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फैसले की घड़ी में

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कभी सोचा नही था कि मेरी ज़िन्दगी में भी एक ऐसा समय आएगा जब खुद को इतना उलझा हुआ पाउँगा। बचपन में किसी विषय की गहराई का पता नही होता, तब सब एक खेल जैसा लगता है। तब लगता था की काश बिना पढ़े ही मैं बड़ा हो जाऊं। मोटी-मोटी किताबें देखकर तब भय होता था। आज जब मैं ग्रेजुएट हो चुका हूँ तो एकाएक भविष्य जैसे धुंधला गया है। अभी कुछ समय पहले तक सब स्पष्ट था। अब सारी चीजें एक दूसरे में घुल रही है, सारे विचार, योजनाएं, दावे, आशाएँ, संभावनाएं। अब जैसे सारी योजनाओं के आगे एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। इसका उत्तर मुझसे बनता ही नही। मैं क्या करूँ? इस सब में मैं खुद को अकेला महसूस नही कर रहा, मेरे साथ एक पूरी पीढ़ी है जो अभी इसी वक़्त इन्ही सवालों से जूझ रही है। इस सब से पार पाना जितना कठिन है उतना आसान भी। सभी हमें कह देते हैं कि ये रास्ता सही है, ये गलत, इसमें ज़्यादा कठिनाई होगी या ये रास्ता ज़्यादा बेहतर रहेगा। उन सभी के सुझाए रास्तों पर चलने को हम तैयार भी हो जाएं तो। क्या हम चल भी पाएंगे? कहीं ऐसा तो नही की हम वो रास्ता कभी चुनना ही न चाहें। किसी सेमीनार में किसी ने कहा था कि सबसे पहले ...

जुड़ती-टूटती बातें और हमारा मन

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सुबह आँख खुलते ही फोन को खोजता हमारा हाथ अचानक उसे न पाकर रुक जाता है। और हम चौंक कर उठ जाते हैं। समय देखकर लगता है अभी तो सात ही बजे है बोहोत समय है सोने के लिए। चारदीवारी के अंदर हम ताज़ी हवा को न पाकर कुछ बेचैन तो होते है पर उसका कोई उपाए न पाकर बेशर्मों की तरह फिर सो जाते है। सवा ग्यारह बजे फिर आँख खुलती है। फ़ोन बज रहा है सब अपने अपने काम पर चले गए हैं घर में कोई नही अब फ़ोन हमें ही ढूढंना है। रात को फ़ोन भी करवटें लेता लेता कब पलंग के नीचे पहुँच गया उसे भी पता नही चला। फ़ोन सोता नही। फोन कभी सपने भी नही देखता। उसके अंदर पूरी दुनिया है पर प्राण नही। हम भी कभी फ़ोन हो जाएंगे। टाइम ज़्यादा हो गया सोचकर मजबूरी में एक ज़ोरदार अंगड़ाई लेकर उठ जाएंगे। उठ जाने पर भी कोई काम नही होगा बस यूँ ही घुमते रहेंगे अंदर अंदर। हमारे अंदर भी बाहर जैसा खुलापन होना चाहिए। पर वहां नियंत्रण हमारा होता है। सब हमारे लायक हमारा चाहा।  उन घटनाओं को दोबारा दोबारा घटाकर हम हज़ारों बार वही जीने की कोशिश करते हैं जो नही जी पाए। उस दिन की बात जब मैं सोच रहा हूँ कि अगर उस सामने खड़े लड़के से मैंने नाटक का समय पूछ...

रूबरू शायद...

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कई बार कुछ ख़यालात आते हैं, गुजरे लम्हों को अपने साथ लिए फिर हम उनके साथ हो लेते हैं जैसे किसी दोस्त के साथ, उन ख़यालों के साथ घूमने का कोई अर्थ नही होता.. बेवजह ही सही ख़यालों के माध्यम से अपने उस अतीत से जुड़ जाते है, जिसे हम कभी दोहरा नही सकते। इसे हम एक प्रक्रिया भी कह सकते है। खुद से दोबारा रूबरू होने की या परिस्थितियो को फिर से समझने की या फिर समस्याओं को फिर से सुलझाने की जिनका अब कोई मतलब नही है। इसका हमारे जीवन पर शायद ही कोई प्रत्यक्ष प्रभाव होता हो.. अपने अतीत को फिर से जीकर हम किसी मंज़िल तक शायद ही पहुँचते हो, बस हम उलझकर रह जाते है,परिस्थितियाँ भी काम करती है, हम कहाँ है? हमारा वैचारिक स्तर क्या है? या हमारा परिवेश कैसा है? इन सभी का भी हमारे अतीत को फिर से परिभाषित करने पर असर पड़ता है। इसका कोई मतलब हो या न हो मनुष्य उलझता है वर्तमान से ज़्यादा मनुष्य अतीत या भविष्य मे जीना पसंद करता है, यही मनुष्य का जीवन है। देवेश, सत्ताईस दिसंबर, 2015