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इन दिनों : अगस्त पच्चीस

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उस वक़्त मुझे लगा मैं राग भैरव में भीगा हुआ हूँ. समुद्र में मेरे पैर हैं. मैं सूरज को ऊपर खींच रहा हूँ. जबकि ऐसा कुछ नहीं था. 1. ये दिन भी ऐसे ही बीतने थे. निरुद्देश्य. तय दिनचर्या और वेतन के बिना. मैं या तो घर बैठा था या कहीं भटक रहा था. सब चीज़ों में संगति बनाने की कोशिश में मैं ख़ुद टूट रहा था. जीवन के तमाम निर्णय ग़लत लिए जाने के बाद भी दूसरों की दी ज़रा सी रौशनी में अन्धकार को देख रहा था. मुझे आगे कुछ नहीं दिखता था. उन्हें दिखता रहा होगा. तभी रास्ता बताते थे वे. उन्होंने मुझसे ज़्यादा दुनिया देखी थी. लेकिन वे ये नहीं जानते थे कि हम दोनों की दुनिया अलग-अलग है. उनके अंदाज़े मुझपर उलटे पड़ सकते थे. पड़े भी. 2. मैं जीवन के दस साल लगाकर उस कला में माहिर हुआ जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं थी. जिसमें रोटी कमाना मुश्किल था. वह कला अपने आप में इतनी अकेली थी कि उसे इधर-उधर की बैसाखियों की ज़रूरत हमेशा रहती. मैंने इस कला के कलाकारों का सम्मान किया. लेकिन समझा नहीं वे क्या करते हैं और कैसे करते हैं. मैंने उन्हें दूर से देखा था. इसलिए उन सबका सम्मान करता था मैं. फिर कई युक्तियों से मैंने उनके जीवन में झ...

स्वप्नभंग

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    भूल गया किस रात वह सपना आया था. सुबह उठा तो उसकी याद मन पर चादर की तरह फैल गई. देर तक बैठा रहा. सोचता रहा क्यों वह सपना आया मुझे? क्या मैं लगातार इस बारे में सोच रहा हूँ? क्या मैं सच में वह ख़ालीपन गहराई से महसूस करने लगा हूँ? मेरे मन में कोई स्थान ख़ाली है? जिस पर मैं किसी अधिकारी को बिठाना चाहता हूँ? कोई अधिकारी ही मेरा गुरु होगा! मैं किसी रेतीले परिवेश में हूँ. भूरा, संतरी और पीला यह परिवेश भारी है. मेरी देह और मन ख़ाली होने पर भी भारी हैं. मैं किसी रेगिस्तान में भटक रहा हूँ शायद. मैं अकेला हूँ. भयभीत नहीं हूँ. लेकिन कमज़ोर हूँ. मेरी पीठ झुकी हुई है. मैं चलते-चलते झुकता गया हूँ. और अकेला होता गया हूँ. अगले क्षण मैं किसी ईमारत के भीतर हूँ. इस ईमारत में अन्धेरा है. बायीं ओर एक चौखट है. उसपर लगे दरवाज़े खुले हुए हैं. दाईं ओर मेरे ही क़द का एक व्यक्ति सीधा खड़ा है. उसके लहरिया बाल कानों और कन्धों तक पहुँच रहे हैं. इस व्यक्ति की हर गति जैसे तालबद्ध है. हर बात जैसे किसी सम पर जाकर रुकती है. तेते कट गड़ी गाना धा   , तेते कट गड़ी गाना धा   , तेते कट गड़ी गाना धा! उसका चेह...

