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ना कह पाना

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एक समय आता होगा जब हर किसी को लगता होगा कि वह चुक गया। अब कहने को कुछ बाक़ी नही रह गया। ठीक उसी समय उसके पास बातों की एक दुनिया घुमड़ रही होती है। वह चाहता तो सबपर कुछ ना कुछ कह सकता है। पहाड़, नदी, बादल, आकाश, बोतल, चींटी, राज्यसभा, बिस्तर, पुल, किताबें इस सभी पर वह कह सकता है कुछ ना कुछ। असल नही तो मनघड़न्त ही सही। पर अब कहता नही। क्योंकि अब कहा नही जाता। जो वो कहता है वह एक क्षण में ही टूट जाता है। इस तरह बात टूटने से भाव और विषय सब बिखर जाते हैं। कहने का अर्थ तभी है जब सुनने वाला समझे। पर यदि कहा ही ना जा सके तो? भाषा होते हुए भी यदि ज़ुबान ना चले तो कोई क्या कर सकता है? यहाँ वह कहते कहते खुद को रोक भी लेता है क्योंकि जिस भाव को जिस तरीके से कहा जाना है वह उन्हें पकड़ ही नही पा रहा। भाषा तब साथ देती है जब मन में छवियाँ साफ हों। कहना क्या है ये पता हो। अभ्यास के महत्व को भी नकारा नही जा सकता। पर यहाँ तो कुछ साफ ही नही हो रहा। सब गड्डमड्ड है। उलझन बहुत है। शब्द सब साथ छोड़ रहे हैं।  रचना के तीनों क्षणों में से ये कोई भी क्षण नही है। ना तो इस समय कुछ भी समेटा जा रहा है औ