मनुष्य होने की निशानियाँ


 हम हमेशा अपने अंदर रहते है.घूमते उलझते चुनते और छोड़ते। हमारे अंदर जो दुनिया है वह असल में इस भौतिक दुनिया का प्रतिबिम्ब मात्र है जिसे हम अपनी सुविधा के अनुसार मोड़ते तोड़ते और बनाते रहते है।हम इस भौतिक दुनिया को छू सकते है,पर अपने मन के अंदर की दुनिया को हम सिर्फ देख और महसूस कर सकते है।उलझन चुनाव की ही समस्या है।अपने मन की दुनिया में हम वो नही चुनते जो हमारे लिए बेहतर है। वहाँ "बेहतर" की परिभाषा "मनपसंद" से बदल जाती है।इस भौतिक दुनिया में हम जैसे दिख रहे होते है अपने मन में हम ठीक उलट होते है,इसका कारण मनुष्य की मूल प्रकृति असंतुष्टि है।दोनों दुनियाओं को रेल की पटरियों सा चलाना मुश्किल है।ये दोनों दुनिया समानांतर चलने के साथ साथ ज़िग-ज़ैग़ होती है।हम चाहें न चाहें हमारी मानसिक दुनिया हमारी भौतिक दुनिया में हस्तक्षेप करती है।इन दोनों दुनियाओं को नियंत्रित करने वाला स्टेयरिंग व्हील हमारा विवेक ही होता है पर हम कम ही इन्हें नियंत्रित कर पाते है।यदि हम भौतिक दुनिया को ठीक-ठाक नियंत्रित करने की कोशिश भी करते हैं तो बाह्य परिस्थितियाँ उसपर अपना नकारात्मक प्रभाव डालती हैं,और हम फिर उलझ जाते हैं।इस संघर्ष को जीकर कौन इससे क्या ग्रहण करता है ये व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है।और जीवन के इस तरह चलने में कोई समस्या नही,ये सामान्य मनुष्य होने की निशानियाँ ही है।फिर भी हर आदमी का किसी विशेष परिस्थिति के प्रति एक अलग दृष्टिकोण और प्रतिक्रया होती है।ख़तरे का एहसास होने पर एक व्यक्ति डर सकता है या साहस से लड़ सकता है अब व्यक्ति की प्रतिक्रया क्या होगी ये उसके व्यक्तित्व,विचारों और सामर्थ्य पर निर्भर करता है। फिर भी हम दंभ भरते है "आए कोई माई का लाल, उसकी ऐसी की तैसी कर देंगे"। क्योकि हम खुद को जानते ही नही। हम कभी शांत चित्त होकर ये विचारते ही नही की हमारा वजूद क्या है। हम कैसे है। परिस्थितियों के दबावों में हमारी प्रतिक्रिया क्या थी और क्या होनी चाहिए। आत्मसाक्षात्कार हमारा स्वयं से मोहभंग भी करा सकता है। परंतु यही चिंतन हमें उलझनों को सुलझाने की शक्ति दे सकता है।बस शर्त यही है की हम स्वयं को निष्पक्ष रूप से परखें। 

देवेश, 30 जनवरी   2016

टिप्पणियाँ