दोस्तियाँ

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दोस्ती होने के लिए न जाने क्या है जिसका होना ज़रूरी है. आज तक जान नहीं पाया. जो दोस्त बने वे बस बन गए. जो नहीं बने वे फिर कभी नहीं बने. उसके लिए किसी वजह की ज़रूरत नहीं थी. 1. एक वक़्त सोचा करते थे कि हम जीवन में आगे भले ही बढ़ें पर साथ बने रहेंगे. इसी तरह मिलते रहेंगे. बातें करते रहेंगे. एक चाय ख़त्म हो जाने पर दूसरी मंगाते रहेंगे. एक दिन आएगा जब बीते दिनों को याद करेंगे. चश्मे उतारेंगे, पोंछेंगे, दोबारा लगाएंगे, बीते किस्से दोहराएंगे और ठहाके लगाएंगे. मेरी कल्पना में तो ये सब इतना साफ़ है कि सबके कपड़ों के रंग तक पहचान रहा हूँ. 2. अतीत में भविष्य शनील के कपड़े सा मुलायम लगा करता था. उसकी दूसरी तह को हम कभी छू नहीं पाए थे. हम किन्हीं गुलाबी सपनों में डूबते उतराते रहते थे. सब बहुत हल्का लगता था. सब चिंतामुक्त. अगर कोई चिंता थी तो उसका निवारण भी था. निवारण अपने पास नहीं था तो दोस्त थे. अपनी कुछ चिंताएँ उनके सर भी डाली जा सकती थी. वह वक़्त बहुत जल्दी गुज़र गया. हमारी उम्र बढती गई. चिंताएँ भी. जो नहीं बढ़े वे थे दोस्त. 3. एक वक़्त मुझे ऐसा महसूस होता था कि मेरे इतने दोस्त है, अगर रोज़ एक दोस्त ...

इन दिनों : अगस्त तेईस

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अगस्त की धूप-छाँव गई, छत गई, हवा गई, नीम गया, पड़ोसी गए, दोस्त गए, मन गया अब क्या बचा है यहाँ? जो किताबें जमा की हैं वे किस काम आएंगी मेरे? उन्हें एक दिन इकठ्ठा कर फूँक दूंगा. भीतर जो बचा रहेगा उसे भुला दूंगा. उसे याद रखकर करूँगा भी क्या? इन पाँच सालों में क्या बदल गया? सबकुछ और कुछ भी नहीं. मैं अभी भी यहीं हूँ. यहीं बैठा हूँ और सामने के अन्धकार को देख रहा हूँ. इसे अन्धकार न भी कहूँ तो यह घना धुंधलका है. इसके पार देखा नहीं जा पा रहा. मन में चित्र बनते और बिखरते हैं. जीवन की योजनाएँ बनती हैं और टूट जाती हैं. मैं इन्हें बनता-टूटता देखता हूँ और एक गाढ़े मौन की रचना करता हूँ. हर शाम मैं मौन के स्थान पर आपाधापी को चुनता हूँ और कुछ देर उस मौन को खो देता हूँ. रात अपने में लौट आता हूँ. और फिर शाम तक अपने साथ बना रहता हूँ. यही इन दिनों दिनचर्या है. मैं इसे जल्दी ही तोड़ देना चाहता हूँ. मैं इस वक़्त नौकरी कर रहा होता तो इस वक़्त लिख नहीं रहा होता. इसका मतलब है कि मैं लिख रहा हूँ, क्योंकि मैं नौकरी नहीं कर रहा. जितने साक्षात्कार मैंने दिए नहीं उससे अधिक छोड़ चुका हूँ. मैं उनकी भाषा नहीं बोलता. वे मेरी....

उदास बातें

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किसी तिमिर में बैठकर मैं खिड़की से बाहर देख रहा था। बाहर रौशनी थी। मुझे लगा कि बाहर रौशनी है। रौशनी को देखना चाहिए। उसे छूना चाहिए। मैं उठकर बाहर जाता उससे पहले मैं बैठ चुका था। मैं बैठकर रौशनी को देख रहा था। और उसे छूने के बारे में सोच रहा था। मैं उठा और बाहर जाने लगा। बाहर रौशनी थी। मैं बाहर जाता कि पता चला चौखट आसमान से धरती की ओर आती है। उसका आकार मैंने पहली बार देखा। चौखट नें मुझे रोक लिया। मैंने रौशनी को देखा। मैनें रौशनी को छुआ नहीं। मैं रौशनी से डर गया। क्या मुझे रौशनी चाहिए? मेरा कमरा कबसे यही है। अंधा। मैं किस तरह अब तक इस अंधेरे में रह गया? यह उसका सवाल था। मैंने ये नहीं कहा कि यहाँ बत्ती नहीं आती। मैंने कोई ग़ैर रचनात्मक सा जवाब दे दिया। उसे अचम्भा हुआ। अब तक यहाँ तस्वीरें क्यों नहीं है। इस बात पर भी उसे अचम्भा होना था। लेकिन तस्वीरों के बारे में उसनें पूछा नहीं। मैनें भी उसे कुछ नहीं बताया। मैनें कहा नहीं कि क्यों तस्वीरें यहाँ नहीं हैं। क्या उसके उस सवाल से मुझे डर जाना चाहिए था? उसी तरह जैसे मैं रौशनी से डर रहा हूँ। ये संकोच नहीं है। कोरा डर है। इसका क्या करूँ? चौखट उभरती ...

