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डायरी के वो पन्ने

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डायरी के उन पन्नों को फाड़ देने से क्या होगा? उन्हें लिख देने से भी क्या हुआ था? वो बातें खुद से कहने से डर रहे थे तुम। तुमने लिख दिया, हल्के हो गए। तुम्हें रखना था उन कागजों को संभाल कर। उन्हें आग के हवाले करने की ज़रूरत क्या थी? वो तो वैसे भी जल रहे थे। तुम्ही ने तो उनमें आग उंडेली थी। अब छूट गए क्या उन बातों से जो उसमें लिखी थी? क्या अब वो बातें कभी याद नही आएंगी? मैं तुम्हारी जगह होता तो शायद नही जलाता उन पन्नों को। आज उन्हें फिर पढ़ता और कोशिश करता फिर वही महसूस करने की जो तब लिखते हुए महसूस कर रहा था। मैं उन्हें पढ़ता बार-बार हर हफ्ते दस दिन बाद। धीरे-धीरे सब ठंडा हो जाता। इस बात का डर मुझे भी होता कि कहीं उन बातों को कोई और ना पढ़ ले। मैं उस डायरी को किताबों की पंक्ति में सबसे नीचे रखता। जब कोई उस डायरी को छूता तो मैं उस पर बरस जाता। तुमने कहाँ से ली थी वो डायरी? उसे खरीदने से पहले तुमने क्या ऐसा महसूस किया होगा जो तुम्हें लिखने लायक लगा होगा? तब शायद तुम्हें कोई ऐसा मिला ही नही होगा जिसके सिर्फ कान हो ज़बान ना हो (मुझे भी अब तक नही मिला)। कहा हुआ ज़्यादा देर जीवित नही रहता, लिखा ...

जुड़ती-टूटती बातें और हमारा मन

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सुबह आँख खुलते ही फोन को खोजता हमारा हाथ अचानक उसे न पाकर रुक जाता है। और हम चौंक कर उठ जाते हैं। समय देखकर लगता है अभी तो सात ही बजे है बोहोत समय है सोने के लिए। चारदीवारी के अंदर हम ताज़ी हवा को न पाकर कुछ बेचैन तो होते है पर उसका कोई उपाए न पाकर बेशर्मों की तरह फिर सो जाते है। सवा ग्यारह बजे फिर आँख खुलती है। फ़ोन बज रहा है सब अपने अपने काम पर चले गए हैं घर में कोई नही अब फ़ोन हमें ही ढूढंना है। रात को फ़ोन भी करवटें लेता लेता कब पलंग के नीचे पहुँच गया उसे भी पता नही चला। फ़ोन सोता नही। फोन कभी सपने भी नही देखता। उसके अंदर पूरी दुनिया है पर प्राण नही। हम भी कभी फ़ोन हो जाएंगे। टाइम ज़्यादा हो गया सोचकर मजबूरी में एक ज़ोरदार अंगड़ाई लेकर उठ जाएंगे। उठ जाने पर भी कोई काम नही होगा बस यूँ ही घुमते रहेंगे अंदर अंदर। हमारे अंदर भी बाहर जैसा खुलापन होना चाहिए। पर वहां नियंत्रण हमारा होता है। सब हमारे लायक हमारा चाहा।  उन घटनाओं को दोबारा दोबारा घटाकर हम हज़ारों बार वही जीने की कोशिश करते हैं जो नही जी पाए। उस दिन की बात जब मैं सोच रहा हूँ कि अगर उस सामने खड़े लड़के से मैंने नाटक का समय पूछ...

