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ओए केडी

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मैं हमेशा सोचता था। समुद्र में लहरें कैसे उठा करती होंगी। टेलीविजन में देखकर कभी महसूस नही कर पाया। प्रसाद ने एक कविता में कहा है। उठ उठ री लघु-लघु लोल लहर। पर इस कविता में जो लहरें आईं नही। मैं उन्हें देख नही पाया। तुमने कहा था, तुम्हारे बालों में कर्ल नही हैं वेव्स हैं, ठीक उसी वक़्त समुद्र की लहरें तुम्हारे बालों में उतर आईं थीं। मुझे लगा तुम समुद्र हो। ठीक उसी दिन से मैनें अपने बालों पर ध्यान देना शुरू किया। व्हाट्सएप पर तुम्हारी आख़िरी प्रोफाइल पिक्चर जितने बाल बढ़ा लिए हैं मैनें। तुम अब मिलते तो देखकर चौंक जाते और कहते देवेश भैया आपके बालों में कर्ल्स हैं। वहाँ लिफ्ट के पास आख़िरी बार मिलते हुए हम कितना हँसें थे। दो मिनटों के लिए। तुम कैसे लग रहे थे। चमकते हुए, चहकते हुए से। फिर एक दोस्त के मिल जाने पर चले गए। ये घटना अब तक न जाने कितनी बार मेरी कल्पनाओं में घट चुकी है। मैं हर बार तुम्हें कुछ और देर रोक नहीं पाता। तुम बार-बार चले जाते हो। बार-बार लौटकर नही आते। मैं बार-बार तुम्हें जाते हुए देखता हूँ। और चुप लौट जाता हूँ। लौटने के बाद मैं फिर वापस आता हूँ। वहीं ठहरता हूँ। इंतज़ार...

बीते दिन

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उसने कहा था। उस घर से चले जाने के बाद उसे कोई याद नही करेगा। उसे भी पता है उसने झूठ कहा था। मैंने भी अब वो घर छोड़ दिया है। वहाँ भटकता भी नही। बस दिन भटकते हैं। मन भटकता है। उधर नुक्कड़ से सीधा नही जाता। गली में मुड़ जाता हूँ। मुड़ने पर लगता है मेरे पीछे कोई चल रहा है। जो मेरे बैग को ऊपर उठाकर इस तरह छोड़ देगा कि मैं लड़खड़ा जाऊंगा। फिर हँसती हुई एक गाली हवा में तैर जाएगी। मैं बेशक उसे याद नही करता। पर उस रास्ते में कुछ है जो मुझे खींचता है। जो मेरे साथ हमेशा चला आता है।  कभी लगता है मैं वहीं उसी घर में हूँ, अब भी। सुबह उठने से पहले लगता है मेरे पैरों के बिलकुल सामने लोहे का वही नीला दरवाज़ा है। मैं उठूंगा तो दरवाज़े की कुंडी में अखबार में लिपटी फूलमाला टँगी होगी। पर आँख खोलता हूँ तो सामने हल्के पीले रंग की इस दीवार को पाता हूँ। लगता है एक क्षण में दुनिया बदल गई हो। जैसे सपना टूट गया हो। पर वो भ्रम ही होता है। अब तो सपने भी कम आते हैं। लगता है मेरे दिन सपनों में बीत जाते हैं, रात को देख लेने लायक सपने मैं बचा नही पाता हूँ।  सपने सच्चाई में बदल जाने पर उतने रूमानी नही...

किस्से वाया मिली-जुली दाल

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मम्मी ने आज फिर दाल बना ली। मुझे लगा की सबदाल होगी पर नही थी। दिल टूट गया। सबदाल को हमारे घर पर सबदाल नही मिली-जुली दाल कहते हैं। एक बार विनोद अंकल की दुकान पर गया और बोला कि एक पाव मिली-जुली दाल देदो। अंकल ने एक क्षण रुककर कहा "सबदाल"! उस दिन मैं इस शब्द से परिचित हुआ था। कैसा लगता है न ये शब्दयुग्म मिली-जुली। जैसे मिली-जुली सरकार। एक दिन एक दोस्त कह रहा था "ये मिली-जुली सरकार लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।" उसने मिली-जुली कहा और मेरे मन में मिली-जुली दाल से लबालब भरी कटोरी का चित्र उभरा।   मिली-जुली का तत्सम शब्द है मिश्रित। मिश्रित से मुझे याद आता है मिश्रित अर्थव्यवस्था। दसवीं या ग्यारहवीं की कक्षा है। गुप्ता सर मिश्रित अर्थव्यवस्था के बारे में किताब से पढ़ा रहे हैं। मनमोहन सिंह के बारे में बता रहे हैं। मनमोहन सिंह हमारे प्रधानमंत्री हैं यह मुझे पता है। यह पता होना एक उपलब्धि है। इस जानकारी के पीछे भी एक कहानी है। मम्मी की एक सहेली की बेटी को उसके स्कूल वालों ने पंद्रह अगस्त का भाषण सुनने के लिए लाल किले भेजा था। उसे बस इतना करना था कि कॉसट्यूम पहनकर भारत ...