एक संगोष्ठी की समीक्षा

सभापति के अंतिम वक्तव्य के इंतज़ार में ही संगोष्ठी की शुरुआत हुई। दो वक्ता जिनका 'पुष्पगुच्छ' से स्वागत हुआ था अपनी अपनी कविता की किताबों को गर्व से निहार रहे थे। सभापति का चेहरा गंभीर बन पड़ता था। शायद मन ही मन कविता पर गहन चिंतन कर रहे थे। मंच संचालक बड़ी तारीफें कर रहा था जैसे विश्व में यह अपनी तरह की पहली संगोष्ठी हो। पहले वक्ता ने बड़े ठाठ से बोलना शुरू किया, वे शुरू क्या हुए उन्हें पता ही नही चला कब श्रोताओं का पेट भर गया और उनके दिमाग का दही बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई। फिर उन्हें पर्ची पकड़ाई गई। पता नही इन पर्चियों में क्या लिखा होता है। हो सकता है, लिखा होता हो "ये आपके कॉलेज की कक्षा नही, अब चुप हो जाइए"। खैर किसी तरह दूसरे वक्ता की बारी आ गई। ये साहब महापंडित। ऐसा लग रहा था जैसे तुलसी ने खुद इन्हें बुलाकर कविता की दीक्षा दी हो। अपनी कविता से इन्होंने वक्तव्य की शुरूआत की। अपने वक्तव्य से इन्होंने उस संगोष्ठी को बहुत सार्थक किया। इन्होंने संगोष्ठी में भी अपनी दयालुता का परिचय दिया, पर्ची मिलने से पहले ही ये चुप हो गए। साहित्य जगत में जिनका तेज है और जिनकी मर्ज़ी के बगैर इस जगत का एक पत्ता भी नही हिल सकता, अब उनकी बारी थी। दोनों वक्तव्यों को सुनने के बाद सभापति चार्ज हो चुके थे, मुग़ल-ऐ-आज़म के अकबर के अंदाज़ में अपनी कुर्सी से खड़े हुए और ज़ोरदार वक्तव्य दे डाला, ऐसा वक्तव्य जिसकी तुलना बलिया वाले वक्तव्य से की जा सके। सभी मंत्रमुग्ध थे। सभा में उनके तीन दूर के जानकार भी थे, जिनके तालियों में अलग गूँज थी। भाषण के बीच में सभापति ने उन तीनो मेसे एक का नाम लिया, पर ग़लत। फिर क्या होना था,श्रोता की भूमिका निभा रहे सभापति के जानकार उखड गए, और साथ वाले से कहने लगे "यार नाम भूल गए मेरा" उनके साथ वाले उनके मित्र ने कहा चुटकी लेते हुए कहा "देख लो.."। सभापति के तथाकथित जानकार का चेहरा और तमतमा गया। पर करते भी क्या कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली। सभापति के अंतिम वक्तव्य ने भी पर्ची की राह नही देखी, वैसे भी संगोष्ठी के अंत में चाय और पकोड़े का प्रबंध था, सभी श्रोता वक्तव्य जल्दी ख़त्म होने की प्रतीक्षा भी कर रहे थे,सभापति के तीनो जानकार भी। चाय की मेज पर वक्ता और उनके जानकारों की भारी भीड़ थी, उससे ज़्यादा भीड़ थी पकोड़े की स्टाल पर, मेरी प्लेट में बर्फी का एक पीस देखकर किसी ने पूछा "मिष्ठान्न" कहाँ है। मैंने भी फट से इशारा कर दिया, इन कुछ क्षणों के दरमियान ही स्टाल खाली हो चुका था। उनका चेहरा मायूस हो गया। इतनी चहल-पहल कम ही संगोष्ठियों में होती है,शायद यह वक्ताओं का प्रताप था। तीन टैक्सियाँ बाहर इंतज़ार कर रही थी। जाते हुए वक्ताओं के साथ उनके जानकार और समिति के कार्यकर्ता इस तरह तस्वीरें खिंचवा रहे थे जैसे यह एक ऐतिहासिक दिन हो। हो सकता है उनके लिए हो भी। सभापति के जानकारों ने भी बारी बारी से ‘सेल्फी’ ली। जाते-जाते ये तीनों एक दूसरे को अपनी अपनी कविताएँ सुना रहे थे, एक सुनाता दो वाह-वाह करते, और कविताएँ ऐसी की प्रसाद भी मुरीद हो जाएँ। मुझे उनसे चिढ़ होने लगी। जब ज़्यादा झेला नही गया तो मैं घर को निकल गया। पता नही वो कबतक कविताएँ सुनाते रहे और वाह-वाह करते रहे। पता नही कब तक सभागृह और मंच खाली पड़े रहे। 

देवेश 20 दिसंबर 2015

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