ये शहर वैसा नही...

यहाँ आकर वो सब धराशाई हो गया जो मन में था। ये शहर वैसा नही है जैसा अपनी कल्पनाओं में मैंने इसे बनाया था। ये उससे बिलकुल जुदा है। ट्रेन से नीचे क़दम रखते बिलकुल महसूस नही हुआ कि ये वही शहर है जिसके लिए हमने पूरे बारह घंटे सफ़र किया। ये कई हद तक दिल्ली को चारों तरफ से घेरे एनसीआर जैसा है। सब कुछ तो यहाँ वैसा ही है। मैं अभी तक इस शहर से मिल नही पाया। मैने उसे देखा भर है। मिलने के लिए समय चाहिए, बस वही तो नही था मेरे पास। सोचिये आप मुद्दतों बाद किसी अनजान शहर गए हों, पर उसे गौर से देखने भर की फुर्सत ही न हो। मेरे मन का शहर भी अब बाक़ी नही रहा कि उसे देखकर ही मैं इस शहर को जान पाता। जान भी जाता तो क्या होता? वह जानकारी एक बड़ा झूट होती। जैसे ये असल शहर भी नक़ल है उसी तरह नक़ल की नक़ल को जानने से कोई फ़ायदा नही होता। वह भी मुझे भ्रम में ही डालता। जैसे कोई असल दुनिया हमारी नकली दुनिया को आदर्श के भ्रम में डाले रहती है। लेकिन हम भी चालाक हैं। हम जहाँ तहाँ पेशाब कर उसके पूरे आदर्श पर पानी फेर देते हैं। ये शहर भी ऐसा ही है, ईमानदार और बेशरम बाक़ी सभी शहरों की तरह। पर इसकी भाषा में शहर वाली बात नही है। शहरों की भाषा शायद कठोर सी हुआ करती है। इसकी भाषा में गाँव की कोमलता अब भी बनी हुई है। ये भाषा की चालाकी भी हो सकती है, हो सकता है वो शब्दों के अर्थों में परिवर्तन कर हमें ठग रही हो। शब्दों की मिठास में फंसकर हम अर्थों की साज़िश को समझ ही न पा रहे हों। शहर की भाषा हमें कभी उस तरह आकर्षित नही करती जैसे बोलियाँ करतीं हैं। इस मामले में शहर एकदम नंगा होता है। किसी स्थान को जानने के लिए उसकी भाषा को जानना भी तो ज़रूरी है। मैं अभी उतना नही जान पाया जितना ज़रूरी है। मैं शायद अभी उस शहर के बारे में लिखने के काबिल भी नही हूँ, पर लिख रहा हूँ। उसे फिर से बना रहा हूँ अपनी तरह...

देवेश, 22 फरवरी 2017

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