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मक़बूल उर्फ़ हुसैन

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अब तक उसके चेहरे के साथ कोई ऐसा चेहरा शायद ही नज़र आया हो जो बचपन से अब तक साथ रहा हो। वक़्त सभी को एक-एक कर छीन लेता है। बेशक वो अपने माँ-बाप की अकेली औलाद था। उसने कभी अपनी माँ को नही देखा, उसे नही पता कि उसकी माँ किस तरह किस ख़ुशी से उसे चूमती होगी, उसके चीख़-चीख़ के रोने पर किस तरह बेचैन हो जाती होगी। उसके पिता उसके साथी रहे, जब तक उनकी उम्र रही वे अपने लड़के को संभालते-संवारते रहे। लेकिन लड़के के ज़हन में जो अब तक बसा हुआ था वह था लम्बी अचकन में समाया एक बुज़ुर्ग। ये लड़का अपने दादा की उंगली पकड़े ना जाने कहाँ-कहाँ घूमा। कभी तो उसे लगा होगा कि उसकी माँ का चेहरा ज़रूर दादा जैसा रहा होगा। एक दिन अचानक दादा यूँ गए जैसे कभी थे ही नही। लड़का अकेला हो गया। दादा की अचकन के लिपटकर कितना, कितने दिन रोया। चेहरा पीला पड़ गया। ज़िन्दगी रंग बदलती रही लेकिन इसके ज़हन में दादा की याद बराबर बनी रही।                                                             ...