फैसले की घड़ी में

कभी सोचा नही था कि मेरी ज़िन्दगी में भी एक ऐसा समय आएगा जब खुद को इतना उलझा हुआ पाउँगा। बचपन में किसी विषय की गहराई का पता नही होता, तब सब एक खेल जैसा लगता है। तब लगता था की काश बिना पढ़े ही मैं बड़ा हो जाऊं। मोटी-मोटी किताबें देखकर तब भय होता था। आज जब मैं ग्रेजुएट हो चुका हूँ तो एकाएक भविष्य जैसे धुंधला गया है। अभी कुछ समय पहले तक सब स्पष्ट था। अब सारी चीजें एक दूसरे में घुल रही है, सारे विचार, योजनाएं, दावे, आशाएँ, संभावनाएं। अब जैसे सारी योजनाओं के आगे एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। इसका उत्तर मुझसे बनता ही नही। मैं क्या करूँ? इस सब में मैं खुद को अकेला महसूस नही कर रहा, मेरे साथ एक पूरी पीढ़ी है जो अभी इसी वक़्त इन्ही सवालों से जूझ रही है। इस सब से पार पाना जितना कठिन है उतना आसान भी। सभी हमें कह देते हैं कि ये रास्ता सही है, ये गलत, इसमें ज़्यादा कठिनाई होगी या ये रास्ता ज़्यादा बेहतर रहेगा। उन सभी के सुझाए रास्तों पर चलने को हम तैयार भी हो जाएं तो। क्या हम चल भी पाएंगे? कहीं ऐसा तो नही की हम वो रास्ता कभी चुनना ही न चाहें। किसी सेमीनार में किसी ने कहा था कि सबसे पहले ...