दुःख

कुछ कहना क्या ज़रूरी होता है कहने के लिए? कहूँ भी तो किससे? कोई सुनना भी चाहता है? ना सुने तो ना सही! अगर कहना ना भी चाहो तो कोई समझेगा नही। इस स्थिति में बस अकेले जूझा जा सकता है। जूझने में एक इंतज़ार होता है इस दौर के खत्म हो जाने का। क्या मुझे भी इसे इंतज़ार की तरह ही लेना चाहिए? मेरी उम्मीदें तो बनी नही रह सकती। इसलिए ये दौर एक ऊब से भरा रहा है। ये हाथ-पांव बंधे होने जैसा है, कि कोई रह-रहकर आपके गले की रस्सी को उस हद तक खींच लेता है कि मृत्यु एकदम नज़दीक आ जाए और अचानक रस्सी छोड़ दे। बात बस ज़बान पर आजाए पर दिमाग़ सचेत होकर ज़हर का घूँट भर ले।

                       खुद को इस तरह रोक लेने से भी कुछ नही हो रहा। एक युद्ध ही चल रहा है। जो भले ही अदृश्य लगे लेकिन जो अपना असर छोटे-छोटे संकेतों में दिखा जाता है, जिन्हें कोई पकड़ नही पाता। ना पकड़ पाए उसमें भी मेरी ही जीत है और हार भी। ये लिखावट भी उसी युद्ध का प्रतिफल है। जिस तरह मैं यहाँ लड़ रहा हूँ उसी तरह हर कोई लड़ रहा है लेकिन आधे मेरी तरह चुप हैं।

                           क्या इससे अवसाद में जाने का कोई ख़तरा है? इस पंक्ति को लिखकर ही ख़ुद पर हंसी आ रही है। हम सभी तो अवसाद में जी रहे हैं। अवसाद का कोई ख़ास मौसम थोड़े ही होता है, अवसाद बारहोंमास छाया रहता है। बस दिखता नही। चेहरे को नियंत्रित किया जाना उतना भी मुश्किल नही होता। अवसाद का स्तर भी हम सभी में अलग है। मुझे अवसाद में डूब जाने का डर नही। अवसाद की गहराइयों में भी मेरे साथ कलाएं होंगी। वो मेरी अपनी ना हो किसी और की ही सही पर होंगी ज़रूर।

                   कला से ही दुःख को उसके सच्चे रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है। कला की अपनी नग्नता और अपने पर्दे होते हैं। उसमें जितनी बेफिक्री होती है उतनी ही सजगता भी। इसलिए कला एक सनक भी है। यहाँ इन बातों को लिख देना मेरे लिए कला के क़रीब आजाना नही है, ये एक दबाव है जिसे यहाँ समाप्त कर दिया गया। लेकिन यहाँ मैं जितना ख़ाली हुआ हूँ उतना ही भर भी गया हूँ। इससे बचा नही जा सकता। संजीवनी जैसी कोई जड़ी शायद ही बच पाई हो। लेकिन हमें जीना होगा। समुद्र भी कितना नमक लिए जी ही तो रहा है। उसे भी शायद इंतज़ार हो। शायद मुझे भी हो।

                      कई बार हमें बीमारी का इलाज पता होता है लेकिन इलाज नही कर सकते। ये मजबूरी ही है। इसे ढोते रहना ही अब बाक़ी रह गया है। इसका इलाज बस बग़ावत है। क्या अपने मन की करना ग़लत है? सबके लिए वही तो बग़ावत होगी। मन भी तो नही बन पाता। हाँ-ना में ही दिन, महीने, साल कट रहे हैं। इस सब में अगर सभी से चिढ़ हो तो क्या ग़लत है? काबू किसी का नही। बस फैसले भर की बात है। सब टूटने ही को होगा तब। तब पता नही दुःख ख़त्म होगा या शुरू। उसने तो यही बताया था कि दुःख ही होता है, बहुत दुःख।

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