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छत

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शाम होते ही हम छत पर चढ़ जाते। लक्की और मैं। दोनों अठन्नी-अठन्नी मिलाकर दो पतंगें ले आते। अँधेरा होने तक हवा में गुथे रहतें। अँधेरे में पतंग उड़ाने की तरकीबें सोचा करते। एक दिन लक्की ने हार मान ली। मैं जुटा रहा। कुछ समय बाद समझ आया कि हवा की दिशा ही पतंग की दिशा हो जाती है। अधिकतर हवा पूर्व दिशा की ओर होती। वहीं जहाँ होटल की दीवार थी। पतंग हमेशा उसमें अटक जाती। एक दिन मैनें भी तय कर लिया कि अब बस पंद्रह अगस्त को ही पतंग उड़ाया करेंगे। उसके बाद पंद्रह अगस्त भी छूट गया। मेरे साथ-साथ सभी ने पतंग उड़ाना छोड़ दिया।  कानों में लीड ठूँसे एफ.एम. पर चल रहे गाने को दोहराने के साथ-साथ उन चारों रसोइयों पर पक रहे खाने और हो रही घटनाओं को भी देखता रहता। बिल्डिंग वाली अम्मा अपने कमरे से बाहर आतीं तो उनसे राम-राम कर लेता। पूजा दीदी और अपना घर तबतक बेच चुके थे। होली पर छत पे चढ़कर एक दूसरे पर निशाना लगाकर गुब्बारे मारना और चूक जाना भी अब बीती बात हो गई थी। लक्की ने ग्यारहवीं में कॉमर्स ले ली। मैंने आर्ट्स। इन दोनों ही का मतलब हम नहीं जानते थे। मैं गणित नहीं समझ पाता था, पर इतिहास समझ जाता था। लक्...

उसकी कहानी

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पता नही उन दिनों वो क्या सोचता रहा होगा जब वो अस्पताल में भर्ती था।अब तक तो कभी सोचा भी नही होगा कि एक दिन इस तरह फूले हुए पैरों समेत वो अपने को सरकारी अस्पताल के उस खचाखच भरे वार्ड में पाएगा। भारी आँखों और बोझिल होती आवाज़ से कुछ कहने की नाक़ाम कोशिश करता हुआ वह कितना असहाय महसूस कर रहा होगा। वो ज़िन्दगी में कितना बेफिक्र था। पता नही उसे अपने बीवी बच्चों की कोई चिंता थी भी या नही। अस्पताल में भर्ती करने वाले फॉर्म में उसकी उम्र शायद सत्ताईस वर्ष चढ़ी होगी। शादी को अब लगभग तीन साल हो रहे होंगे। अब वो एक बच्चे का बाप भी है। लेकिन अब भी वो खुद को एक लड़का ही मानता है। पिछले पंद्रह अगस्त को किस तरह उसे चालाकी से हमारी पतंग ले ली थी। तब से उसकी तरफ देखने का मेरा नज़रिया एकाएक बदल गया। पड़ोसी तो वह था पर कभी ना तो मदद की और ना शायद मांगी। उसकी बारात सुबह-सुबह गई थी उस दिन बड़ा सुंदर लग रहा था। तब वो काम नही करता था हाँ कभी-कभी अपनी माँ की रेहड़ी पर खड़ा हो जाया करता था, गुटखा भी खाता था और शायद तब शराब भी पीता होगा। पता नही वो क्या परिस्थितियाँ रही होंगी जब उसकी शादी का फैंसला लिया गया होगा। हाला...