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दुःख

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कुछ कहना क्या ज़रूरी होता है कहने के लिए? कहूँ भी तो किससे? कोई सुनना भी चाहता है? ना सुने तो ना सही! अगर कहना ना भी चाहो तो कोई समझेगा नही। इस स्थिति में बस अकेले जूझा जा सकता है। जूझने में एक इंतज़ार होता है इस दौर के खत्म हो जाने का। क्या मुझे भी इसे इंतज़ार की तरह ही लेना चाहिए? मेरी उम्मीदें तो बनी नही रह सकती। इसलिए ये दौर एक ऊब से भरा रहा है। ये हाथ-पांव बंधे होने जैसा है, कि कोई रह-रहकर आपके गले की रस्सी को उस हद तक खींच लेता है कि मृत्यु एकदम नज़दीक आ जाए और अचानक रस्सी छोड़ दे। बात बस ज़बान पर आजाए पर दिमाग़ सचेत होकर ज़हर का घूँट भर ले।                        खुद को इस तरह रोक लेने से भी कुछ नही हो रहा। एक युद्ध ही चल रहा है। जो भले ही अदृश्य लगे लेकिन जो अपना असर छोटे-छोटे संकेतों में दिखा जाता है, जिन्हें कोई पकड़ नही पाता। ना पकड़ पाए उसमें भी मेरी ही जीत है और हार भी। ये लिखावट भी उसी युद्ध का प्रतिफल है। जिस तरह मैं यहाँ लड़ रहा हूँ उसी तरह हर कोई लड़ रहा है लेकिन आधे मेरी तरह चुप हैं।       ...

एक अधूरी प्रेमकथा

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अभी कुछ कह देने की बेचैनी नही है, मन कुछ अजीब सा हो रहा है। बस उसकी याद आ रही है। आज से दो साल दो दिन पहले उसने ज़हर खाया था। जब उसका पहली बार नाम सुना था तब से अब तक मैं उसको एक भी बार नही मिला। बस उसकी कुछ तस्वीरें देखी थीं और एक बार फ़ोन पर बात की थी। उसका चेहरा जाना पहचान सा था, हमारी रिश्तेदारी में एक लड़की है राधा, पूजा बिलकुल उसकी तरह दिखती थी। पर वो राधा के बिलकुल उलट थी। उसे घर में रहना पसंद था। धर्म-कर्म में भी मन लगता था। पढ़ना उसके लिए सिर्फ एक मजबूरी थी, या कहें शादी तक की उसकी यात्रा का रास्ता, उसे रास्ते से ज़्यादा मंजिल पसंद थी। जीन्स टॉप से घृणा उसकी चारित्रिक विशेषता थी। अपने गुणों और विचारों में पुरुषवादी समाज उसके लिए एकदम अनुकूल था। उसके व्यक्तित्व को इस तरह गढ़ने में परिवार की भूमिका ज़्यादा रही या फिर उसके पहले और अंतिम प्यार की, पता नही, पर दोनों ने मिलकर उसे ऐसा बना दिया था। उसके प्रेमी के संस्कार भी पूजा से बढ़कर होने ही थे, उसे भी जीन्स वाली लड़कियाँ देखने में भले ही आकर्षक लगती हों पर उसे अपनी बेग़म बनाना उसे क़तई मंजूर न था।          ...

यूपीएससी और आँसू

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वे दोनों तब एक दूसरे को जानते भी नही थे जब उन्हें समझा दिया गया था कि तुम्हे ग्रेजुएशन के बाद यूपीएससी करना है। कॉलेज में दाखिले के बाद दोनों कब नज़दीक आ गए पता भी नही चला। दो साल किसी हिट फ़िल्म के शो की तरह निकल गए। तीसरे साल में दोनों को मुखर्जी नगर के कोचिंग सेंटरों के नाम याद आने लगे। नार्थ कैंपस उनका दूसरा घर था। ऋषि ने घर कह दिया था की अब तभी आऊंगा जब प्री क्लियर हो जाएगा। स्नेहा का मन धीरे-धीरे यूपीएससी से हटकर ऋषि पर केंद्रित होने लगा। लास्ट सेमेस्टर चुपके से आ गया। ऋषि को अब अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना था। एक दिन उसने कह दिया "स्नेहा मुझे अब पढ़ाई पर फोकस करना है, अब हम और साथ नही रह पाएंगे।"                              दो साल हो गए अब भी ऋषि का प्री क्लियर नही हुआ। आज अचानक स्नेहा ज़ार-ज़ार रोने लगी। उसे लगा की ज़िन्दगी ने उसे धोख़ा दिया है। उसका मन अब पढ़ाई में नही लगता। ऋषि का जूनून अब सर चढ़ने लगा है। चश्मा भी चढ़ गया। अब वो आर्ट्स फैकल्टी भी ...