यंत्र नही समझा। यंत्र भले ही जीवित प्रतीत हो लेकिन वो होता निर्जीव भी है। लालटेन की भी इसे जीवित महसूस होती, उसकी रौशनी में इसे दुनिया का सारा सौन्दर्य नज़र आता। जैसे सारे संसार की सारी चमक एक बाती में जोड़ दी हो। इसी गर्म रौशनी में ढलते अनेक रंगों को इसने अपने मन में जज़्ब कर लिया।
                                                                                 इस लड़के का नाम मक़बूल  है। कक्षा में इसने ब्लैक बोर्ड पर अपने अध्यापकों के सटीक चित्र बनाकर अपने साथियों का ख़ूब मनोरंजन किया। इसके हाथों में गज़ब की कला। दुनिया के हर रंग से प्यार। हाथों में ब्रश आते समय नही लगा। पिता भी बेटे की कला का पहचान गए, खूब साथ निभाया। शिक्षा और अभ्यास से मक़बूल अपना आकार ग्रहण करने लगा। इंदौर और मुंबई जैसे शहर इसके अनुभव के आधार बने और ये लड़का बन गया पेंटर, फिल्मों के ये बड़े-बड़े पोस्टर पेंट करने वाला पेंटर, जो मेहनत तो बड़ी करता लेकिन मेहनताना छोटा पाता। ये भी बड़े संघर्ष का समय रहा। फिर फ़जीला बीबी से निकाह हुआ, तब से पीछे मुड़कर नही देखा।
                                                                                  इसने अपने वर्तमान में भी अपने अतीत को अपने साथ बनाए रखा। इसे सब याद था... पंढरपुर की गलियाँ, दादा, इंदौर, बचपन के मेले सबकुछ। अपना अतीत अपनी पोटली में लिए ये रंगता जाता है कैनवस दर कैनवस धरती, आकाश, जल, औरत, आदमी, बच्चे सभी। गाढ़े रंगों में ज़िन्दगी का गाढ़ापन घोलकर ये रंगने लगा ज़िंदगियाँ, धीरे-धीरे मक़बूल धुलता गया और निखरता गया मक़बूल फ़िदा हुसैन। ये जिस पेंटिंग पर हस्ताक्षर करते उसकी कीमत आसमान छूने लगती। इनकी पहली फिल्म को जब सभी ने नकार तो विदेशियों ने उसे उचित सम्मान दिया। जब ये माधुरी पर फ़िदा हुए तो 'गजगामिनी' बना बैठे। एक अलग ही रंग हुआ इनकी फिल्मों का। चित्रकार के हाथों बनी ये फ़िल्में भी चटख रंगों, चित्रात्मकता और सांकेतिकता लिए हुए थी।
                                                                                    साहब की पेंटिंग्स में जो औरतें मिलती हैं उनमें अधिकतर का चेहरा नही मिलता लेकिन चेहरे के पीछे की ममता ज़रूर संप्रेषित होती है। हुसैन ने अपनी माँ को नही देखा था, शायद इसीलिए वो चेहरा नही मिलता केवल मदर टेरेसा का चोला मिलता है जिसमें ममता का अथाह सागर समाया होता है।
                                                                                    धीरे-धीरे मकबूल एक बड़ा पेंटर तो बन गया लेकिन गुज़रे दिनों और लोगों को कभी भूला नही। वह चाहे दुनिया के किसी भी कोने में हो दिन में एक बार चाए में रोटी डुबाकर खाना नही भूलता। वह भले ही ब्रान्डिड कपड़े पहनता पर रहता नंगे पैर। उसके सारे अनुभव बार-बार जीवित होते रहे उसकी चित्रकारी में। जैसा मक़बूल बचपन में था बुढ़ापे तक वैसे ही रहा। एक पेंटिंग का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ। हुसैन बड़े आहत हुए। देश छोड़कर चले गए फिर कभी लौटे नही, बस एक ख़बर आई 'मशहूर पेंटर एम. एफ. हुसैन का इंतकाल हो गया।

 ( ऊपर दिया गया चित्र हुसैन जी कि आत्मकथा हुसैन की कहानी अपनी जुबानी से लिया गया है। हालाँकि जिस शैली में ये लिखा गया है इसका नाम मक़बूल की कहानी हुसैन की जुबानी ज़्यादा ठीक रहता।)

देवेश, 11 जून  2017

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