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  उस वक़्त मुझे लगा मैं राग भैरव में भीगा हुआ हूँ. समुद्र में मेरे पैर हैं. मैं सूरज को ऊपर खींच रहा हूँ. जबकि ऐसा कुछ नहीं था.   1. ये दिन भी ऐसे ही बीतने थे. निरुद्देश्य. तय दिनचर्या और वेतन के बिना. मैं या तो घर बैठा था या कहीं भटक रहा था. सब चीज़ों में संगति बनाने की कोशिश में मैं ख़ुद टूट रहा था. जीवन के तमाम निर्णय ग़लत लिए जाने के बाद भी दूसरों की दी ज़रा सी रौशनी में अन्धकार को देख रहा था. मुझे आगे कुछ नहीं दिखता था. उन्हें दिखता रहा होगा. तभी रास्ता बताते थे वे. उन्होंने मुझसे ज़्यादा दुनिया देखी थी. लेकिन वे ये नहीं जानते थे कि हम दोनों की दुनिया अलग-अलग है. उनके अंदाज़े मुझपर उलटे पड़ सकते थे. पड़े भी. 2. मैं जीवन के दस साल लगाकर उस कला में माहिर हुआ जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं थी. जिसमें रोटी कमाना मुश्किल था. वह कला अपने आप में इतनी अकेली थी कि उसे इधर-उधर की बैसाखियों की ज़रूरत हमेशा रहती. मैंने इस कला के कलाकारों का सम्मान किया. लेकिन समझा नहीं वे क्या करते हैं और कैसे करते हैं. मैंने उन्हें दूर से देखा था. इसलिए उन सबका सम्मान करता था मैं. फिर कई युक्तियों से मैंने ...