छूटना

उसने मुझे बताया नही की उसकी तरह वहाँ वो शहर भी अकेला है। अकेला होने का अर्थ प्रेम से खाली होना नही है। वहाँ उसके और यहाँ मेरे अकेलेपन में प्रेम का अस्तित्व है। उसका शहर वो शहर है जिसके लोग आपस में बतियाते नही हैं, लेकिन वो चुप भी नही रहते। ऐसी स्थिति में वो शहर बिल्कुल मेरी तरह होता है, चुप और तेज़। उसने पहले ही समझ लिया था कि एक न एक दिन ऐसा ज़रूर होगा कि हम अकेले होंगे। हम होंगे अलग-अलग शहरों में गाड़ियों के शोर और धुएं से अलग-अलग जूझते हुए और हमारा प्रेम भी अलग होगा। हम अलग-अलग घूम रहे होंगे अपने दिमागों में।

यहाँ समझ नही आता कि क्यों वो उदासी पसर रही है जो गर्मियों की छुट्टियों में शाम को रात में बदलते देखने पर मेरे अंदर उतर जाया करती थी। ये उदासी अकेलापन क्या खुद का ही खड़ा किया हुआ है? क्या मैं इस सब से छूट नही जाना चाहता? मैं क्यों चीख़कर ये नही कह देता की मेरा मन नही लगता यहाँ, मुझे एकांत चाहिए! मुझे एक अलग जगह चाहिए। मैं बादलों से भरी अंधेरी दोपहरों में जी भरकर सोना चाहता हूँ। मुझे नही होना यहाँ। मेरे बिल्कुल बदल जाने तक मैं यहाँ से दूर चले जाना चाहता हूँ, उन नए लोगों के बीच जिन्हें कभी भी मेरा इंतज़ार नही रहा। पता नही वो उन लोगों के बीच कैसा महसूस करता होगा। वो भी तो नही जानता उन सबको। लेकिन उसे वहाँ शान्ति तो है।

यहाँ कहीं भी नीरवता की इच्छा नही है। चाह केवल स्थान की है, उस स्थान में केवल कुछ का निषेध हो। क्या इस तरह हम अपनी दुनिया को चुन सकते है? चुन ना भी सकें तो क्या बना सकते है? क्या वो दुनिया सफल होगी? उस नई दुनिया के पैमाने हम अपनी तरह बदल देंगे। भाषा भी हम अपनी बनाएंगे। तब सफल और असफलता अपने अर्थ खो देंगे। केवल इच्छा रह जाएगी। उस इच्छा में भी प्रेम होगा अकेलेपन की तरह।

देवेश, 13 फरवरी 2017

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