संदेश

जून, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पागलपन

चित्र
यहाँ पास में ही स्टेशन है। सुबह शाम ट्रेनों के भोंपू की आवाज़ आती है। सर्दियों में तो सूचना देने वाली लड़की की आवाज़ भी ठीक-ठीक सुनी जा सकती है। साल भर में लाखों लोग सफ़र करते हैं यहाँ से। विश्व भर के लोग रहते हैं दिल्ली में उनका आना-जाना तो लगा ही रहता है। यहाँ आते-जाते कितने ही लोग अपने परिवार से बिछड़ जाते हैं। कुछ भटक जाते हैं, कुछ उठा लिए जाते है। जिन्हें कुछ समझ होती है और पैसा हाथ होता है वो अपने घर-द्वार पहुँच जाते हैं लेकिन जिनपर कोई सूत्र नही होता वो यहीं छूट जाते है। उनमें से कई यहीं आसपास काम पर लग जाते हैं ख़ासकर बच्चे और बूढ़े। जो लोग परिवार से बिछड़ने का सदमा बर्दाश्त नही कर पाते वो धीरे-धीरे भ्रमित होने लगते हैं। उनकी चुप्पी उनके दिमाग़ पर हावी होने लगती है। एक स्थिति ऐसी आती है जब वे पागल हो जाते हैं। तब इनकी चुप्पी एक निरर्थक बातों में तबदील हो जाती है। वे लगातार किसी अदृश्य से बातें करते हैं। एक सामान्य व्यक्ति के लिए ये एक असामान्य स्थिति है। ये भूल जाते हैं अपनी पहचान, इनके पास केवल दो चीज़ें होती है इनकी बातें और इनका पेट। इन्हें कोई चिकित्सीय सहायता भी नही मिलती। ये घू

मक़बूल उर्फ़ हुसैन

चित्र
अब तक उसके चेहरे के साथ कोई ऐसा चेहरा शायद ही नज़र आया हो जो बचपन से अब तक साथ रहा हो। वक़्त सभी को एक-एक कर छीन लेता है। बेशक वो अपने माँ-बाप की अकेली औलाद था। उसने कभी अपनी माँ को नही देखा, उसे नही पता कि उसकी माँ किस तरह किस ख़ुशी से उसे चूमती होगी, उसके चीख़-चीख़ के रोने पर किस तरह बेचैन हो जाती होगी। उसके पिता उसके साथी रहे, जब तक उनकी उम्र रही वे अपने लड़के को संभालते-संवारते रहे। लेकिन लड़के के ज़हन में जो अब तक बसा हुआ था वह था लम्बी अचकन में समाया एक बुज़ुर्ग। ये लड़का अपने दादा की उंगली पकड़े ना जाने कहाँ-कहाँ घूमा। कभी तो उसे लगा होगा कि उसकी माँ का चेहरा ज़रूर दादा जैसा रहा होगा। एक दिन अचानक दादा यूँ गए जैसे कभी थे ही नही। लड़का अकेला हो गया। दादा की अचकन के लिपटकर कितना, कितने दिन रोया। चेहरा पीला पड़ गया। ज़िन्दगी रंग बदलती रही लेकिन इसके ज़हन में दादा की याद बराबर बनी रही।                                                                                                                                                              अपने घर की लालटेन से इसे बड़ा लगाव था। इसने लालटेन

यूँ देर से आना

चित्र
इस पोस्ट को देखकर सबसे पहले सोचा होगा की चलो इसने इतने समय बाद कुछ तो लिखा। तब से अब तक क्या कर रहा था? क्यों कुछ लिखा नही? इसके कई जवाब मेरे पास हो सकते हैं और उनमें से आधे बहाने। दरअसल कुछ महीनों पहले मेरा फ़ोन कोई उठा ले गया। नाटक चल रहा था। हम मंच पर थे और मेरा फ़ोन नेपथ्य में। मुझे नही पता था कि नेपथ्य में ये राग चल रहा है। खैर... मैं दिल्ली आ गया और मेरा फ़ोन वहीं हिसार में रह गया। तब से अब तक नया फ़ोन नही लिया। ये जो लिखा जा रहा है ये एक पुराना फ़ोन है जिसकी नेमत है। जितने भी ड्राफ्ट थे वो इस फ़ोन में दिखते नही इसलिए उन्हें ठीक करके पोस्ट करना संभव नही।                           एक स्तर तक पहुँचने में कुछ साधन आपकी मदद करते हैं, एक समय पर आप उनके इतने आदि हो जाते हैं कि उनके बिना काम ही नही चलता। हमारी तो मजबूरी ही दूसरी है। ब्लॉग पर पोस्ट करने के लिए भले ही लिख फ़ोन पर लो पर उसे पोस्ट करने के लिए कंप्यूटर की ज़रूरत होती है जोकि है नही। मैं यहाँ जितना भी लिख पाया उसमें से एक-दो पोस्ट को छोड़कर सभी को फ़ोन पर लिखा। एक ईमेल कंपोज़ कर उसे ड्राफ्ट में सेव कर लिया फिर साइबर कैफ़े जाकर उस