एक संगोष्ठी की समीक्षा

सभापति के अंतिम वक्तव्य के इंतज़ार में ही संगोष्ठी की शुरुआत हुई। दो वक्ता जिनका 'पुष्पगुच्छ' से स्वागत हुआ था अपनी अपनी कविता की किताबों को गर्व से निहार रहे थे। सभापति का चेहरा गंभीर बन पड़ता था। शायद मन ही मन कविता पर गहन चिंतन कर रहे थे। मंच संचालक बड़ी तारीफें कर रहा था जैसे विश्व में यह अपनी तरह की पहली संगोष्ठी हो। पहले वक्ता ने बड़े ठाठ से बोलना शुरू किया, वे शुरू क्या हुए उन्हें पता ही नही चला कब श्रोताओं का पेट भर गया और उनके दिमाग का दही बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई। फिर उन्हें पर्ची पकड़ाई गई। पता नही इन पर्चियों में क्या लिखा होता है। हो सकता है, लिखा होता हो "ये आपके कॉलेज की कक्षा नही, अब चुप हो जाइए"। खैर किसी तरह दूसरे वक्ता की बारी आ गई। ये साहब महापंडित। ऐसा लग रहा था जैसे तुलसी ने खुद इन्हें बुलाकर कविता की दीक्षा दी हो। अपनी कविता से इन्होंने वक्तव्य की शुरूआत की। अपने वक्तव्य से इन्होंने उस संगोष्ठी को बहुत सार्थक किया। इन्होंने संगोष्ठी में भी अपनी दयालुता का परिचय दिया, पर्ची मिलने से पहले ही ये चुप हो गए। साहित्य जगत में जिनका तेज है और जिनकी मर्...

यहाँ आने का मतलब

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यहाँ पर लिखना मेरे लिए अलग अनुभव होगा। अपने डायरी के दायरे को तोड़कर उससे बहार निकलने की बेचैनी ही मुझे यहाँ ले आई है। मुझे वो सीख याद है "यहाँ पर लिखना आसान है पर मुश्किल है लगातार लिखना"। पता नही कितना लिख पाउँगा, पर लगातार लिखने की कोशिश हमेशा रहेगी। जो महसूस करता हूँ उसे उसी तरह लिखने की कोशिश रहेगी। अगर मैं ये कहूँ की उनके लेखन का प्रभाव मेरे लेखन पर नही होगा तो ये गलत होगा, पर फिर भी मैं उनकी परछाई से निकलने की पूरी कोशिश करूँगा। यहाँ लिखना खुद को तलाशने जैसा भी है अपने घेरे से निकलकर एक अलग दृष्टि से खुद को देखने जैसा। यहाँ लिखने वाला मैं, महसूस करने वाले मैं से कितना भिन्न होगा ये भी देखने वाली बात होगी।यहाँ रहकर मैं कैसे ढालूँगा, खुद से कितना सीखूंगा इस प्रश्न का उत्तर ही मेरा फल होगा और पता नही वो क्या होगा। इससे ज़्यादा कुछ सोचना अभी ज़रूरी नही।  देवेश, 12 जनवरी 2016

रूबरू शायद...

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कई बार कुछ ख़यालात आते हैं, गुजरे लम्हों को अपने साथ लिए फिर हम उनके साथ हो लेते हैं जैसे किसी दोस्त के साथ, उन ख़यालों के साथ घूमने का कोई अर्थ नही होता.. बेवजह ही सही ख़यालों के माध्यम से अपने उस अतीत से जुड़ जाते है, जिसे हम कभी दोहरा नही सकते। इसे हम एक प्रक्रिया भी कह सकते है। खुद से दोबारा रूबरू होने की या परिस्थितियो को फिर से समझने की या फिर समस्याओं को फिर से सुलझाने की जिनका अब कोई मतलब नही है। इसका हमारे जीवन पर शायद ही कोई प्रत्यक्ष प्रभाव होता हो.. अपने अतीत को फिर से जीकर हम किसी मंज़िल तक शायद ही पहुँचते हो, बस हम उलझकर रह जाते है,परिस्थितियाँ भी काम करती है, हम कहाँ है? हमारा वैचारिक स्तर क्या है? या हमारा परिवेश कैसा है? इन सभी का भी हमारे अतीत को फिर से परिभाषित करने पर असर पड़ता है। इसका कोई मतलब हो या न हो मनुष्य उलझता है वर्तमान से ज़्यादा मनुष्य अतीत या भविष्य मे जीना पसंद करता है, यही मनुष्य का जीवन है। देवेश, सत्ताईस दिसंबर, 2015