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मैं वैसा क्यों लिखूँ...?

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मैं क्यों लिखूं? मेरा लिखा तुम्हे कभी पसंद आएगा ही नही। मेरा कहा बड़ा सतही सा लगता होगा तुम्हें। उसमे वो बुनावट नही होती। सारी बातें बस ख़यालों में चलती रहती है। बातें बादलों की तरह बदलती रहती है। सच कहूँ लिखते हुए मैं कुछ सोचता नही बस लिख देता हूँ। इसमें ना कोई नीति है ना कोई प्लान मैं बस लिख रहा हूँ। हाँ कभी-कभी लिखते हुए कोई मेरे सामने ज़रूर होता है जिसे मैं ये सब सुना रहा होता हूँ, पर न तो उसका चेहरा है ना मुंह। लिखने से मन सिर्फ ख़ाली नही होता भरता भी है। यही भारीपन तो सूत्र की तरह एक से दूसरी लिखावट को जोड़े रखता है। मैं यहाँ जितना अपने लिए लिखता हूँ उतना तुम्हारे लिए भी, लिखने वाले के लिए अगर वो अस्पष्ट चेहरा ज़रूरी न होता तो क्यों हमारे उस्ताद अपनी भाषा में परिवर्तन क्यों लाते? इसलिए हर लिखने वाले के लिए उसका लिखा पसंद किया जाना महत्व रखता है।                                     तो मुझे कैसा लिखना चाहिए? जो तुम्हे पसंद आए या जो मुझे सहज हो। अगर मैं तुम्हारी पसंद का लिखते हुए वो कह ही न पाऊं जिसको कहने के लिए मैंने लिखना शुरू किया, तो इस सब का क्या फायदा। और अगर ज़्यादा कलात्मकता

एकांत की चाह

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अभी शाम क्यों हो गई? इसे अभी शाम नही होना था। इसे होना था बादलों से भरी दोपहर। जिसमे ज़रा भी धूप न हो। एक अँधेरी दोपहर। और मुझे इस झुण्ड से परे होना था, एकदम एकांत में। जहां मैं बारिश में भीग ना पाऊं और बैठा रहूँ उस बड़ी सी खिड़की पर जिसमें से मैं दूर पहाड़ों को देख पाऊं। अब इन्ही दीवारों को देखकर मन ऊब चुका है। ये एक खोल सी मेरे चारों और बनी हुई है। संभाल कर रखी बचपन की तस्वीरों में खुद को देखकर हैरत सी होती है। उस दिन हम मेले में गए थे। कन्धों पर बैठकर। तब हम जानते ही नही थे गुरुत्वाकर्षण क्या होता है। कि ऊपर उठने पर भी वो हमें नीचे खींचता रहता है। गुरुत्वाकर्षण सोची समझी साज़िश है। और बाक़ी सभी बंधनों का ये एक हिस्सा भर है। कभी-कभी कल्पना करता हूँ कि मैं छत पर अकेला हूँ, दूर तक कोई नही है। मैं जल्दी सीढियाँ उतरकर भागता हूँ पर किसी घर में कोई नही है। ये सब भी उसी अँधेरी दोपहर में घट रहा होता है। मेरी बेचैनी हर पल बढ़ती जाती है। चारों तरफ धूल और सूखे पत्ते हैं अन्धकार और नीरवता भी। मैं बस भाग रहा हूँ, भागता जा रहा हूँ पर कहीं पहुँच नही रहा। जब रास्ते का मुहाना आता है तब देखता हूँ की उसे