चाय, कुर्सी, मैं

मुझे अगर यहाँ कुर्सी, एक टेबल और एक कप चाय मिल गई होती तो कितना अच्छा होता... मैं यहीं गार्डन में बैठ जाता। इस गार्डन के दोनों और बड़े-बड़े दो आलीशान होटल हैं। जिन्हें हमेशा ही बाहर से देखा है। और जहाँ मैं अभी हूँ वहाँ भी पहली ही बार आया हूँ। ये ईमारत नेताओं के बँगले जैसी है। मुझे बस इसका गार्डन पसंद आया और बाहर का मौसम, बादल, हल्की फुहार और पेड़-पौधों की ख़ुशबू। भीड़ के लायक ये जगह नही है इसलिए भीड़ है भी नही। एक अजीब सा सुकून है इधर। इसकी खोज में कोई पूरी दिल्ली का चक्कर भी लगा सकता है। यहाँ तक पहुँचने में जो ख़ुशी मिली उसे मैं कह नही सकता। अकेले होते हुए भी जैसे किसी का साथ हो। मुझे जो कुछ पसंद है वो सब यहाँ है। अकेले होने पर भी आप अकेले नही होते तब आप दो हो जाते हैं ये बात मैं पहले भी कह चूका हूँ। बहरहाल, ये फुहार ही मौसम को ख़ुशनुमा बना नही है नही तो धूप में तो मैं जल जाता। यहाँ से इंडिया गेट पास में ही है, अभी शाम हो गई वहां कितनी भीड़ होगी। कितने लोग उसे देख रहे होंगे पर मैं वहां नही हूँ। मैं यहीं हूँ इस गार्डन में। इन बातों को अब कहने का कोई मतलब भी है। जब ये सब लिखा था तब सब कुछ और ही था। पर ड्राफ्ट में सेव होकर भी इसमें कुछ-कुछ ताज़ापन है। अगर इन पोस्ट में प्राण होते तो क्या ये ड्राफ्ट में टिक पातीं? क्या पता ये भी हमें जज करती हों। ये सब बस कहने के लिए कह रहा हूँ, वैसे भी आज-कल कुछ कहा नही जाता, बस चुप होकर सभी को सुना जाता है।

देवेश, 11अक्टूबर 2016

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