तस्वीरों में कहना

वहाँ बार-बार कुछ कह देने की इच्छा है। लेकिन किसी को कुछ बता देने का दावा नही। कहना सिर्फ शब्दों से ही थोड़ी होता है। तस्वीरें भी कहती हैं, जितना वो कह पाती हैं। यहाँ गाँव की तस्वीरों को इस तरह डालना भी कुछ कहता है। ये दूरी को एकदम से पाट देने जैसा है। मैंने कभी बहराइच नही देखा, कभी देख पाऊंगा या नही कुछ पता नही, लेकिन तस्वीरों से मुझे ये तो पता चल रहा है कि वो अब बदल रहा है। बदलना तो नियति है ही लेकिन इस तरह की आधुनिकता में बदलना नियति हो जाएगी इसका अंदाज़ा भी किसी ने कभी लगाया ही होगा। सर ने कहा इन्हें इस तरह यहाँ लगा देना और इस तरह लिख देना फिज़ूल है। लेकिन मैं ऐसा नही मानता। यहाँ बात जहाँ तक निरर्थकता की है तो यह बात साफ है कि हर बात हर किसी के लिए समान महत्व नही रखती उसमें भी एक अंतर यहाँ हो जाता है कि महत्व देने के पीछे कारण क्या है। यही कारण ही महत्व निर्धारित करते हैं। उनके इस तरह तस्वीरों के माध्यम से कहने में कहे जाने से अलग एक मौन भी है, जहाँ कहे जाने के पीछे एक कहानी बताने की इच्छा है। लेकिन कहा गया खुलेगा तब जब आप कहने वाले को समझते हों।
                            इन तस्वीरों को इस तरह लेना एक समय को समेट लेने की कोशिश भी है और बेचैनी भी और इसी समय में आधुनिकता को विचारता हुआ एक शोधार्थी भी है जो तस्वीरों की अपनी अलग दुनिया गढ़ रहा है, नज़र भी उसकी अपनी है। नज़र का इस प्रकार बने जाने में भी उसकी ही मेहनत है। हम सभी इस तरह सबकुछ समेट लेने की इच्छाओं से भर जाते हैं, थोड़ा बहुत समेट भी लेते हैं लेकिन धीरे-धीरे वह सब स्मृति से रिसरिसकर खो जाता है। इन डिजिटल तस्वीरों में रिसने जैसा कुछ नही होता ये धीरे-धीरे नही जाती अचानक खो जाती हैं और हम उन्हें ढूंढते रह जाते हैं।

देवेश, 1 दिसम्बर  2017

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