दुनिया देख, फिर आईयो

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अभी यहीं इस कुर्सी पर बैठा हूँ। बाहर नहीं जा रहा। बाहर जाता हूँ तो मन में जो बन रहा है वह टूट जाएगा। इस पंक्ति के तीसरे कमरे में बैठकर मैं सोच रहा हूँ कि बाहर का मौसम कैसा होगा। बाहर धूप होगी या बादल ? हवा बोल रही होगी या चुप होगी ? आसमान गर दिख रहा होगा तो उसका रंग कैसा होगा ?   इस कमरे में अगर एक खिड़की होती तो ये सवाल बन ही नहीं पाते। मेरी नज़र मुझसे पहले बाहर जा चुकी होती और इन तीनों और इनके अलावा सबका हाल-चाल ले चुकी होती। लेकिन यहाँ कोई खिड़की नहीं है। केवल एक दरवाज़ा है। जिसका प्रयोग अंदर आने और बाहर जाने के लिए किया जाता है। दरवाज़ा खिड़की नहीं है। कुछ बातों को लेकर मैं स्पष्ट हूँ। जैसे कि बाहर जाने पर मुझे लोग नहीं दिखाई देंगे। अगर दो-चार लोग दिखेंगे भी तो कुछ देर में वे नहीं होंगे। उनकी जगह कोई और दो-चार लोग ले लेंगे। ये लोग खड़े होकर बातें नहीं कर रहे होंगे। न ही खेल रहे होंगे। न ही ख़रीदारी कर रहे होंगे। ये लोग घर जा रहे होंगे। उन घरों में , जो इनके नहीं हैं। उन घरों को निपटाकर इन्हें दूसरे घरों को भी निपटाना होगा। यहाँ रहने वाले लोग घरों से बाहर नहीं निकलते। निकलते हैं तो...

जिस रात नींद नहीं आई

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रात नींद नहीं आई। जब नींद नहीं आती तो स्मृतियाँ आती हैं , लो ग आते हैं , असफलताओं के चेहरे बादलों में दिखने लगते हैं। मैं उस वक़्त बादलों को देख पाता तो उनमें अपने हासिल को देखने की कोशिश करता। उन्हें देखकर शायद नींद आ जाती। पर बादल हैं नहीं और उनके दिख जाने लायक आसमान भी नहीं बचा है अब। पहले लगता था कि दुनिया जैसी है एकदम वैसे ही रहेगी। कुछ भी नहीं बदलेगा। हमारे बूढ़े हो जाने तक गैंदो अम्मा अपना बटुआ खोलकर हमें दो का सिक्का देती रहेंगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। ऐसा होता नहीं है। दुनिया बदलती है , बहुत जल्दी बदलती है। हमारी दुनिया भी कितनी बदल गई है। कभी सोच सकता था कि ज़िंदगी में एक ऐसा साल भी आएगा जिसका कोई हिसाब-किताब रख नहीं पाउँगा ? अगर काग़ज़ न होते तो इस दुनिया का क्या होता ? काग़ज़ों के होने पर दुनिया अधिक बर्बाद हुई है। काग़ज़ न होते तो वो सभी पेड़ शायद अभी हमारे सामने होते जो इस वक़्त काग़ज़ बनकर सरकारी दफ्तरों में धूल फांक रहे हैं। तब एक-एक काग़ज़ जुटाने के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ता। तब इंसान काग़ज़ों में बदलते नहीं। हालाँकि इंसान बने रहते इसका भी कोई दावा नहीं किया जा सकता। जितनी किताबें दुनिय...